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रविवार, 21 मई 2023

3764.....मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

जय मां हाटेशवरी.......
सादर नमन......
बहुत वर्षों पहले......
पाश जी कीये रचना पढ़ी थी......
बार बार पढ़ने को मन करता है.....
आप भी पढ़ें......
प्रस्तुती का आरंभ इसी रचना से.....

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्या वक़्त इसी का नाम है
कि घटनाएँ कुचलती चली जाएँ
मस्त हाथी की तरह
एक पूरे मनुष्य की चेतना ?
कि हर प्रश्न
काम में लगे ज़िस्म की ग़लती ही हो ?
क्यूँ सुना दिया जाता है हर बार
पुराना चुटकुला
क्यूँ कहा जाता है कि हम ज़िन्दा है
जरा सोचो -
कि हममे से कितनों का नाता है
ज़िन्दगी जैसी किसी वस्तु के साथ !
रब की वो कैसी रहमत है
जो कनक बोते फटे हुए हाथों-
और मंडी के बीचोबीच के तख़्तपोश पर फैली हुई माँस की
उस पिलपली ढेरी पर,
एक ही समय होती है ?
आख़िर क्यों
बैलों की घंटियाँ
और पानी निकालते इंजन के शोर में
घिरे हुए चेहरो पर जम गई है
एक चीख़तीं ख़ामोशी ?
कौन खा जाता है तल कर
मशीन मे चारा डाल रहे
कुतरे हुए अरमानों वाले डोलो की मछलियाँ ?
क्यों गिड़गिड़ाता है
मेरे गाँव का किसान
एक मामूली से पुलिसए के आगे ?
क्यों किसी दरड़े जाते आदमी के चौंकने के लिए
हर वार को
कविता कह दिया जाता है?
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ
कभी 'छुट्टा नहीं' सुन के ख़ुश था
आज छुट्टी हुई तो हताश हूँ
जिसकी औक़ात सामने आ गई
मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ

किसने मन का फूल खिलाया
प्यार प्रार्थना साथ किसी का
बन गए ज़िदगी का सरमाया
बूँद बूँद चिंतन मिट्टी ने सोखा
भाव भूमि पर फूल खिलाया

अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए - उबैदुल्लाह अलीम
मिले हैं यूँ तो बहुत आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मी-ए-अनफ़ास से पिघल जाए
मोहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए

सूर्य पूत्र कर्ण
दान वीर था कर्ण प्रतापी 
शोर्य तेज से युक्त विभा
मन का जो अवसाद बढ़ा तो
विगलित भटकी सूर्य प्रभा
माँ के इक नासमझ कर्म से
रूई लिपटी आग बना
चोट लगी जब हर कलाप पर
धनुष डोर सा रहा तना
बात चढ़ी थी आसमान तक
कर न सके हरि भी सारण।।

कर्म से कर्मयोग
जो बीज बोये थे
उन्हें काटना है,
नए कर्मों की पौध
को छांटना है !
क्लांत मन, थका तन
एक दिन सजग होता है,
ज्ञानदीपक भक से
भीतर जल उठता है !
कर्म तब बांधते नहीं
निष्काम, निस्वार्थ कर्म,
केवल कर्म के लिये कर्म
कर्म तब कर्मयोग कहलाता है !

उनके इक परफ़्यूम की शीशी अब तक है ...
इक दिन इठला कर तितली भी आएगी,
आँगन में इक ऐसा पेड़ उगाता हूँ.
आदम-कद जो ले आए थे तुम उस-दिन,
उस टैडी के अब-तक नाज़ उठाता हूँ.

धन्यवाद.....

3 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार अंक
    आगाज पसंद आया
    आभार
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. हमने लिखा आपने पढ़ा ! आपने जो पढ़ा, इसलिए शुक्रिया ! पढ़े न पढ़े और कोई बंदा !
    आज का अंक जड़ाऊ हार है ! भूमिका नगीना ! पांच मोतियों में जड़ा ! धन्यवाद बार बार ! अभिनन्दन बेशुमार ! नमस्ते !

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत आभार मेरी ग़ज़ल को जगह देने के लिए - दिगम्बर नासवा

    जवाब देंहटाएं

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