।। प्रातःवंदन।।
मिलने की #आरजू की है किल।
घाव दे जाते हो कितने ऐ कातिल ,
कि गुजरते है लम्हे कई होने में फिल,
मिलकर बिछड़ने से डरता है ये #दिल ,
इसलिए तो मिलने की #आरजू की है किल।
बदलाव - 'अपनों के खातिर'
आज जब आकाश ने धरा का हाथ अपने हाथ में लेकर बड़े प्यार से कहा, "इधर आओ धरा ! हमेशा जल्दी में रहती हो, जरा पास में बैठो तो" ! तो अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पायी वह,..
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डगर पनघट की - -
जब तक परस्पर के नज़दीक, हर पल है रंगीन..
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प्रेम अगर पाया भीतर तो
मिले यह सृष्टि प्रेम लुटाती,
स्वयं से भी जो न जुड़ पाया
पीड़ा मन की रहे सताती
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खोल कर यूँ न ज़ुल्फ़ें चलो बाग़ में, प्यार से है भरा दिल,छलक जाएगा
ये लचकती महकती हुई डालियाँ
झुक के करती हैं तुमको नमन, राह में
हाथ बाँधे हुए सब खड़े फ़ूल हैं..
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।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
सुप्रभात 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत प्रस्तुति और केदारनाथ जी की पंक्तियाँ चार चाँद लगा रही मंच को!
सादर.......
आभार 🙏
शानदार अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
आदरणीय पम्मी मेम,
जवाब देंहटाएंमेरी लिखी रचना "मिलने की आरजू की है किल " को इस "पांच लिंकों का आनन्द" मंच में स्थान देने।लिए बहुत धन्यवाद एवम आभार ।
सभी संकलित रचनाएं बहुत ही उम्दा है सभी आदरणीय को बहुत बधाइयां ।
सादर ।
मुझे शामिल करने हेतु आपका हृदय तल से आभार । सभी रचनाएं प्रणय गंध लिए हुए मुग्ध करते हैं।
जवाब देंहटाएंकेदारनाथ अग्रवाल जी की शानदार पंक्तियों के साथ बहुत ही लाजवाब प्रस्तुति । सभी लिंक्स बेहद उत्कृष्ट ।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को भी यहाँ स्थान देने हेतु दिल से धन्यवाद एवं आभार पम्मी जी !
सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं ।
देर से आने के लिए खेद है, अति सुंदर भूमिका और उम्दा रचनाओं का चयन इस अंक को विशेष बना रहा है, आभार!
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