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गुरुवार, 28 नवंबर 2024

4321...यूं सुलगते, बंजर मन के ये घास-पात...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पसंदीदा रचनाएँ-

परदेसी से

उसके हरे-हरे पत्ते

हवाओं में मचलते हैं,

उसकी टहनियों पर बैठकर

पंछी चहचहाते हैं।

*****

जो धरा है वही चाँद

और सभी निरंतर होना चाहते हैं

वह, जो थे

जाना चाहते हैं वहाँ

जहाँ से आये थे!

*****

करें यकीं कैसे

यूं सुलगते, बंजर मन के ये घास-पात,

उलझते, खुद ही खुद जज्बात,

जगाए रात,

वो करे, यकीं कैसे?

*****

प्रतियोगिता

बहुत ही पीछे है कछुआ,

सोच खरगोश सो गया।

धीरे धीरे चल कछुआ🐢

मंजिल तक पहुँच गया।

*****

अजब परिंदे, गजब परिंदे

मैना अपने में मस्त रहती हैं ! मुख्य ढेर के अलावा बेझिझक इधर-उधर घूमते हुए, गिरे हुए कण भी चुग लेती हैं ! हर बार अपना ही घर समझ यह पाखी जोड़े में ही आता है। उपरोक्त सारे पक्षी जितने शान्ति प्रिय लगते हैं, तोते उतना ही शोर मचाते हैं ! हर समय चीखते-चिल्लाते इधर-उधर मंडराते हैं ! उनको कुछ खा कर भागने की भी बहुत जल्दी रहती है ! उनको पानी पीते नहीं देख पाया हूँ कभी ! जो भी हो पर होते बहुत सुन्दर हैं, प्रकृति की एक अद्भुत कलाकारी ! इन्हीं के बीच दौड़ती-भागती सदा व्यस्त रहने वाली गिलहरी का तो कहना ही क्या, उसके तो अपने ही जलवे होते हैं! 

*****   

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


3 टिप्‍पणियां:

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