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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

3539 ..इसी आपा-धापी में कितना जीवन बीत गया

सादर अभिवादन
आज सखी श्वेता शहर से बाहर है
शुक्रवारीय प्रस्तुति मेरी ओर से
एक लघुकथा पढ़िए
पिछले दिनों विजयादशमी का पर्व सोल्लास सम्पन्न हो गया
एक लघुकथा पढ़ने में आई..शीर्षक था
"रावण का कद"
किसी सोसाइटी की मीटिंग चल रही थी ,चर्चा का विषय था
इस वर्ष रावण किया ऊँचा बनाना चाहिए...पिछले वर्ष 50 फुट का था....
किसी ने कहा कि बगल वाली सोसाइटी मे इस वर्ष 55 पुट का बनाया है,
और उसके पास वाली सोसाइटी ने 60 फीट का बनाया है
कुछ समय चर्चा चलती रही...
सोसाइटी के सबसे बुजुर्ग सदस्य जो इस बहस के मूक श्रोता थे वे बोले ...
"हम लोग रावण को बुराई का प्रतीक मानकर उसका दहन करते हैं !!
हम ऐसी उम्मीद क्यों करें कि बुराई प्रतिवर्ष बढ़ती जाए!
मेरे ख्याल से हमे रावण की ऊंचाई प्रतिवर्ष कम करते जाना चाहिए।
मीटिंग के सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से मंजूरी दे दी
 बेवजह खर्चों में कमी कर सोसाइटी के बागीचे संवारा जाए
अब रचनाएँ



इसी आपा-धापी में कितना जीवन बीत गया -
अरे, अभी यह करना है ,
वह करना तो बाकी रह गया ,
अरे ,तुमने ये नहीं किया?
तुम्हारा ही काम है ,
कैसे करोगी ,तुम जानो!




हड़ताल की करो बात
तो मिल जाता है लॉलीपॉप
कि जल्द ही करते हैं कुछ
पर होता कुछ है नहीं
संविदा कर्मी घुट घुट कर जी रहा यूं ही




निशा   निश्छल   मुस्कुराये  प्रीत  से,
विदा    हुई   जब   भोर   से।

तन्मय   आँचल   फैलाये   प्रीत का ,
पवन  के   हल्के   झौकों    से।

कोयल    ने   मीठी    कूक  भरी,
जब   निशा   मिली   थी   भोर   से।



आज  भी जी  सकती  हूँ
खुद की नाकामी  सही  पर,
जिंदगी नाकाम नहीं  
क़ुछ  पाने  की तलब..
दो चार  कदम और सही..




है विकल हृदय की चाह मेरी
तुम देख लो दृष्टि भर मुझको
भ्रम हो तो फिर हो क्यूँ धुक-धुक?
बींधे दृग वृष्टि कर मुझको
तुम देह नहीं सुरभित मन हो
जग बंधन को जो माने न
मृग मन का चंचल समझे न
तू समझा जा मितवा मेरे

आज बस
सादर

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