निवेदन।


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गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

4107...गज़ब था बुढापा अजब थी जवानी...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीया साधना वैद जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में प्रस्तुत हैं पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

नयन स्वयं को देखते न

खेल कैसा है रचाया

अश्रु हर क्योंकर बहाया,

नयन स्वयं को देखते न

रहे उनमें जग समाया!

मानो किताब एक घर हो

ऐसा क्यों ? कारण सुनो,

दुख इतना हावी हो जाता,

सुख धूमिल हो

आँसुओं में बह जाता ।


एक दिलकश कहानी

गज़ब था बुढापा

अजब थी जवानी

 

वो थी शाहजादी

बला की दीवानी

 

भाया था उसको

एक बूढा अमानी


 कोहरे में कहीं--

वही शाही रस्ता वही शहर भर की रौशनाई,
लामौजूद हूँ ताहम सज चले हैं मीनाबाज़ार,

कुछ चेहरों को नहीं मिलती वाजिब पहचान,
घने धुंध की वादियों में छुपे होते हैं आबशार,

कसौली की खुशबू ने थाम लिया था...

ढलते सूरज की तस्वीर लेते हुए मुझे मानस की याद आई। जाने किस शहर में होगा। घुमक्कड़ ही तो है वो। सोचा उसे बताऊँ कि कसौली मे हूँ। खुश होगा। महीनों, कभी-कभी सालों भी बात न होने के बावजूद मानस हमेशा करीब महसूस होता है। शायद इसलिए कि मैं सोचूँ पत्ती तो वो जंगल की बात करे ऐसा रिश्ता है हमारा।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


बुधवार, 24 अप्रैल 2024

4106..हाँ, हम फिर तैयार हैं

 ।।प्रातःवंदन।।

"लगा राजनीतिज्ञ रहा अगले चुनाव पर घात,

राजपुरुष सोचते किन्तु, अगली पीढ़ी की बात।

शासन के यंत्रों पर रक्खो आँख कड़ी,

छिपे अगर हों दोष, उन्हें खोलते चलो।

प्रजातंत्र का क्षीर प्रजा की वाणी है,

जो कुछ हो बोलना, अभय बोलते चलो..!!"

रामधारी सिंह 'दिनकर'

प्रस्तुतिकरण के क्रम को बढाते हुए...✍️

चुम्बक







कोर्ट परिसर में लगातार चहल कदमी करते लोग। 

जिनमें शामिल थी खिचड़ीनुमाँ जमात। 

कुछ मज़दूर और निम्न वर्गीय लोग, कुछ आम घर परिवारों के नौकरी 

पेशा क़िस्म के लोग, कुछ उद्यमी और व्यवसायी लोग। अधेड़, उम्रदराज़ 

हर उम्र के लोग- कहीं..

✨️

खो रहा मेरा गाँव


खो रहा मेरा गाँव

पंछी और पथिक ढूँढ़ते सघन पेड़ की छाँव, 

रो-रो गाये काली चिड़िया खो रहा मेरा गाँव।

दहकती दुपहरी ढूँढ़ रही मिलता नहीं है ठौर;

स्वेद की बरखा से भींजे तन सूझे न कुछ और..

✨️

बहकते नहीं हैं

 दिल, दाग, दरिया दुबकते नहीं हैं

हृदय, हाय, हालत बहकते नहीं हैं

प्रयासों से हरदम प्रगति नहीं होती

पहर दो पहर में उन्नति कहीं होती..

✨️

पुरानी डायरी

टटोलते टटोलते 

एक भूले बिसरे दराज को 

मिली है आज एक डायरी पुरानी 

जर्जर हो गई है 

कुतर भी डाला था ..

✨️

हाँ, हम फिर तैयार हैं








पुराने घर की अंतिम मुसकुराती हुई तस्वीर 

आग का क्या है पल दो पल में लगती है

बुझते-बुझते एक जमाना लगता है....

जाने कितनी बार सुनी यह गज़ल इन दिनों ज़िंदगी का सबक बनी हुई है। 

अब जब मन थोड़ा संभल रहा है तो इस बारे में लिखना जरूरी लग रहा है

। घटना जनवरी के किसी दिन की है। संक्षेप में इतना ही कि सुबह हमेशा ..

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️


मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

4105...मौन की भाषा

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
-------
पृथ्वी सोच रही है...,
किसी दीवार पर
मौका पाते ही पसरे
ढीठ पीपल की तरह,
खोखला करता नींव को,
बेशर्मी से खींसे निपोरता, 
क्यों नहीं है चिंतित मनुष्य
अपने क्रियाकलापों से ...?

मनुष्यों के स्वार्थपरता से
चिंतित ,त्रस्त, प्रकृति के
प्रति निष्ठुर व्यवहार  से आहत
विलाप करती
पृथ्वी का दुःख
 सृष्टि में
प्रलय का संकेत है।


अब आज की रचनाएँ


कबीर का प्रेम..

निर्गुण ब्रह्म में सब कुछ देखता है 

सूर का प्रेम ..,

शिशु  मुस्कुराहट में खेलता है  

गृहस्थी के सार में साँसें लेता है 

तुलसी का प्रेम 

तो अरावली की उपत्यकाओं में 

गूँजता है मीरां का प्रेम




सुन लेते हैं जो मौन की भाषा 

 जहां छाया है 

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा

वहीं गूंजता है 

अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन हास्य 

और चन्द्रमा का स्पंदन  

मिट जाती हैं दूरियाँ

हर अलगाव हर अकेलापन



गंगा, जमुना, 
सरयू, नर्मदा 
सतुपड़ा, हिमालय नवगीत का,
छंद का हितैषी 
यायावर 
गीत लिखा मन के जगजीत का.
गीतों की
गन्ध रहे बाँटते 
रेत, नदी, धूप में कछार में.


उड़ती हैं महाकाय रंगीन परों की तितलियाँ, हर
कोई बढ़ चला है अनजान सफ़र में, हाथों
में थामे हुए अनेक रहस्यमयी तख्तियां ।
वो सभी चेहरे हैं भाषा विहीन, मूक
कदाचित बधिर भी, उनकी
आँखे हैं पथराई सी,
मशीन मानव की
तरह वो बढ़े
जा रहे हैं
नंगे






''बहुते है ! पर सबसे बड़का अचरज तो अपना दिल्ली में ही है ! चा का टपरी पर उसी का बात हो रहा था ! देखिए, देश का सबसे बलशाली कुनबा ! जहां का तीन-तीन, चार-चार परधान मंत्री बना ! देश का दूसरा सबसे बड़ा पाटी ! अभी भी सबसे जोरावर परिवार ! पर दिल्ली का जउन सा निर्वाचन छेत्र का सीट का लिस्ट में इन लोगन का नाम है, जहां इ लोग वोट देगा, ऊ छेत्र का वोटिंग मशीन पर इनका पाटी का निशाने ही नहीं है ! तो ई लोग कउन चिन्ह का बटन दबाएगा ? इसी पर सब बहिसिया रहे थे ! 


------

आज के लिए बस इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
-------


सोमवार, 22 अप्रैल 2024

4104 ...खबरची की खबर पर वाह कह के मगर जरूर आता है

सादर अभिवादन

कल हनुमान जी का जन्म दिन है



पढ़िए आज की चुनिंदा रचनाएं



वाह रे ‘उलूक’
तेरे घर तेरे शहर में हो रहे को तू देखता है
और अपना मुंह छुपाता है

शाबाश है खबरचियों की ओर से
खबरची की खबर पर
वाह कह के मगर जरूर आता है




पापा आप दीर्घायु हो यही है मेरा अरमान
आपसे ही तो है ये छत ये दीवारें ये मकान।

मम्मी के श्रृंगार आप ही से सलामत है पापा ।
आप से ही है मम्मी के चेहरे की मुस्कान ।




‘अरे बंधु,यही मेरी जीत का टीका है।रक्त की एक-एक बूँद से जनता इसका जवाब देगी
अगले दिन सभी अख़बारों के मुखपृष्ठ पर सचित्र खबर छपी, ‘नेताजी ने अपने क्षेत्र में श्रमदान में भाग लिया और रक्तदान का शुभारंभ किया।उनसे मिलकर किसान खूब रोए !’





प्रिये पराये धन को अपना कहूँ,
यह ब्राह्मण धर्म का अंग नहीं।
हम हैं स्वाभिमानी ब्राह्मण प्रिये,
उपकृत महल हमें स्वीकार नहीं।।




कहीं पर नहीं है खाने के निवाले,
तो कहीं पर नहीं हैं खाने वाले।
अमीर देश के अमीर लोग बच्चे नहीं जनते,
गरीब देश के गरीब लोग जनने से नहीं थमते।
विश्व का संतुलन बिगड़ता जा रहा है,
इसीलिए इंसान का सकून छिनता जा रहा है।

आज बस. ...
कल मिलिये सखी से
सादर वंदन

रविवार, 21 अप्रैल 2024

4103 ..कल शाम तुम्हारे पानी में जो सूरज डूबा था

 सादर अभिवादन

आज महावीर स्वामी जी का जन्म कल्याणक महोत्सव है


भगवान महावीर का जन्म ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में भारत के बिहार नामक राज्य में एक श्रेष्ठ परिवार में हुआ था। अपने जीवनकाल के दौरान, भगवान महावीर को वर्धमान के रूप में जाना जाता था। वर्धमान, कई तरीकों से, बौद्ध धर्म के सिद्धार्थ गौतम के समान हैं। सिद्धार्थ के समान, वर्धमान ने भी सांसारिक कष्टों को देखने के बाद सत्य की खोज करने के लिए अपना आरामदायक घर छोड़ दिया था। विभिन्न संस्कृतियों और पृष्ठभूमियों के लोगों से मिलने के बाद, वर्धमान को संसार और पीड़ा के स्त्रोतों का काफी ज्ञान हुआ। अंत में, वर्धमान ने अपने प्रयासों को उपवास और ध्यान पर केंद्रित कर दिया।

इस प्रक्रिया के माध्यम से, वर्धमान को मोक्ष की प्राप्ति हुई। उन्होंने पाया कि अपनी असीमित इच्छाओं को समाप्त करने के लिए मनुष्यों के लिए लालच और सांसारिक चीजों से अपना संबंध तोड़ना जरुरी होता है। इस ज्ञान के साथ, जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए वर्धमान ने भारत और एशिया के अन्य क्षेत्रों की यात्रा की। इस समय के दौरान, वर्धमान का साम्राज्य बहुत अधिक समृद्ध हो गया था। कई लोगों ने इस आशा के साथ जैन धर्म अपना लिया कि उन्हें भी प्रसन्नता की समान स्थिति का अनुभव हो जायेगा। मोक्ष पाने के पश्चात वर्धमान की मृत्यु हो गयी। 425 ईसा पूर्व में वर्धमान को भगवान महावीर, धर्म के अंतिम तीर्थंकर और सर्वज्ञ गुरु के रूप में जाना जाने लगा। कई लोग अपने कर्मों और भगवान महावीर की शिक्षाओं पर विचार करने के लिए महावीर जयंती मनाते हैं।

आज की चुनिंदा रचनाएं




सींचनें से पेड में फल आये जरूरी तो नही
हम चाहें जिसे, वो हमें चाहे जरूरी तो नही

चमन से गुजरे तो खुशबू भी जरूर आयेंगी
महके हर फूल बागीचे का जरूरी तो नही





मुझे तुम ख़ुद से बाहर निकाल देना,
उस बरस जैसे निकाल फेंका था वह पूरा महीना;
जो हमने एक दूसरे से दूर गुजारा था,
याद तो जरूर होगा तुम्हे!






शायद कभी
आये कोई ,
मन की पाती
बांचे कोई ,
बात अनकही
समझ जाये कोई.
अपनाये,
नयी ज़िन्दगी दे जाये .
अपने आंसुओं से
मुरझाई
मन की मिटटी
सींच जाये कोई .




हमारी ज़िन्दगी में
“शब्द”
बहुत मायने रखते हैं।
दोनों ही दिन चीता तो वही था,
उसमें वही फूर्ति और वही ताकत थी
पर जिस दिन
उसे हतोत्साहित किया गया
वो असफल हो गया
और जिस दिन प्रोत्साहित किया गया
वो सफल हो गया।





ब्रह्मपुत्र,
कभी ध्यान से देखो,
डूबते हुए सूरज से
कहीं ज़्यादा अच्छा लगता है
उगता हुआ सूरज.


आज बस. ...
कल फिर से मैं
सादर वंदन

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

4102 ..ब्लॉग हमारा घर है। लौट के हमें यहीं आना था

 सादर अभिवादन


मधुर तुम इतना ही कर दो !

यदि यह कहते हो मैं गाऊँ,
जलकर भी आनन्द मनाऊँ
इस मिट्टी के पँजर में मत छोटा-सा उर दो !

मधुर तुम इतना ही कर दो!
 
तेरी मधुशाला के भीतर,
मैं ही ख़ाली प्याला लेकर,
बैठा हूँ लज्जा से दबकर,
मैं पी लूँ, मधु न सही, इसमें विष ही भर दो !

मधुर, तुम इतना ही कर दो !
 -गोपाल दास नीरज

आइए देखें कुछ रचनाएं ....



चलन  को पता है
समय की गोद में तपी औरतें
चूड़ी बिछिया पायल टूटने से
खँडहर नहीं बनती




जिस जगह से मैं  गुजरूं ,
वह जगह अपवित्र हो जाता |
जिस कुंआ का पानी मैं पिया ,
वह कुआं का पानी अपवित्र हो जाता |
हर कदम और हर जगह पर ,
छुवा -छूत से लड़ना पड़ता |






दर्द  सारा साथ ले कर सो गए।
नैन में बरसात ले कर सो गए।।

छूट जाये ना तिरी नजदीकियां।
हाथ में हम हाथ ले कर सो गए।।

साथ हमने शब  गुज़ारी जाग के ।
ऊँघती फिर रात ले कर सो गए।।





हम सबको भी हमेशा स्वयं का प्रतियोगी होना चाहिये। 
दूसरों के साथ की गयी तुलना वास्तविक नही है। 
और कई बार यही तुलना हमारे लिये ईर्ष्या बन जाती है। 
स्वयं से की गयी प्रतियोगिता सदैव सकारात्मक परिणाम ही देती है।






लिखना सिर्फ़ ये दिलासा है कि हम अकेले नहीं हैं। 
हम लिखते हैं लेखकों/कवियों का हमें जिलाये रखने का जो क़र्ज़ है, 
उसको थोड़ा-बहुत उतारने के ख़ातिर।

और अपनी कहानियाँ जो सुनाने का मन करता है, सो है ही।

इतने दिन में यही लगता है कि ब्लॉग हमारा घर है। 
लौट के हमें यहीं आना था।

सो, हम आ गए हैं।



आज बस. ...
कल फिर से मैं
सादर वंदन

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

4101....हृदय की मौन.भाषा

 शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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 एक ही बात निश्चित है,
इस संसार में सब कुछ अनिश्चित है।

कोयल की मीठी तान और पुरवाई की गुनगुनाहट के साथ क्षितिज  पर लाल,पीले,सुनहरे छींटों के साथ सूरज का उगना, गरम थपेड़ों से परेशान दिन का अलसाना, धूप के कर्फ्यू में दोपहरीभर सोना, शाम को छतों पर चाँद का बादलों के साथ लुका-छिपी निहारना,चमकीले फीके तारों को गिनना, बेली और रातरानी की महक को फ़िज़ाओं में महसूस करना,विभिन्न प्रकार के आम की भीनी खुशबू, ठंडी लस्सी,कुल्फी,आइस्क्रीम,नींबू पानी की लज़्जत, आँधियों और हवाओं के साथ उड़ते बादलों के साथ  बारिश का इंतज़ार करना,
कौन कहता है गर्मियाँ खूबसूरत नहीं होती?

पर सच्चाई तो ये है न......
पर्यावरण के असंतुलन से बिगड़ता तापमान,तेजी से सूखते पीने के पानी के सोते, बीमारियों का बढ़ता प्रकोप, असहनीय,जर्जर लाइट की अव्यस्था से छटपटाते ए.सी,फ्रिज, कूलर और पंखें के उपभोक्ता। पसीने से तरबतर, बार-बार सूखे होंठों पर जीभ फेरते लोग, सच ये गर्मियाँ 
कितनी बुरी होती है न?

अब तो गर्मी हर मौसम के पृष्ठभूमि में होने लगी है। ठंड कम हो तो गरमी,बारिश ठीक से न हो तो गरमी। मतलब स्थायी ऋतु गरमी है 
बाकी मौसम का आना-जाना लगा हुआ है। 

आपने सोचा नहीं था न?....
पर इस असंतुलन के लिए हम ही जिम्मेदार है,
सुविधायुक्त जीवन जीने की लालसा में।


आइये आज की रचनाओं की ओर


ज़रूरत तो इक दलदल गहरा सा है।
फंसे तो बाहर निकलना नहीं आसाँ।।
भरे बाज़ार हैं मौका-परस्तों से ।
यहां ईमान पे पलना नहीं आसाँ ।।
कभी तो वक़्त बदलेगा है उम्मीद।
हमेशा हसरत कुचलना नहीं आसाँ।।




समाधिस्थ अनुराग

पाता है हृदय की मौन भाषा, कुछ कविताएं
अमूल्य अंगूठी की तरह खो जाती हैं
समय के गर्त में, जिसे उम्र भर
हम खोजते रह जाते हैं बस
स्मृति कुंज में पड़े रहते हैं
कुछ टूटे हुए अक्षर के
कंकाल, कोहरे में
भटकती रह
जाती है
प्रणय



वो ज़ालिम एकदिन बेनकाब होगा


उसीके साथ दफन हैं जुल्म की सारी सच्चाई ,
पंचनामे में तो वही घिसा- पिटा जवाब होगा,

दिन भर इधर उधर जो मज़लूम को टहलाते रहे,
रामदीन की जेब में बाबूओं के ज़ुल्म का महराब होगा,



छतरी का चलनी

उन्नति के कार्यक्रम में नौ-दस लाख का बिल दिखलाया गया।और इस बिल का भुगतान तीन-चार जगहों से करवाया गया! यानी मुश्किल से लगभग तीन-चार लाख का खर्चा हुआ मिला लगभग तीस-चालीस लाख मिला!”


गधों की ज़िंदगी पर आई आफ़त


ई-जियाओ को गधे की खाल से निकाले गए कोलेजन का उपयोग करके बनाया जाता है। इसी खाल को पाने के लिए गधों को मारा जाता है। इसकी मांग इतनी ज्यादा है कि सिर्फ दो साल में चीन में गधों की आबादी 2022 में 90 लाख से घटकर 18 लाख पर पहुंच गई। हालत ये हो गई है कि अब चीन के कई इलाकों में गधों की आपूर्ति में दिक्कत हो रही है, जिसके चलते गधों को दूसरे देशों से मंगाया जा रहा है। इनमें अफ्रीका विशेष रूप से है, जहां से बड़ी मात्रा में गधे चीन सप्लाई किए जा रहे हैं। 




आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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