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मंगलवार, 22 जुलाई 2025

4457...अब उम्मीद की वह पतली डोर भी टूट गई...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया डॉ. जेन्नी शबनम जी की रचना से।

सादर अभिवादन।

मंगलवारीय अंक में पढ़िए चंद चुनिंदा रचनाएँ-

ज़िन्दगी की लकीर

अब उम्मीद की वह पतली डोर भी टूट गई
जिसे सँजोए रखती थी तमाम झंझावतों में
और हथेली की लकीरों में तलाशती थी।

*****

सफ़र

मेरे भीतर का अनुभूत

समय..,

दरिया बन बहता गया

सृजनात्मकता में


अक्षरांकन की इस यात्रा में

मेरा वजूद

कई बार रोया कई बार मुस्कुराया

*****

नया नया बूढ़ा ...

रोज थैला उठाए मार्केट में दिखता हूं,

हर दुकानदार से करता फजीहता हूं।

घर में है लाइब्रेरी भरी सैकड़ों किताबों से,

पर पढ़ने लिखने में बस करता कविता हूं।

*****

रात

काश! रागों में डूबते,

कविताओं में गोता लगाते,

और कहानियों के पृष्ठों को

पलटते हुए बीत जाती।

*****

उन श्रीमहादेव का नित स्मरण करो जो जगत के रक्षक हैं

जो परमात्मा एक जगत आदिकारण हैं
इच्छारहित निराकार ज्ञेय
जगत जनक पालनहार हैं
जिनमें सारा जगत समाया है
उन श्रीमहादेव का नित स्मरण करो
जो जगत के रक्षक हैं

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


5 टिप्‍पणियां:

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