शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिनंदन।
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धर्म की परिभाषा
गढ़ने की यात्रा में
शताब्दियों से सींची जा रही
रक्तपोषित नींव
अभेद्य दीवार खड़ी कर चुकी है
आदमी और आदमियत के मध्य।
और...
वाचाल कूपमंडूकों के
एडियों से कुचलकर
वध कर डाले गये
मानवीय गुणों के शव एवं
गर्दयुक्त दृष्टिकोण से प्रदूषित हो
तिल-तिल मरती
संभावनाओं की दुर्दशा पर
धर्म स्तब्ध है!!
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आइये आज की रचनाओं का स्वाद लें -
कोमल पंखों को फैलाकर खग नील गगन छू आता है।
हर मौसम में आस का पंछी सपनों को सहलाता है।।
गिरने से न घबराना गिरकर ही सँभलना आता है।
पतझड़ में टूटा बीज बसंत में नया पौध बन जाता है।।
चाँद चुप और शांत पौन है,
पर्वत थिर और नदी मौन है।
ठंडी किरणें सूरज काला,
जहर जुन्हाई माहूर हाला।
प्रेम की गंध मज़हबी बाग की बाड़ तोड़ देगी
एक दिन प्रेम की नदियाँ नफ़रत का रूख़ मोड़ देगी
जब तुम
हरसिंगार के पेड़ के नीचे
चीप के टुकड़े पर
बैठ जाती जाया करती थी
मैं भी बैठ जाता था
तुम्हारे करीब
और निकालता था
तुम्हारे बालों से
फंसे हुए हरसिंगार के फूल
इस बहाने
छू लेता था तुम्हें
डूब जाता था
तुम्हारी आंखों के
मीठे पानी में
कहने सुनने के दरम्यान अटके हर्फ़
रह-रहकर डसते हैं बेचैनी के सर्प
कुछ कहने को,
कुछ सुनाने को,
कुछ बताने को !
बस एक खाली कलश सी
बहती जाती हूँ
समय की धारा के साथ !
जिस दिन तूफ़ान की ज़द में
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
हाल ही के दिनों में 'बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...' के हिमायतियों के कई ऐसे जुमले सामने आए हैं जिन्होंने संवाद की भूमिका पर तो खतरा खड़ा किया ही साथ ही इस विमर्श के भी दरवाज़े खोले कि हम क्या कह रहे हैं, कैसे कह रहे हैं और कहां कह रहे हैं? साठ साल की जीवन यात्रा के कच्चे-पक्के अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि कहना और सुनना दोनों ही एक कला हैं। हमारे बोल ही नहीं बिगड़े हैं, हमने सुनने का धीरज भी खो दिया है। सुन कर गुनने के गुण का लोप तो लगभग पूरी तरह से ही हो गया है।
नदियाँ गंदी नाला बनती/है बूँद-बूँद अब संकट में
भू-जल सोते सूख रहे /प्यास तड़पती मरघट में
सींच जतन कर कंठ धरा के/बादल से बरखा चुन साथी
पेड़ों का मौन रुदन सुनो/अनसुना करो न तुम साथी
यमुना नदी कीचड़ सा बना पड़ा है। पानी के कारण इतनी दुर्दशा होने के वावजूद किसी की आँख नहीं खुल रही। मैं सरकार या प्रशासन से क्यों शिकायत करूं जबकि दोष हमारा है हम ही जागरूक नहीं हो रहें हैं। प्रशासन तो फिर भी जैसे-तैसे पानी की व्यवस्था कर ही रहा। गन्दे पानी को ही कैमिकल प्रोसेस से शुद्धिकरण कर हम तक पहुंचाया जा रहा है। नदी,ताल तलैया सब सूख रहें हैं फिर भी हम जाग नहीं रहें। मेरा अपना अनुभव है कि- जितना बड़ा शहर है वहाँ उतना ही प्रकृति सम्पदा की कमी है और वहाँ के लोग उतना ही ज्यादा लापरवाही से प्रकृति का दोहन कर रहें हैं।
आज के लिए बस इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी।
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चाँद चुप और शांत पौन है,
जवाब देंहटाएंपर्वत थिर और नदी मौन है।
ठंडी किरणें सूरज काला,
जहर जुन्हाई माहूर हाला।
आभार..
सादर
सामयिक उम्दा रचनाओं का चयन
जवाब देंहटाएंसाधुवाद छुटकी
वाह!श्वेता ,सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंवाह सुन्दर सार्थक सूत्रों का समायोजन आज की हलचल में ! मेरी रचना को सम्मिलित किया आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंप्रिय श्वेता,आज की सभी सुन्दर और भावपूर्ण रचनाओं के साथ बहुमूल्य काव्यात्मक समीक्षा से सजी बहुत ही सराहनीय प्रस्तुति।और भूमिका निशब्द कर रही है! धर्म के नाम पर जो आज बिसात बिछी है वह सभ्य और शिक्षित समाज पर बहुत बड़ा धब्बा है।सच में आदमी और आदमियत के बीच अभेद्य दीवार है ये धर्मांधता!समझ में नहीं आता ये संकीर्णता अब कौन सा दुर्दिन और दिखाने वाली है।आज के शामिल सभी विद्वतजनों को सादर नमन और बधाई।तुम्हे विशेष रूप से आभार और शुभकामनाएं ❤❤
जवाब देंहटाएंअत्यंत सार्थक भूमिका की मेहराब से झाँकती आज की मोहक प्रस्तुति का आभार और बधाई!!!!
जवाब देंहटाएंआप की लेखनी से निकली इन चंद पंक्तियों ने मेरे लेख को पूर्णता प्रदान कर दी,
जवाब देंहटाएंइस अति सुंदर काव्यात्मक मनमोहक प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई श्वेता जी,
मेरे लेख को भी इसमें शामिल करने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं सादर नमन
बेहद सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइस अंक की भूमिका ने ही वर्तमान में हो रहे धार्मिक विवादों की कलई खोल दी और सजग सचेत रहने की नसीहत भी दे दी.
जवाब देंहटाएंसाधुवाद आपको
सुंदर और अर्थपूर्ण लिंक संयोजन
मुझे सम्मलित करने का आभार