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सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

3542 / जिंदगी शायद इसी कश्मकश का नाम है!!

 

नमस्कार !  कुछ त्योहारों का समूह बीत गया और अब कुछ आगे आने वाला है ....... पितृ पक्ष से भाई दोयज  तक त्योहारों का सिलसिला चलता ही रहता है ....... अभी हम सब दशहरा  और दुर्गा पूजा मना कर चुके हैं ..... दशहरे पर बहुत कुछ पढने को मिलता रहा है कि  रावण का पुतला बना कर क्यों जलाना  , अपने अन्दर के रावण को जलाओ ...... बात तो सही है ....... अगर आज की व्यवस्था को देखा जाये और लोगों की फितरत को तो हमें कोई हक नहीं है सालों साल   रावण  दहन करने की .......आज के  रावण  राम बने  कैसे राम को ही दहन कर रहे हैं , आईये पढ़ते हैं एक लघु कथा ......

मड़ई के राम


उधर गाँव के बाहर हो रही रामलीला की आवाज़ें ननकी के कान में पड़ने लगी। रावण के "हे राम!"कहकर गिरते ही वहाँ इकट्ठा पूरा गाँव एक स्वर में 'जय श्री राम' का जयघोष करने लगा।ननकी अपने आँसू पोंछ रामलीला मैदान की ओर दौड़ने लगी


इसे पढ़ मन उदास हो गया था ....... लेकिन एक सच को कहना और समझना बहुत ज़रूरी है ....... पर समझ कर भी यदि यही मन में बात आये कि अरे हमें क्या ? तो एक बार टटोल लीजियेगा  खुद को ...... यूँ तो सब कुछ बदल रहा है ..मानव मन से ले कर मौसम तक ............... अब इस वक़्त क्या कभी ऐसी बारिश हुई है ?  नहीं न ... तभी न  कवि हृदय  कह उठा है .... 


'गरजना' तुम्हारी भावनाएँ हैं ।

और फ़ितरत है, तुम्हारी।

'बरसना', 

उन भावनाओं में।

कहना क्या  चाह रहे हो? 


और कवि ने सार्थक शब्दों में कह दिया कि जब तक कर्म के बीज नहीं होंगे तो कुछ फलेगा फूलेगा नहीं ...... भले ही कितना बरस लो ...... खैर ये तो बेमौसम से उपजा गहन ज्ञान मिला ..... लेकिन जीवन की  सच्चाई  का ज्ञान अनुभवों से मिलता है ....... एक और लघु कथा पढ़ें .... 

क्षिप्रका


माता-पिता की खुशियों के उच्छल पर अंकुश लग ही नहीं रहा था। उन्हें अपनी इकलौती पुत्री के लिए मनचाहा भारतीय प्रशासनिक सेवक, घर-जमाई मिल गया था। बारात का स्वागत हो चुका था। वरमाला के बाद वर-वधू गाड़ी में बैठ चुके थे। शादी के लिए मंडप घर के छत पर बना था..... 


आज  न जाने क्यों  इतने पर्व -  त्यौहार के बाद ब्लॉग जगत में  जीवन के दुःख दर्द को कहती पोस्ट ही ज्यादा आई हैं ........ या कि मेरी नज़र ही ऐसी पोस्ट्स पर पड़ी है ....... फिर भी कुछ है जो प्रेरित करता रहता है कि ज़िन्दगी को जीना है तो सपने देखो ..... क्यों  कि सबसे ज्यादा दुखद क्या है ये बता रही हैं ये कवयित्री ...... 


निर्माण हो रहा है मुश्किल 
से गर्भ में शिशु 
और जद्दोजहद करके 
नदी बना रही हैं 
अपना रास्ता ..... 
 

 दारुण दुःख  के बाद कहीं तो कुछ ऐसी बात करें जो अच्छा लगता हो  ...... नदी भले ही जद्दोजहद से बना रही हो अपना रास्ता लेकिन किसी को उसके तट पर पड़ी रेत भी किस तरह  आकर्षित करती है ..... चलिए हम भी इस  आकर्षण  में  बंध कर देखें .... 


रेत
अपनी लगती हो तुम
चिपक जाती हो
खुरदुरी देह पर
भर जाती हो 
खली जेब में-------

ये कविवर  रेत को भी अपना समझ रहे हैं  , लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं कि पुत्र मोह में अपनी पत्नी को भी अपना नहीं समझते ....... एक ऐसी ही कहानी इस विषय पर आप पढ़िए .... 


किसी ने उसका हाथ पकड़ा सिहर गई वह। यह तो वही चिर परिचित स्पर्श है जिसे उसके पिता ने उस हाथ में दिया था। नरम मुलायम और गर्म जिसे थाम सोती थी तो बेसुध नींद आती थी। वह फिर सो जाना चाहती थी उस स्पर्श को भीतर उतार कर तभी उसका हाथ छोड़ दिया गया। अकुला गई  वह।


कितनी विडम्बना है कि जिसके बिना नर का  अस्तित्व  नहीं उसी की कद्र नहीं ..... हमेशा ही नारी को अपनी इच्छा मनवाने का साधन मात्र समझा है शायद एक मशीन की तरह ...... आज एक रचना मेरी नज़रों से गुज़री तो सोचने पर मजबूर हो गयी कि आज की नारी थोडा मुखर हो रही है तो कहीं अपने दंभ को पोषित करने के लिए ही  किसी पुरुष ने  इस मशीन का आविष्कार नहीं  किया ?  पढ़ कर बताइयेगा आप ..... 


एक नहीं कई थे आदेश देने वाले,
वह रोबोट नहीं थी,
वह आज की एलेक्सा नहीं थी
तब उसका नाम कुछ भी होता था।
उसे लाया जाता साधिकार,
फिर वह एलेक्सा बना दी गई।
तारीफ देखिए सदियों बाद जब
नयी एलेक्सा आई तो
वह भी स्त्रीलिंग है

इस रचना को पढ़ते हुए कहीं तो विचार आया ही होगा लेकिन एक हलकी सी मुस्कान भी आ ही गयी होगी कि सच  जहाँ न  पहुँचे रवि  वहाँ  पहुँचे कवि ....... चलिए जो भी है ये एक मुस्कान बहुत कीमती है ....... आज कल भला कौन निश्छल  मुस्कुरा  पाता  है  ..... सबसे बढ़िया बात  कि अब एक मुस्कान दिवस भी  है ........ और इस दिवस के उपलक्ष्य में ही एक  खूबसूरत  ग़ज़ल है ...... पढ़िए और मुस्कुराइए ...



शैतानों की बस्ती में इनसान बचा कर रखना है
अपने भीतर अपना इक भगवान बचा कर रखना है

चारों और रुलाने वाली हालत है फिर भी हमको
अपने अधरों पर थोड़ी मुस्कान बचा कर रखना है।


जी हाँ ..... मुस्कान बहुत ज़रूरी है और मुस्कान के लिए दिल में अरमान भी ज़रूरी हैं ...... ज़िन्दगी में हम क्या चाहते हैं और मिलता क्या है ये अलग बात है लेकिन फिर भी ज़िन्दगी में जो भी मिलता है कम तो नहीं है ..... कुछ ऐसी ही  कश्मकश देखिये यहाँ ... 

सूरज अब डूबने को हुआ है लालायित –

और मैं खोज रहा हूँ उस बादल को

वो भी खो गया कुछ मुझसा मेरे साथ

या फिर बरस गया है कहीं कुछ यूं ही


यदि देखा जाए तो ज़िन्दगी वाकई  कश्मकश का ही नाम है ....... जो चाहो मिलता नहीं ....जो मिला

 उसके साथ समझौते करने के अलावा कोई चारा नहीं .....  लेकिन बुद्धिमता तो इसी में है कि जो मिला

 है उसे  सहेज लिया जाए .....  ऐसे ही विषय पर एक लम्बी कहानी ..... जिसका आगे का भाग बाद में

 पढियेगा .... अभी प्रथम भाग पढ़ें ...


"एक रिश्ता ऐसा भी"


वसुधा और समीर वैसे तो आदर्श जोड़े थे। दोनों का जीवन बाहर से देखने पर बिल्कुल शाँत-और सुखमय ही था। समीर की नजर में वसुधा एक आम पत्नी थी जिसका काम  उसकी जरूरतों को पूरा करना था। समीर रिश्तों में भी गुडलक और बैडलक ढूंढता था और उसके जीवन में वसुधा के आने से कुछ खास बदलाव नहीं हुआ था। उसे दिल-विल,प्यार-व्यार में बिल्कुल यकीन ना था। उसका मानना था सारे रिश्तें जिस्म से शुरू होते है और जिस्म पर ही जाकर ख़त्म होते है। ,उसे "चित्रलेखा" के उस कथन पर ज्यादा यकीन था कि"ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानों" और वसुधा वो तो आजीवन तन से परे मन की पुजारन थी।

और अब चलते चलते एक दो पोस्ट और दिख रही हैं जिनसे आपको रु ब रु करा देती हूँ ...... आज शरद पूर्णिमा है तो चाँद पर बात न हो तो फिर क्या बात हो ....... 😅😅
वर्ण पिरामिड में झलक रहा है  .......चाँद 

दे
प्रभा
चंद्रमा
अलंकृत 
नभ शोभित
नित्य निशा काल
उपग्रह विशाल ।।


 वैसे कवि तो चाँद के ज़रिये ही प्रेमी - प्रेमिका की बात करा देते थे  आज कल कुछ वास्तविकता के धरातल पर बात होती है ........ अभी ऊपर हम मुस्कान दिवस की बात कर रहे थे वैसे ही आज ९ अक्टूबर  को डाक दिवस भी मनाया जाता है ...... और इसी विषय पर एक रचना पढ़िए ...

डाकिया डाक लाया


दरवाज़े पर बैठ कर

वो घंटो गपियाना

डाकिये की साईकल की ट्रिन ट्रिन सुन

बैचेन दिल का बेताब हो जाना

इन्तजार करते कितने चेहरों के रंग 

पढ़ते ही खत को बदल जाते थे


 रंगों की बात चली है तो आज आपको ऐसे ब्लॉग का पता दे रही हूँ  जहाँ रंग ही रंग हैं ... चित्र ही  चित्र  हैं ... ....... आइये मिल कर लेते हैं चित्रों का आनंद ...... 

धमेखस्तूप पार्क





और इन खूबसूरत चित्रों के साथ ही आज की हलचल समाप्त करती हूँ  . आशा है  सभी सूत्र आपको पसंद आये होंगे ......  हमेशा आपके सुझावों का स्वागत है ........ अब इजाज़त दें ..... 

नमस्कार 

संगीता स्वरुप .




33 टिप्‍पणियां:

  1. एक नहीं कई थे आदेश देने वाले,
    वह रोबोट नहीं थी,
    आलस पैदा कर देती है एलेक्सा
    अप्रतिम अंक
    सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  2. मेरे इस उपेक्षित ब्लॉग को शामिल करने के लिए आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. वंदन के संग हार्दिक आभार आपका

    श्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. ...आज की शानदार प्रस्तुति💐💐
    आंचल पांडे की कहानी.. मड़ई के राम.. चिंतनपूर्ण विषय पर सराहनीय प्रस्तुति।
    विश्वमोहन जी की कविता.. पगले बदल.. सुंदर शब्द शौष्ठव से सज्जित सार्थक और सामयिक रच ना।
    विभारानी दीदी की लघुकथा.. क्षिप्रका.. चिंतनपूर्ण विषय पर सारगर्भित लघुकथा ।
    सरिता शैल जी की रचना.. सपनों का मर जाना.. मानवीय संवेदना का हृदयस्पर्शी चिंतन ।
    ज्योति खरे जी की कविता .. रेत.. रेत के माध्यम से गढ़ा गया मार्मिक एहसास मन को छूती हुई सुंदर रचना ।
    कविता वर्मा जी की कहानी.. मुक्ति.. भ्रूणहत्या पर नारी मन पर मार्मिक अभिव्यक्ति।
    रेखा श्रीवास्तव दीदी की रचना.. एलेक्सा.. स्त्री जीवन पर मार्मिक अभिव्यक्ति।
    गिरीश पंकज जी की रचना.. मुस्कान दिवस पर विशेष.. सकारात्मक भाव से परिपूर्ण प्रेरक सृजन।
    समीर लाल समीर जी की.. जिंदगी शायद इसी कशमकश का नाम है.. जीवन में उम्मीद जागते प्रेरक भाव ।
    कामिनी सिन्हा जी की कहानी .. एक रिश्ता ऐसा भी.. बीती यादों में ले जाते और वर्तमान से जुड़ते संदर्भों पर सुंदर कहानी।
    रंजू भाटिया जी की रचना.. डाकिया डाक लाया.. चिट्ठियों के स्वर्णिम युग पर मार्मिक अभिव्यक्ति।
    देवेन्द्र पाण्डेय जी की सुंदर फोटोग्राफी.. धमेखस्तूप पार्क.. प्रकृति को संरक्षित करती सुंदर छवियां।
    ..साथ ही जिज्ञासा सिंह के चांद.. को समर्पित पिरामिड ।
    .. हिंदी साहित्य को समृद्ध करते, विविध रंगों के सुंदर, सार्थक, रोचक सूत्रों से परिपूर्ण उत्कृष्ट संकलन को श्रमसाध्य खोज से सज्जित करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार और अभिनंदन आदरणीय दीदी । अगले अंक का इंतजार में... जिज्ञासा सिंह👏💐

    जवाब देंहटाएं
  5. Jigyasa Singh प्रिय जिज्ञासा ,
    सभी रचनाओं पर सटीक टिप्पणी मिली । मन बहुत प्रसन्न हो जाता है जब चुनी हुई सारी रचनाएँ ही सुधि पाठकों द्वारा पढ़ ली जाती हैं । बहुत बहुत आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  6. श्रमसाध्य कार्य है यह आप ढूंढ रही हैं पढ रही हैं और सब तक पहुँचा रही हैं साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  7. कुछ ब्लोग्स पढ़े. दिलचस्प लिंक्स हैं. आभार

    जवाब देंहटाएं
  8. आपकी चिर परिचित मोहक प्रस्तुति!!!आभार।

    जवाब देंहटाएं
  9. सराहना से परे आज का संकलन दी, कुछ रचनाओं को पढ़ी तो हूं,लेकिन आज सब पर अपनी प्रतिक्रिया देने में असमर्थ ही रही, इस श्रमसाध्य प्रस्तुति के लिए साधुवाद दी। रचनाओं को जोड़ती हुई आपकी कहानी बेहद प्रभावशाली होती है। इस श्रृंखला में मेरी कहानी को भी शामिल करने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार दी, सभी रचनाकारों को भी हार्दिक शुभकामनाएं एवं सादर नमस्कार 🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ज़रूर कोई परेशानी रही होगी । प्रस्तुति की सराहना हेतु हार्दिक धन्यवाद ।

      हटाएं
  10. बहुत खूबसूरत संकलन लाजबाव प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  11. प्रत्येक लिंक पर आपकी आकर्षक एवं सारगर्भित भावाभिव्यक्ति सृजन को और भी रोचक एवं पठनीय बनाती है श्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु साधुवाद एक से बढ़कर एक लिंक्स।
    सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रस्तुति को सराहने के लिए हार्दिक आभार । आज कल आपका सृजन कुछ कम हो पा रहा है ,ऐसा मुझे लगा ।

      हटाएं
    2. जी, सही लगा आपको...कारण भी याद ही होगा । बस कोशिश जारी है...सादर प्रणाम🙏🙏

      हटाएं
  12. प्रिय दी,
    एकरस दैनिक क्रिया-कलापों से उबे जीवन में
    त्योहारों से परिवर्तन और उल्लास का संचार होता है। सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं व पूर्व संस्कारों पर आधारित त्योहार मानवीय मूल्य और सारयुक्त संदेश के वाहक हैं किंतु वर्तमान समय में आधुनिक
    परिवेश की आँधी में त्योहारों का मूल संदेशात्मक तत्व
    विलुप्ति के कगार पर है, बची है तो दिखावा और कृत्रिमता जिसने त्योहारों को प्रदर्शनी की वस्तु मात्र बनाकर रख दिया है।
    आज के अंक की सभी रचनाएँ बहुत अच्छी हैं।
    जितनी सुगढ़ता और रोचक शब्दों से आप इन्हें
    अपना बनाती हैं उतनी ही उत्सुकता होती है हम पाठकों को।

    मड़ई के राम
    तू मारा गया बेदाम
    पगले बादल
    है मन का मादल

    सपनों का मर जाना
    जीवन का डर जाना
    रेत पर बेंत
    मुक्ति की सूक्ति

    एलेक्सा
    बदला जीवन नक्शा
    मुस्कान दिवस
    तारीखों में बस
    ज़िंदगी शायद इसी कश्मकश का नाम है
    उलझनों के धागे में होती सुबह से शाम है
    एक रिश्ता ऐसा भी
    हवाओं के जैसा ही

    चाँद की माँद से
    डाकिया डाक लाया
    फूलों के बाग लाया
    धमेखस्तूप पार्क से
    क्षिप्रिका
    --///--
    अगले अंक की प्रतीक्षा में
    सप्रेम प्रणाम दी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय श्वेता ,
      सच है कि त्योहार जीवन की एकरसता को खत्म कर उत्साह का सृजन करते हैं । लेकिन आज कल अधिकतर एकल परिवार होने के कारण त्योहारों का आनंद कम हो गया है । सारे सूत्रों को अपने अंदाज में पिरो कर एक सार्थक सृजन करने हेतु बधाई । अर्थपूर्ण टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार

      हटाएं
  13. कमाल का लिंक संयोजन
    आपको साधुवाद
    सभी रचनाकारों को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  14. श्रमसाध्य अनमोल प्रस्तुति के लिए साधुवाद दी।

    जवाब देंहटाएं

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