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सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

570....कुछ ना इधर कुछ ना उधर कहीं हो रहा था

सादर अभिवादन
छठा दिन माह फरवरी का
बिना किसी लाग-लपेट के चलते हैं ....
की सच्चे मन से दोस्ती
प्रसन्न रहा करते थे
दिन रात उसी के गीत गाते
बढ़ चढ़ कर उन्हेंदोहराते
पर पहचान नहीं पाए

मैं जानता हूँ
तुम्हारे भीतर
कोई ’क्रान्ति’ नहीं पनपती
पर बीज बोना तुम्हारा स्वभाव है।

कोहरे को पार कर
अँखुआता घाम है
सरसो पिरिआ गई
महका जो आम है
झूम झूम डालियाँ
करती व्यायाम है

सारा अपने-पराये का स्‍पंदन
सुख-दुख, राग-द्वेष, प्रेम-विरह,
और मैं स्‍वयं होती जाती हूं 
कभी आकाश सी अनंत तो कभी
समुद्र की काई को फाड़ कर,
होती जाती हूं धरती सी गहरी...। 


सब कुछ का आभास 
होना इस आभासी 
दुनियाँ में कौन सा 
जरूरी हो रहा था 
अपनी अपनी खुशी 
छान छान कर कोई 
अगर एक छलनी 
को धो रहा था 
दुखी और बैचेन 
दूसरा कोई कहीं 
दहाड़े मार मार 
कर रो रहा था 
......











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