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सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

199..चलती है साँस यूँ तो मगर जिंदगी भी हो

आज उपस्थित है दिग्विजय
लेकर कुछ
पढ़ी-अनपढ़ी
छुई-अनछुई
देखी-अनदेखी और
नई-जूनी 
रचनाओं से चुनी हुई
पाँच रचनाओं की कड़ियाँ...

एक होकर भी वो जुदा क्यों है,
आत्मा देह में गुमशुदा क्यों है,
पाषाण सा हृदय हो रहा है सबका,
तमाशबीन देख रहा खुदा क्यों है

प्यार में दिल को सदा दिल से मिलाना चाहिए 
कुछ नहीं तुम को पिया हमसे छिपाना चाहिए 

खिलखिलाती धूप में गुल मुस्कुराते बाग़ में 
भंवरे को भी यहाँ  पर  गुनगुनाना चाहिए

वो इक शब्द जो मेरी कलम को अक्सर 
खून में दर्द की सियाही मिला-२ पिलाता   
और फिर दर्द ही दर्द हर हर्फ़ में उभर आता
बस ...सिर्फ इक उसी शब्द के न होने से 
कलम खून की कमी से लड़खड़ा रही है 
सिर्फ इक शब्द...................."तुम" !


कविताएँ में..ओंकार केडिया
मैं चट्टान हूँ,
मुझे ठोकर मारोगे 
तो चोट ही खाओगे,
नहीं होगा मेरा 
कोई बाल भी बांका,
मैं टिका रहूँगा 


अनीह ईषना में...स्वाति वल्लभा राज
​यक़ीनन हर रोज
अंदर कुछ मरता है मेरे, 
जब भी तुझे 
जगाने की बात करती हूँ । 
दोज़ख में दफन होती  हैं 


ये रही आज की प्रथम व शीर्षक कड़ी


बस यूँ ही में....पूनम सिंह
चलती है साँस यूँ तो मगर जिंदगी भी हो... 
रहती है साथ भीड़ मगर आदमी भी हो...! 
फीकी पड़ी हुई हैं जमाने की रौनकें... 
कुछ देर यार जिंदगी में मुफलिसी भी हो...! 

देवी जी का पूरा ध्यान 
कल आने वाली 
दो सौवीं
प्रस्तुति पर ही लगा है
उन्हें भाई कुलदीप पर पूरा भरोसा है
आज्ञा दें दिग्विजय को
फिर मिलेंगे














4 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    बहुत सुन्दर रचना की प्रस्तुति
    सर जी

    जवाब देंहटाएं
  2. मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार ।
    बाकि लिंक्स भी बेहतरीन ।
    उम्दा हलचल ।
    धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  4. आने वाली दो सौवें अंक के लिये शुभकामनाऐं । सुन्दर प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं

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