शीर्षक पंक्ति:आदरणीय ज्योति खरे जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
सोमवारीय अंक में पाँच ताज़ा-तरीन रचनाओं के साथ हाज़िर हूँ।
पैरों की एड़ियां कटी-फटी,तलवे कड़े
घुटने,पंजे,पिडलियां कठोर
पांव जो महानगरीय सड़कों पर
सुविधा से नहीं चल पाए
राजपथ में
दौड़ने का साहस रखते हैं
एक ग़ज़ल -खुदा उनसे मुलाक़ात न हो
हाथ में फिर
से कोई फूल लिए लौट गया
और ऐसा भी
नहीं था की उसे याद न हो
ज़िंदगी पहले
मोहब्बत की कहानी लिखना
वक्त के साथ
ये मंज़र ये ख़यालात न हो
कोई एक दस्तक तो हो,
कोई रास्ता
खुद तक हो,
किसी ख़्वाब की,
ख्वाहिश की
मेरी..
छोटी सी, पर
देश में नए आए हो.(कहानी लघुकथा)
उन्होंने कहा, "आप मेरे साथ आओ। मैं आपको बस स्टैंड तक छोड़ देता हूँ।"वे आगे - आगे चलते रहे। मैं उनके पीछे- पीछे चल
रहा था। जब बस स्टैंड करीब आ गया, उन्होंने मुझे
उस स्थान पर छोड़ दिया। मैंने समझा था कि उन्हें भी इसी ओर आना था, इसलिए वे मुझे साथ लिए हुए आ गए।
मैंने पूछा था, "आप को किस ओर जाना है?"
वे बोले थे, "जहां से मैं आपके साथ आ रहा हूँ, उसकी दूसरी ओर मुझे जाना है।
पंद्रह बीस कदम चल चुकी थी ,तब न जाने क्या सोच कर उसने मुझे आवाज़ दी ..."ओ मोठी बेन .....कोतमीर लइए जाओ | " मैं वड़ोदरा में नई थी और
गुजराती भी नहीं जानती थी | और तो और मोटापे की मारी तो थी ही ! अब मोटे
इंसान को अगर मोटा कह दिया जाये तो उससे बुरा उसके लिए और कुछ नहीं होता ,यकीन मानिये
!!उसकी आवाज़ सुनते ही गुस्से के मारे मैं तमतमा गई !!"उसने मुझे
मोटी बोला तो बोला कैसे ???
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंस्तरीय रचनाओं का गुलदस्ता
आभार..
सादर..
उम्मदा अंक
जवाब देंहटाएंज्योति जी के ब्लॉग पर नहीं जा पा रही हूँ | बाकी बहुत बढ़िया लिंक्स हैं | सादर धन्यवाद मेरे संस्मरण को यहाँ जगह मिली !!
जवाब देंहटाएंवाह!खूबसूरत प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
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