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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

4280...माटी मेरे गाँव की

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।

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मैं जंगल भ्रमण के लिए

उत्सुक रहती हूँ

किंतु जालीदार गाड़ियों से

जानवरों को कौतूहल से देखकर,

पक्षियों की विचित्र किलकारी,

दैत्याकार वृक्षों की 

बनावट से अचंभित

जंगल की रहस्यमयी गंध

स्मृतियों में

भरकर ले तो आती हूँ

पर सोचती हूँ

जंगल के कोने में 

उगी घास की भाँति

दुनिया की भीड़ में

तिनके सा जीना

 क्या यही है जन्म का 

उद्देश्य ?


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आज  की रचनाएँ-


जिस दिन जीत लेंगे उजाला
उस दिन 
घुंघुरुदार पायलें
देहरी देहरी बजेंगी
चूड़ियों की खनकदार हंसी 
अच्छी लगेंगीे

चाँद बजायेगा बांसुरी
तबले पर थाप देगा सूरज
चांदनी की जुल्फों से 
टपकेगी शबनम



चाँद को भी है मयस्सर कहाँ ये दीवाली 
शिव की काशी में गगन दीप जलाते रहिए 

भारतीय संस्कृति की पहचान हैँ मिट्टी के दिए 
घर के आले में या आँगन में जलाते रहिए 

पर्व यह ज्योति,पटाखों का, सफाई का भी 
दिल के पर्दों पे जमीं धूल हटाते रहिए 




वो पहाड़ी धार वाली
बोली द्या अब ना गिरेगी
बाट चौड़े पक्के वाले
 माट में अब ना सनेगी
गाड़ी मोटर पों पों करती
अब तो हर इक ख्वाल आयी
माटी मेरे गाँव की आ के मिली रैबार लायी





जाना कहाँ था, पहुँचे कहाँ हैं 

दाता का दर सदा ही खुला है 


 भटके थे राह अब चेत आया 

क्या वह मिलेगा जो था गँवाया 



दीन के नाम पर खून की होली,
किस ने बताया, ये कौन सा रस्ता है।
दूध तेल की गंगा, नाली में बहती,
सड़क किनारे कोई भूख से खस्ता है।
रोटी के लालच में जो बदला दीन,
या तो मै सस्ता हूँ या दीन सस्ता है


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आप सभी का आभार
आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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