सादर अभिवाादन.....
एक प्रसंग के अनुसार एक दिन एक युवक स्वामी विवेकानंद के पास आया। उसने कहा- मैं आपसे गीता पढ़ना चाहता हूं। स्वामीजी ने युवक को ध्यान से देखा और कहा- पहले छ: माह प्रतिदिन फुटबॉल खेलो, फिर आओ, तब मैं गीता पढ़ाऊंगा।
युवक आश्चर्य में पड़ गया। गीताजी जैसे पवित्र ग्रंथ के अध्ययन के बीच में यह फुटबॉल कहां से आ गया? इसका क्या काम? स्वामीजी उसको देख रहे थे।
उसकी चकित अवस्था को देख स्वामीजी ने समझाया- बेटा! भगवद्गीता वीरों का शास्त्र है। एक सेनानी द्वारा एक महारथी को दिया गया दिव्य उपदेश है। अत: पहले शरीर का
बल बढ़ाओ। शरीर स्वस्थ होगा तो समझ भी परिष्कृत होगी। गीताजी जैसा कठिन विषय आसानी से समझ सकोगे।
जो शरीर को स्वस्थ नहीं रखता, सशक्त-सजग नहीं रख सकता अर्थात् जो शरीर को नहीं संभाल पाया, वह गीताजी के विचारों को, अध्यात्म को कैसे संभाल सकेगा। उसे पचाने
के लिए स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन ही चाहिए। गीता के अध्यात्म को अपने जीवन में कैसे उतार पाएगा?
अब देखिये आज के लिये मेरी पसंद.....
दोहे "देंगे मिटा गुरूर"
अपने सेनाध्यक्ष ने, किया यहाँ ऐलान।
पूरा ही कश्मीर है, भारत का उद्यान।।
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महिला हों या पुरुष हों, सभी आज उन्मुक्त।
यही कामना कर रहे, न्याय मिले उपयुक्त।।
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अब आधा कश्मीर है, हमें नहीं मंजूर।
पी.ओ.के. को छीनकर, देंगे मिटा गुरूर।।
कंगन भी कटार हो जाता है जी ..
जव मुंह चुराने लगे वफ़ादारी,
मंगल भी इतवार हो जाता है जी -
जब प्यास खून से बुझने लगे ,
सूना-सूना संसार हो जाता है जी -
कानून - 1919 में पारित रौलेट एक्ट का इतिहास और उसका स्वाधीनता संग्राम पर प्रभाव / विजय शंकर सिंह
यह एक्ट ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में उभर रहे आज़ादी के राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से बनाया गया था। इस कानून में कुछ प्राविधानों के अनुसार सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए उसे जेल में बंद कर सकती है। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था।
वाह रे पागलपन
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की
सावनी फुहार में--
अज्ञातवास - -
है डेरा, फिर तुम्हारे स्पर्श से जग उठे हैं सीने
के अनगिनत अज्ञातवास। क्या यही है
इंगित पुनर्जीवन का या फिर कोई
ख़्वाबों का उच्छ्वास। वो
शबनमी अनुराग है
कोई, या घुमन्तु
मेघ, हाथ
बढ़ाते सिर्फ़ दे जाए एक सिक्त अहसास, - - -
ख्यालों में
बैचैनियां तडपती है और सुकून मिलता है
कुछ अलग सा है ये हाल, गुजरे हालों मे
वो घडी कोई नही, कि हम नशे में न हो
अजब कशिश है उन निगाहों के प्यालों में
वक्त काफी गुजरता है उनके ख्यालों में
कोई साथ रहने लगा है शहर में.
कुछ देर के लिए ही, ज़ुबान मिल जाये ।।।
उसकी गहराइयों में डुबकियां लगाती हूँ
दुख से छिटककर एक अलग पगडंडी पर,
नए अर्थ तलाशती हूँ,
अवश्यम्भावी मृत्यु से पहले,
अकाट्य सत्य लिखने की कोशिश करती हूँ,
ताकि अनकहे,अनलिखे लोगों के चेहरे पर,
एक मुस्कान तैर जाए,
धन्यवाद।
शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन प्रस्तुति..
आभार..
सादर...
बहुत सुंदर लिंक्स चयन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआज भूमिका में आदरणीय कुलदीपजी ने जो कहानी दी है, यूँ लगा जैसे मेरे ही लिए है। मैंने अपने स्वास्थ्य और शरीर के प्रति बहुत लापरवाही की है। व्रत, उपवास, नवरात्र, चतुर्मास में चार महीने अन्न का त्याग....परंतु मन कहीं स्थिर नहीं हुआ। सचमुच,अध्यात्म को पचाने के लिए स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन चाहिए। इतनी सुंदर कहानी और सुंदर अंक के लिए सादर धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंवाह!अत्यंत सार्थक ताना-बाना। आमुख से उपसंहार तक।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब प्रिय कुलदीप जी आपकी प्रस्तुति हमेशा विशेष रहती है । सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनायें । आपको बधाई और आभार 🙏🙏💐💐💐
जवाब देंहटाएंवाह!!खूबसूरत भूमिका के साथ लाजवाब प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंविशिष्ट परिप्रेक्ष्य के साथ सुंदर प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुंदर प्रस्तुति शानदार लिंको का चयन।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई।
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
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