शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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किसी से किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता नहीं है। आप स्वयं में जैसे हैं एकदम सही हैं। खुद को स्वीकारिये।-ओशो
और हाँ, मुझे ऐसा लगता है कि
समय-समय पर आत्ममंथन भी करते रहना
अंतर्मन की शांति के लिए औषधि है आत्ममंथन।
मन में उत्पन्न अनेक नकारात्मक विचारों की दिशा परिवर्तित कर जीवन की दशा में सकारात्मक ऊर्जा
प्रवाहितकी जा सकती है।
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आइये आज के रचनाओं के संसार में चलते हैं-
प्रेम की कोई भाषा नहीं
होती, प्रेम का फूल मौन में खिलता हैं। प्रेम संगीत है, प्रेम अंतर्नाद है, प्रेम ही अनाहद नाद है।
सुकोमल ,सहज,सरल भावों से परिपूर्ण
प्रिय रेणु दी की रचना
मीठा ना तुझसा छ्न्द कोई.
ना बाँध सके अनुबंध कोई!
उन्मुक्त गगन के पाखी-सा ,
सह सकता नहीं प्रतिबंध कोई
कोई रोके,रोक ना पाये
तोड़ निकले हर इक कारा!
सर्वे भवन्तु सुखिनः! हमारे लिए यही धर्म का मूल सिद्धांत भी होना चाहिए। केवल दिखावे के लिए धर्म का अनुपालन अनुचित है। वास्तविक धर्म मानवता की सेवा है। आस्था
के मूल में निहित व्यापक दृष्टिकोण अगर लोक कल्याणकारी हो तो समाज मानवता के नाम पर कभी धर्म को नहीं कोसेगा।
पढ़िये सकारात्मक भावों से परिपूर्ण
आदरणीय देवेंद्र सर की रचना
42 दिन!
इतने दिन
कम नहीं होते
कामना पूर्ण होने के लिए,
इतने दिन
कम नहीं होते
निराश मन में
उम्मीद की नई किरण
जल जाने के लिए!
या इतने दिन
कम नहीं होते
किसी को मरने से
बचाने के लिए!
मन से निकले भाव जब पन्नों पर
रस टपकाते हैं तो इंद्रधनुषी कहानियां बनती है
मन से जब सुरीली तान फूटती है
कान्हा जी बंसुरी ताल देती महसूस होती है
आप भी महसूस कीजिये
आदरणीया कविता दी के पुत्र की भावनाओं को
तुम जो
मुस्कुरा दो तो
खुशियां भर दो तुम दिल में हमारे
जब से
है जाना तुम्हें तो
तुम ही लगी दुनिया में सबसे प्यारे
ओ मेरे हमदम
बात हो आज की या कल की
बात रहेगी सच एक यही कि
मेरे दिल में हमेशा हो तुम।
नीले नीले
आसमां में
रूई से बादल
उड़ने लगे,
गुनगुनी धूप की
बारिश ने, रुत को
रंगीन बनाया है।
ऋतु के स्वागत में लेखनी से इत्र छिड़कती
डॉ. सीमा भट्टाचार्या
घुमड़ता बादल वह
सांझ सिंदूरी
बरसता बूंद
धूप लहरी सा
धनकता पहाड़ वह
हरीतिमा हरी
महकता द्रुत
फूल पापड़ी सा
कभी-कभी कोई लेखनी हृदय को हौले से
छूकर चमकृत कर देती है आदरणीया मीना दी की
कहानियों के जादुई भाव महसूस किये जा सकते है।
बाल मन के निष्कलुष और स्नेहिल भावों को गूँथती
एक लघुकथा जो पाठकों को वर्तमान समय में
विलुप्त होती सामजिक
और मानवीय व्यवहारों को सोचने के लिए मजबूर करती है।
वह दो दिन से देख रही थी श्यामा काकी के घर से किसी तरह की सुगबुगाहट नहीं थी ।कल स्कूल से आते वक़्त उनके घर का दरवाज़ा भी खुला देखा मगर सांझ के समय उठता धुआँ नहीं देखा छत की मुँडेर थामे वह यह सोच ही रही
होती है कि माँ की आवाज़ आती है - “अब आ भी जा नीचे.,
अंधेरा हो रहा है !”
आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही है प्रिय विभा दी।
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गलतियाँ स्वाभाविक है
जवाब देंहटाएंएक दिन मे सुधर जाए तो
वो गलती नहीं कहलाती
.....
किसी से किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता नहीं है।
आप स्वयं में जैसे हैं एकदम सही हैं। खुद को स्वीकारिये।-ओशो
आभार
सादर
पुष्प गुच्छ सी सुवासित और खूबसूरत सी मनमोहक प्रस्तुति में मुझे सम्मिलित करने के लिए आपका हृदयतल से आभार श्वेता जी ! सादर सस्नेह वन्दे ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट सम्मिलित करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंआदरणीया
जवाब देंहटाएंसदा की तरह सुन्दर संकलन , अभिनन्दन !
जय श्री कृष्ण !
स्वागत है : बहुत है कीमत : मत के बहुमत होने की ...
ओशो के वक्तव्य से सार्थक संदेश ।
जवाब देंहटाएंयूँ आत्म मंथन सरल कहाँ होता है ।
प्रेम से लेकर धुआँ तक बेहतरीन पोस्ट्स ।
वैसे प्रेम से भी धुआँ निकलता है 😄😄😄 ।
रोचक पोस्ट्स पढ़वाने के लिए आभार ।
अंतर्मन की शांति के लिए औषधि है आत्ममंथन।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित भूमिका एवं उत्कृष्ट लिंको से सजी लाजवाब प्रस्तुति
सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं ।
प्रिय श्वेता, यदि ओशो का यही वचन आत्मसात कर उसे जीवन में शत प्रतिशत अपना लिया जाये तो जीवन में अवसाद और विषाद लेशमात्र भी ना रहे।आत्म मंथन से इन्सान को अपनी सभी त्रुटियों का सहज ज्ञान या अनुमान होता है।हर इन्सान को अपने अन्दर झाँक कर अपने आप को जानना चाहिये।प्रेरक विचार के साथ सजी भूमिका और भावों से भरी रचनाओं के लिए आभार।सभी रचनाकारों को सादर नमन।सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है।🙏♥️
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