एक और दिन
बीता दिसम्बर का
आप भी शामिल हों आज की परिक्रमा में..
निराशा को हावी न होने दे.....प्रेरक कथा
कभी – कभी निरंतर मिलने वाली असफलताओं से व्यक्ति
यह मान लेता है कि अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर सकता,
लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है।
ग़ज़ल.....कमला सिंह 'ज़ीनत'
मैं तुझे चाहती हूँ ऐ ज़ालिम
तू ज़माने को ये खबर कर दे
नाम से तेरे जानी जाऊँ मैं
मुझपे बस इतनी सी मेहर कर दे
गुजरा या गुजारा.... विभारानी श्रीवास्तव
आदत नहीं कभी बहाना बनाना
फुरसताह समझता रहा ज़माना
छिपा रखें कहाँ टोंटी का नलिका
सीखना है आँखों से पानी बहाना
एकदम हड़बड़ी में कहा था, "सुनो.. दिसंबर जाने वाला है..
बस पाँच दिन बचे हैं, और तुम सो रहे हो...? उठो, फ़ौरन उठो और
जल्दी से तैयार होकर पार्क आ जाओ". कसम से , मेरा तो दिल किया था फोन में घुस जाऊं और तुम्हारी चोटी काट लूँ.
आज का शीर्षक....
बहुत कुछ से
कुछ भी नहीं होते होते
आदमी दीवालिया हो गया
पता नहीं समझ नहीं पाया
उस समय समझ थी
या अब समझ खुद
नासमझ हो गई
साल के बारहवें महीने
की अंतिम तारीख
आते समय कुछ
अजीब अजीब सी सोच
सबकी होने लगी है
आज्ञा दें दिग्विजय को
सादर
सादर नमन
जवाब देंहटाएंअच्छी रचनाएं पढ़वा रहे है आप
आभार
सादर
बहुत सुन्दर एवं चिंतनीय सूत्र ! मेरी रचना 'अवमूल्यन' को आज की हलचल में सम्मिलित करने के लिए आपका आभार दिग्विजय जी ! सभी पाठकों को क्रिसमस पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएंशुभप्रभात....
जवाब देंहटाएंनैट की कृपा हो गयी...
सो मैं प्रस्तुति पढ़ सका....
आभार सर आप का....
बढ़िया प्रस्तुति । आभार दिग्विजय जी 'उलूक' के सूत्र 'फिसलते हुऐ पुराने साल का हाथ छोड़ा जाता नहीं है' को चर्चा का शीर्षक देने के लिये ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति ...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ! मेरी रचना को आज की हलचल में सम्मिलित करने के लिए आपका आभार दिग्विजय जी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर हलचल प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन...धन्यवाद
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