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शनिवार, 11 मई 2019

1394...भूखों की रोटी हड़प ली गई है


ख़यालों में ही उड़कर पाँव छू आता हूँ चुपके से
कि माँ से मिलने में आड़े कोई दूरी नहीं आती !
~~~||~~||
आ गया हो कितना भी बदलाव रिश्तों में भले ही
आज भी रहती है जन्नत माँ के पदचिन्हों के नीचे !
@-कमलेश भट्ट कमल


सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

जिन्दगी में बातें हों जिन्दगी की
तयशुदा मौत जब आएगी
तब देखने के लिए कुछ शेष नहीं रहता
रूढ़ियों को बदल डालेगा
नये शेर और ग़ज़ल की बहार


जिसे खोजते हो बरसों से,
वो दरिया के पार मिलेगा।

महफ़िल तभी सजेगी "राही"
जब कोई  फ़नकार  मिलेगा।

मुन्तज़िर नाउम्मीद

खैर सांसे रहते आप लौट तो आये,
अकेले कितने अजीब हो गए थे हम|
मौत के कितने करीब हो गए थे हम…
उसका ज़िक्र बातों में ढूँढते रहे ‘वीर’,
नदीम अपने रकीब के हो गए थे हम


लम्बी सड़कें
याद है कि दर्द घूम घूम करके आता था
सभी अंग दुखते थे अब यह तो याद नहीं कौन कौन
रस्ते पर उड़ती थी धूल गर्द
धुले धुले कपड़ों में जाता था मर्द एक
अन्दर से सादा, बाहर से बना ठना।


कल मैंने एक देश खो दिया
मैं बहुत हड़बड़ी में थी
मुझे पता ही नहीं चला
कब मेरी बांहों से फिसलकर गिर गया वह
जैसे किसी भुलक्‍कड़ पेड़ से गिर जाती है
कोई टूटी हुई शाख

भूल चुका है आदमी मांस की शिनाख्त
व्यर्थ ही भुला दिया गया है जनता का पसीना।
जय पत्रों के कुंज हो चुके हैं साफ।
गोला बारूद के कारखानों की चिमनियों से
उठता है धुआं।
><
फिर मिलेंगे
अब बारी है हम-क़दम की
विषय

गुलमोहर
उदाहरण
गरमी की
अलसायी सुबह,
जब तुम बुनते हो
दिनभर के सपने
अपने मन की रेशमी डोरियों से,
रक्ताभ आसमान से
टपककर आशा की किरणें
भर जाती हैं घने गुलमोहर की
नन्हीं कलियों में,
कृति श्वेता सिन्हा

अंतिम तिथि- 11 मई 2019
प्रकाशन तिथि- 13 मई 2019

8 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणी दीदी..
    सादर नमन..
    कल मैंने एक देश खो दिया
    मैं बहुत हड़बड़ी में थी
    मुझे पता ही नहीं चला
    बेहतरीन प्रस्तुति...
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. मार्मिक वैश्विक संकलन !!..."भूल चूका है आदमी मांस का शिनाख़्त" ... शायद मर्म का भी ...

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर और सराहनीय रचनाएँ है दी।
    हमेशा की तरह अलग, वैचारिकी संकलन।

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह!!खूबसूरत प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर रचनाओं का संकलन।

    जवाब देंहटाएं

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