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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

3672....कहानी ले लो कहानी....

शुक्रवार अंक में
आप सभी का स्नेहिल स्वीकार करते हैं।
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श्रवण कवि !
केवल दुःख शब्द 
छू भर देने से
दाहिरा इराक़ घाव से
नहीं टपकाते आँसू,
न ही पैंटी जा सकती है
और न गढ़ी जा सकती है
दुःख की पूरी परिभाषा...
और न ही नम्रता से
जलवायु विकास कर रहे हैं
जीवन के बुझे रंग
न ही तृप्त हो जाते हैं
तृषित हृदय,
क्योंकि संसार के
प्रत्येक प्राणी के द्वारा
दुःख-सुख की परिभाषा
विषय के आधार पर
महसूस किया जाता है
परंतु 
मानकीकरण द्वारा
वगीकृत होती है
 अलग-अलग 
 समय पर महसूस किया
 भावनाओं के
 विश्लेषण के 
 आधार पर...
हर बार गढ़ी जाती है
सुख-दुःख की
नई परिभाषा।
©श्वेता

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आज कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं
लिख रहे हैं क्योंकि टाइप करने पर बहुत एरर हैं 
हो रहा है,अगले अंकन में शायद यह परेशानी है 
ठीक हो जाओ यही उम्मीद करते हैं।

आइए अब आज की संभावनाओं की दुनिया में देखें-

अपने मनमुताबिक जीने की चाह में
कई रंग देख नहीं पाते हैं
अपनी सोच की भँवर में ठग रहा
काँटें असंतोष की निकाल कर फेंक न पायें
कवयित्री कविता का मर्म स्पष्ट करते हुए कहती हैं
यह कविता, हर जगह, हर विभाग, साहित्य राजनीति आदि में पद, पुरस्कार, सम्मान आदि के साथ होते भेदभाव को लेकर लिखी गई है। जो लोग किसी कृपा की आकांक्षा के लिए कुछ नहीं करते, कोई लीक नहीं पकड़ते, वे किनारे पर ही रह जाते हैं। हालाँकि उनका आत्म सम्मान अडिग होता है।



पत्ते होते तो ले जाते हैं साथ में हवा हमको .
या धारा में जाता है  , सागर हमको मिलता है।
अड़े रहे अपनी मार्मी पर कहलाए पत्थर .
इसकी राह चल रही है..

भावनाओं को गुंठकर एहसास एहसास एहसास हो जाते हैं
ज़िक्र दिल का हो तो शब्द नहीं ज़्ज़्बात लिखे जाते हैं

कोई किसी और के लिए,
बुरा, बुरा नहीं होगा?
फिक्र में हमें खुद के सिवा
और क्या..?
इसलिए फिक्र में, 
बस फिक्र न हो..!

 हर बात ही बनना तुम पर ही
 खत्म हो गया है
ख़्वाब हो या हक़ीक़त आपके ख़्यालों से
तन्हाई भी बज़्म हो जाती है...

तेरे हाथ से गुंधे हुए 
आंटें में सना हुआ प्यार,
या कम में दिया हुआ बटन 
दबा हुआ प्यार,


पढ़ें जबर्दस्त वंग


अरे नहीं भैया तब भी बहुत मोहगी है। हाँ तो दीदी बड़ी भी तो है ,  ऊपर से आप शब्दों का प्रति बंद अलग अनुभव करते हैं ,  कभी सोचा है कि स्वछंद लेख वाले का कितना चेहरा बना रहे हैं और आप इसमें शामिल भी स्वभाव-भाव कर रहे हैं। लेलो न एक कहानी दीदी , आपका क्या होगा। आप तो खुद भी इतना लिख ​​रहे हैं कि आपके हाथ के नीचे से निकलने वाली छोटी मोटी पत्रिका वह भी वोर जो अखबार के साथ अलग से दिखाई देता है ,  तक में केवल दो पन्ने तो आपके ही होते हैं। ऐसे में लिखा हमारा भी थोड़ा सा लेलोगी तो आप क्या बिगड़ेंगे। 

और चलते-चलते अगर आप 
इस नाव की सवारी नहीं करेंगे तो
ज़िंदगी के सबक का एक पन्ना पढ़ कैसे पायेंगे?

कभी लगता है कि नांव पाट का मोह नहीं त्याग प्राप्त होते हैं इसलिए बहुत दूर नहीं जाते पाट से अलग – निहारती रहते हैं उस पीछे छूट रहे पाट को। खोई रहती है उस पर गुजरे पलों की स्मृतियों में। कभी कुछ दूर भी हो जाते हैं तो भी किनारे से बहुत दूर नहीं। पाट शायद कुछ ओझल हो भी जाते हैं तो भी नदी के किनारे अपने से नजर आते हैं - मन, भ्रम में ही सही, अपनों के बीच रहता है। कभी-कभी कुछ बिंदुओं का उल्लेख सन फाइल में बहुत कुछ हासिल करने की इच्छा होती है तो मगर एक बड़ा सी नांव उसी पानी में देने से तो मंजिल नहीं मिल जाती। पट की बेड़ियाँ और हौसलों को देखती हैं।

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आज के लिए ही
कल का विशेष अंक लेकर
आ रहे हैं  प्रिय विभाग दी

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7 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार अंक
    हर बार गढ़ी जाती है
    सुख-दुःख की
    नवीन परिभाषा।
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. अलग-अलग समय पर महसूस की गयी
    भावनाओं के विश्लेषण के
    आधार पर...
    हर बार गढ़ी जाती है
    सुख-दुःख की नई परिभाषा।

    -सत्य कथन

    जवाब देंहटाएं
  3. सुख दुःख की परिभाषा ,भावनाओं का विश्लेषण....
    चिंतनपूर्ण भूमिका एवं उत्कृष्ट लिंकों से सजी लाजवाब प्रस्तुति।
    सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं
  4. हमेशा की तरह ज्ञान की ऊष्मा बिखेरती सुंदर भूमिका के साथ, विभिन्न रचनाओं से सजी सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुख दुख की परिभाषा हर युग में गढी जाती है अपने अपने ढंग से ...सुन्दर संकलन

    जवाब देंहटाएं
  6. इस लिंक में बहुत सुन्दर उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने मिली. धन्यवाद श्वेता जी.

    जवाब देंहटाएं

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