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मंगलवार, 4 नवंबर 2025

4561...इतना ऊब गया हूॅं अब ज़िंदगी...

 मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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किसी से किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता नहीं है। आप स्वयं में जैसे हैं एकदम सही हैं। खुद को स्वीकारिये।-ओशो
और हाँ, मुझे ऐसा लगता है कि
समय-समय पर आत्ममंथन भी करते रहना
अंतर्मन की शांति के लिए औषधि है आत्ममंथन।
मन में उत्पन्न अनेक नकारात्मक विचारों की दिशा परिवर्तित कर जीवन की दशा में सकारात्मक ऊर्जा
प्रवाहित की जा सकती है।
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आज की रचनाऍं- 

अब मन से भी चीज़ें बेमन सी हो जाती हैं,
बस पग गिन-गिन कर सफ़र कर पार रहा हूँ मैं।
इतना ऊब गया हूँ अब ज़िंदगी के ऊहापोह से,
शांति की ख़ातिर ख़ुद को न्यौछार रहा हूँ मैं।



बहुत सूकुन है तुम्हारी सोहबत में
शायद तुम दरिया का किनारा हो

बेचैन 'नैन' तुम्हारे कर रहे चुगली
संदेशों के शायद तुम हरकारा हो



धूप दिन-भर
परछाई बुनती रहती है;
उसकी उँगलियों पर अब भी
मदार की छाया ठहरी है —
छाया,
थोड़ी-सी ठंडी,
थोड़ी बुझी-बुझी,
थकान में बंधी।


एक समंदर है आँखों में ।
दिल मगर प्यासा रहता है।।

ज़ख़्म जो हो गर सीने में।
उम्र-भर ताज़ा रहता है।।

रात जब सब सो जाते हैं ।
ख़्वाब तब जागा रहता है।।


मुख्य अतिथि या वरिष्ठ अतिथि वह बन सकता है जिसका समारोह से कोई स्वार्थ हो या वह संस्था का आर्थिक भला चाहता हो। वह इतना आदरणीय भी हो सकता है जिसको देखकर ही मन में आदर का भाव जगे और चरण वंदन का मन करे। जिसके आने की खबर सुनकर समारोह में चार चाँद लग जाय।

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आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

6 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात ! सराहनीय रचनाओं से सुसज्जित एक और अंक

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन अंक 🙏आज के इस बेहतरीन अंक में मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार और धन्यवाद जी 🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. मार्मिक शीर्षक के साथ, सुंदर सराहनीय अंक प्रिय श्वेता जी।
    मेरी रचना को स्थान देने हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद 💐
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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