शीर्षक पंक्ति: आदरणीय पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पढ़िए पसंदीदा रचनाएँ-
परदेसी से
उसके हरे-हरे पत्ते
हवाओं में मचलते हैं,
उसकी टहनियों पर बैठकर
पंछी चहचहाते हैं।
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ॐ
जो धरा है वही चाँद
और सभी निरंतर होना चाहते हैं
वह, जो थे
जाना चाहते हैं वहाँ
जहाँ से आये थे!
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करें यकीं
कैसे
यूं सुलगते, बंजर मन के ये घास-पात,
उलझते, खुद ही खुद जज्बात,
जगाए रात,
वो करे, यकीं कैसे?
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प्रतियोगिता
बहुत ही पीछे है कछुआ,
सोच खरगोश सो गया।
धीरे धीरे चल कछुआ🐢
मंजिल तक पहुँच गया।
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अजब परिंदे, गजब परिंदे
मैना अपने में मस्त रहती हैं ! मुख्य ढेर के अलावा
बेझिझक इधर-उधर घूमते हुए, गिरे हुए कण भी चुग
लेती हैं ! हर बार अपना ही घर समझ यह पाखी जोड़े में ही आता है। उपरोक्त सारे पक्षी
जितने शान्ति प्रिय लगते हैं, तोते उतना ही शोर
मचाते हैं ! हर समय चीखते-चिल्लाते इधर-उधर मंडराते हैं ! उनको कुछ खा कर भागने की
भी बहुत जल्दी रहती है ! उनको पानी पीते नहीं देख पाया हूँ कभी ! जो भी हो पर होते
बहुत सुन्दर हैं, प्रकृति की एक
अद्भुत कलाकारी ! इन्हीं के बीच दौड़ती-भागती सदा व्यस्त रहने वाली गिलहरी का तो
कहना ही क्या, उसके तो अपने ही
जलवे होते हैं!
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत सुंदर सराहनीय संकलन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
सादर
सुंदर संकलन। आभार
जवाब देंहटाएंसच में एक अच्छी प्रस्तुति है ये
जवाब देंहटाएंसाधुवाद