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मंगलवार, 22 सितंबर 2020

1894 ..मेहनत इतनी करो कि किस्मत भी बोल उठे

नमस्कार
आज फिर हम हैं सुबह से पाँच बज रहे हैं
मंगल प्रभात

जायका अलग है, 

हमारे लफ़्जो का…

कोई समझ नहीं पाता… 

कोई भुला नहीं पाता…


इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता


इमाम की तू प्यास बुझाए

पुजारी की भी तृष्णा मिटाए..

ए पानी बता तेरा मजहब कौन सा है.... ।।


विसर्जन पथ - -

अनंत काल तक मैं लौटना चाहूंगा उसी

नदी के किनारे, जहाँ छूती हों वट -

जटाएं बृहत् नदी के धरातल,

निःसीम आकाश के

तारे जिसके

वक्ष में

लिखते हैं कृष्ण राधा की पदावली, मैं -

जन्म जन्मांतर तक रहना चाहूंगा

उसी घाट के पत्थर में, जहाँ

उजान प्रवाह के नाविक

बाँध जाते हैं अपनी


मर्तबान ...

उस मर्तबान को सहेज रखती थी रसोई में 

मख़मली यादें इकट्ठा करती थी उसमें मैं 

जब भी ढक्कन हटाकर मिलती उन  से 

उसी पल से जुड़ जाती उन बिताए लम्हों से 

चिल्लर जैसे खनकतीं थीं वे यादें दिल में 

एक जाने-पहचाने एहसास के साथ  

उसे छूने पर माँ के हाथों का स्पर्श

महकने लगता हवा में 


पिता ....

एक ऐसा वजूद

जिसके घिसे  जूतों से

निकलता है संतानों के

अस्तित्व का मार्ग

जिनका जीवन में होना

सूरज सम उर्जा से

भरता रहना निरंतर


रुक जाते हैं आते आते

हमने तुम से लाख दिवाने देखे हैं...

छलक पड़े खाली पैमाने देखे हैं...!


कहने को तो अपने हैं दुनिया में सब...

मौके पर बनते बेगाने देखे हैं...!


हमने जिनकी ख़ातिर जग से बैर लिया...

रिश्तों में भी वो अनजाने देखे हैं...!
आज बस





7 टिप्‍पणियां:

  1. स्वागत है अशेष शुभकामनाओं के संग
    उम्दा लिंक्स चयन

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय सर।मेरी रचना को स्थान देने हेतु सादर आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुरंगी संकलन - - सुन्दर प्रस्तुति, मेरी रचना को जगह देने हेतु आंतरिक आभार - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं

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