की पुछदे ओ हाल फकीरां दा
साडा नदियों विछड़े नीरां दा
साडा हंज दी जूने आयां दा
साडा दिल जलयां दिल्गीरां दा.
साणूं लखां दा तन लभ गया
पर इक दा मन वी न मिलया
क्या लिखया किसे मुकद्दर सी
हथां दियां चार लकीरां दा.
--------शिव कुमार बटालवी
मित्रों मैं कुलदीप ठाकुर इस ब्लौग पर अपनी पहली प्रस्तुति में आप सब का स्वागत करता हूं। मेरा प्रयास रहेगा कि इस ब्लॉग पर मैं कुछ ऐसी पांच रचनाएं प्रस्तुत करूं जो किसी भी चर्चा मंच पर स्थान नहीं पा सकी। मेरा आप से निवेदन है कि आप भी रविवार की इस हलचल के लिये मुझेे इस प्रकार की अपनी या अन्य किसी रचनाकार की रचनाएं अवश्य भेजें। मेरे और हम सब के सहयोग से हम सब को उत्तम रचनाएं पढ़ने को मिल सकेगी।
अब लेते हैं आनंद आज की 5 रचनाओं का...
बड़ा जालिम जमाना है फँसा देगा सवालों में ,
मैं आने दे नहीं सकता तुम्हारी बात होठों पर |
नज़र की बात नैनों से फिसल कर दिल में आ धमकी ,
हुई जो बात नैनों से बनी सौगात होठों पर |
सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी है। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया
और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु आदि की लघुकथाएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। इसमें बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु' का नाम भी लिया जा सकता है।
साहित्य कर्म समाज की विकट कंटीली झाड़ियों को काटकर रास्ता बनाने का कर्म है। कंटीली झाड़ियों से भी परिचित कराना, उन्हें काटने का हथियार देना और निरापद रास्ता
बनाने की समझ और चेतना देने का काम रचनाकार का काम होता है। बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु' अपनी पुस्तक- 'गुरु ज्ञान : आईना दिखातीं लघुकथाएं' में कंटीली झाड़ियों को
बखूबी पहचानते हुए दिखाई देते हैं। कांटों की चुभन को खुद महसूस भी करते हैं और पाठक को भी महसूस कराते हैं। पर रास्ता बनाते वक्त वे उपदेशक की मुद्रा अख्तियार
करते हैं। बेहतर होता, रास्ते के लिए मजबूत जमीन तैयार करने की चेतना जगाने में लघुकथा की महत्वपूर्ण भूमिका बन पाती। मुझे लगता है कि उनकी शिक्षकीय चेतना उन्हें
शिक्षक की तरह रास्ता दिखाने के लिए प्रेरित करती है। बावजूद इसके समय की नब्ज पर उनकी गहरी पकड़ दिखाई देती है।
भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या!
तेरा मुख सहास अरुणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय
खेलखेल थकथक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!
जयशंकर प्रसाद और मुंशी प्रेमचंद दोनों का ही जीवन कष्टपूर्ण था। प्रसाद सत्रह वर्ष के थे, जब उनके माता-पिता तथा बड़े भाई का देहांत हुआ। उनकी सारी दौलत जाती
रही, उन्होंने पूरा जीवन ऋण चुकाने में बिताया। प्रेमचंद का भी प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। आठ साल की उम्र में उनकी माता की मृत्यु हुई तथा चौदह वर्ष की आयु
में उनके पिता की भी मौत हो गई। उन्हें भी गंभीर आर्थिक कठिनाइयों से लड़ना पड़ा था। अर्थात् प्रसाद की निजी संपत्ति खो गयी, प्रेमचंद के पास कभी थी ही नहीं।
ये थी मेरे द्वारा चुन कर लाई गयी 5 रचनाएं...अब बारी है आप की....आज ही इस प्रकार की कालजयी रचनाएं
kuldeepsingpinku@gmail.com
पर भेजें। ताकि अगली बार की प्रस्तुति और भी खूबसूरत हो...
धन्यवाद...
शुभ प्रभात कुलदीप भाई
जवाब देंहटाएंआपके पसंद की तारीफ करती हूँ
सादर
बढ़िया प्रस्तुति कुलदीप जी ।
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जवाब देंहटाएंBilkulsahihai new Post on Best Manufacturing Business Ideas in Hindi
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