शीर्षक पंक्ति: आदरणीय पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
आज पढ़िए ब्लॉगर डॉट कॉम पर प्रकाशित रचनाएँ-
रामायण- मिथक से परे इतिहास की झलक-३
अनहद सपनों के पार,
जहां,
डूबा हो हर शै,
शायद छंट जाए,
उन लम्हों में संशय,
इस जीवन को मिल जाए,
जीने का आशय,
यहां, अधूरी सी हर बात,
अनबुझ सा हर पल!
ऊंघ रहे ओ पल, चल, दूर कहीं ले चल....
स्वागत में
लगे बंदनवार की तरह
मुरझाने लगा
है मन
धीरे -धीरे झड़ने लगी हैं पंखुड़ियाँ
किसी अपने की,
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ईश्वर के इस रूप का,कैसे करूँ बखान।
निराकार साकार का,भेद नहीं आसान।।
भेद नहीं आसान,ईश हैं घट घट व्यापी।
कण कण में यदि वास,मूर्ति फिर रहे प्रतापी।।
मैं मूरख अंजान, सूक्ष्म कण काया नश्वर।
'शंकर' 'शिव' का भेद,बता दो मेरे ईश्वर।।
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तुम
मुस्कुराये और तबियत हरी हो गई
प्रेम का हल
चला नैन किये उर्वरा जमीं
पहले से और
भी मुसीबत खड़ी हो गई।
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Wow
जवाब देंहटाएंShandaar
बहुत सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंव्वाहहह
जवाब देंहटाएंवंदन
सुप्रभात! सराहनीय रचनाओं की खबर देते अंक में 'मन पाये विश्राम जहाँ' को स्थान देने हेतु बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
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