निवेदन।


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रविवार, 2 फ़रवरी 2025

४३८७ ...सिर से पैर तक फूल-फूल हो गई उसकी देह

सादर अभिवादन
प्रेम मास का दूसरा दिन
माँ सरस्वती को प्रणाम
आज वसंत पंचमी है
माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि की शुरुआत 02 फरवरी को सुबह 09 बजकर 14 मिनट पर होगी। 
वहीं, इस तिथि का समापन 03 फरवरी को सुबह 06 बजकर 52 मिनट पर होगा। 
तनिक भी मतिभ्रम नहीं है कि सरस्वती पूजन कब है
माता जी से तो जन्म से मृत्यु तक हमारे साथ  रहती है हमसे अलग नहीं हैं वे

रचनाएं देखें

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो बसंत
-सुभद्रा कुमारी चौहान





बदला जो न स्वभाव पड़ेगी ‘उसकी’ लाठी
न आयेगी काम नौकरी, कद और काठी !

लाओगे बदलाव जो खुद में रख कर निष्ठा  
पाओगे पहचान जगत में नाम, प्रतिष्ठा !



टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिम की रेख देख पाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
- अटल बिहारी वाजपेयी

अपना सवाल तो गीत के बोल ,ख़त के अल्फ़ाज़ों  पर आज भी वही का वही टिका  है -
रंग सात ही क्यों ? कम रंगों के मिश्रण से भी परिणाम सुखद हो सकते हैं । 
क्यों चाहिए सातों रंग..,सारा आसमान । जीने के लिए छोटी -छोटी बातें..,
छोटी - छोटी आशाएँ और छोटी-छोटी ख़ुशियाँ क्या कम हैं ।



पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ बसंती पवन हमारे घर आना!
-कुँअर बेचैन




निरक्षरों को
अब साक्षर
बना रहा हूँ

खाली बिलों
में दस्तखत
करना
सिखा रहा हूँ

बुद्धिजीवी
का
प्रमाण पत्र
जब से
मिला है




सिर से पैर तक
फूल-फूल हो गई उसकी देह,
नाचते-नाचते हवा का
बसंती नाच ।
-केदारनाथ अग्रवाल





पीठ पर उसी ने खंजर चला दिया
जिसकी आँखों में गहराई बातों में कस्तूरी थी

कितने पर्वत जीत लिए कितने रण साध दिए
मेरी दुनिया फिर भी तेरे बिना अधूरी थी




राजा वसंत वर्षा ऋतुओं की रानी
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कंठ में माला
रानी का अंतर द्रवित दृगों में पानी
-रामधारी सिंह "दिनकर"




मध्य प्रदेश के इटावा-फर्रुखाबाद मार्ग पर दतावली गांव के पास जुगराम जी का एक प्रसिद्ध मंदिर है। उसी से जरा आगे जाने पर खेतों में भोलू सैय्यद का मकबरा बना हुआ है। जो अपने नाम और खुद से जुड़ी प्रथा के कारण खासा मशहूर है। इसे चुगलखोर की मजार के नाम से जाना जाता है और प्रथा यह है कि यहां से गुजरने वाला हर शख्स इसकी कब्र पर कम से कम पांच जूते जरूर मारता है। क्योंकि यहां के लोगों में ऐसी धारणा है कि इसे जूते मार कर आरंभ की गयी यात्रा निर्विघ्न पूरी होती है। अब यह धारणा कैसे और क्यूँ बनी, कहा नहीं जा सकता। इसके बारे में अलग-अलग किवदंतियां प्रचलित हैं !




कौन रंग फागुन रंगे, रंगता कौन बसंत?
प्रेम रंग फागुन रंगे, प्रीत कुसुंभ बसंत।

चूड़ी भरी कलाइयाँ, खनके बाजू-बंद,
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीगे छंद।
-दिनेश शुक्ल


आज बस
वंदन




शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

4386 ..मासोत्तम मास फरवरी ,तेरा स्वागत है

 सादर अभिवादन

शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

4385...शांति के लिए केवल आना

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
--------


धर्म को पुष्ट करने हेतु
आस्था की अधिकता से
सुदृढ हो जाती है कट्टरता ....
संक्रमित विचारों की बौछारों से
से सूख जाता है दर्शन 
संकुचित मन की परतों से
टकराकर निष्क्रिय हो जाते है
तर्कों के तीर
जीवन की स्वाभाविक गतिशीलता
को लीलती है जब कट्टरता
तब...
कोई भी गणितीय सूत्र या मंत्र
नहीं जोड़ पाती है
मानवता की साँस
 नैतिकताओं को वध होते देखते
प्रत्यक्षदर्शी हम 
घोंघा बने स्वयं के खोल में सिमटे
मौन रहकर
जाने-अनजाने, न चाहते हुए भी
निर्लज्ज धर्मांधों के अनुचर बने
मनुष्यता को चुन-चुनकर
मारती भीड़ का हिस्सा बनकर
स्वयं को निर्दोष बताते हैं...।
-----
आज की रचनाएँ-



अक्सर घबराने वाले लोग 
बेहद मासूम होते हैं दुनियाँदारी से अनिभिज्ञ 
बहुत सकुचाते हैं वे लोग 
अपनी उपस्थिती दर्ज़ कराने से । 
बचने के लिए अपने दामन पर दाग या आंच से 
कुछ लोगों की प्रतिक्रिया होती है 
घबराहट के रूप में ! 



जहाँ भावनाएं न हों, समर्पण न हो, त्याग न हो वहाँ रिश्तों के स्थाईत्व के बारे में सोचना उसी तरह बेमानी है जैसे किसी निर्मूल पौधे को पानी में डुबो कर रखने के बाद उसमें किसी कोंपल के फूट आने की आशा रखना ! जिस वस्तु को प्राप्त करने में कठिन तपस्या करनी पड़ी हो उसकी कीमत अनमोल हो जाती है और वह वस्तु प्राणों से भी प्यारी हो जाती है लेकिन जो चीज़ सहज ही मिल जाए उसका कोई मोल नहीं होता न ही उसका महत्त्व कोई आँक पाता है !



प्रकृति का तो नियम स्वंतंत्र है
जकड़े हैं सामाजिक मानदंड से 
आडम्बर और खोकली दुनिया में 
तभी तो हम इंसान कहलाये हैं !




अजय नें बड़े प्यार से उसे गोद में उठा लिया और समझाने की कोशिश करने लगा कि अगले महीने उसे वह बहुत बढ़िया गाड़ी खरीद देगा, लेकिन बाल हठ कहाँ कुछ सुनता है l वह उस कार को लेने के लिए और भी मचल उठी और ज़ोर ज़ोर से रोने लगी l वह मीनू और अजय की बात ही नहीं सुन रही थी बस रोये जा रही थीl 




वापस आना लौट कर कभी 
पास हमारे चंद लम्हों के लिए ही सही।
जब कभी फ़ुरसत भी हो और मौक़ा भी ..
पर तब .. हमारी फुरक़त को कम करने नहीं ;
वरन् .. तथाकथित अकाल मृत्यु से मृत हमारे 
उस प्यार की आत्मा की 
तथाकथित शांति के लिए केवल आना ।


------
आप सभी का आभार
आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
------

केल

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

4384...जीवन कितने लोगों के श्रम से चलता है...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया अनीता जी की रचना से।  

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच चुनिंदा रचनाएँ-

अत्यधिक रगड़ने पर चंदन से भी आग पैदा हो जाती है

अति परिचय से अवज्ञा होने लगती है।
बहुत तेज हवा से आग भड़क उठती है।।
कानून का अति प्रयोग अत्याचार को जन्म देता है।
अमृत की अति होने पर वह विष बन जाता है।।

*****

गंगा में डुबकी

लगाते लगाते

गंगा में डुबकी

पहुंचा दिया हमलोगों ने

गंगा की मछलियों को

विलुप्ति के कगार पर

 *****

श्रम

कभी वह उसे कुछ देती है तो

मुस्कुरा कर स्वीकारता है और

हरे कोट की जेब में रख लेता है

जीवन कितने लोगों के

श्रम से चलता है!

*****

ब्रह्मा ने इस दिन सृष्टि की रचना की थी -

मौनी अमावस्या के दिन पवित्र नदियों, विशेष रूप से गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम में स्नान का विशेष महत्व है। यह दिन प्रयागराज  में कुंभ मेले के मुख्य स्नान पर्वों में से एक है। इस दिन लाखों श्रद्धालु संगम में स्नान करते हैं और पवित्र जल में डुबकी लगाकर अपने पापों से मुक्ति पाने की कामना करते हैं। यह विश्वास है कि इस दिन गंगा स्नान से सभी पापों का नाश होता है और आत्मा की शुद्धि होती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।

*****

कुछ पूछोगे तो कुछ नहीं बोलूँगा..

तुम अपने रास्ते चलो

में अपनी राहे बनाता हूँ

थोड़ी देर हस खेल के

फिर अपने शहर चले जाता हूँ

जो था कल मैं आज भी वही रहूँगा

कुछ पूछोगे तो कुछ नहीं बोलूँगा..

*****

 फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


बुधवार, 29 जनवरी 2025

4383..`यही सच है’

।।प्रातःवंदन।।

चढ़ रहा है सूर्य उधर, चाँद इधर ढल रहा

झर रही है रात यहाँ, प्रात वहाँ खिल रहा

जी रही है एक साँस, एक साँस मर रही

इसलिए मिलन-विरह-विहान में !

इक दिया जला रही है ज़िन्दगी

इक दिया बुझा रही है ज़िन्दगी !

 गोपालदास 'नीरज' 

हर सुबह एक नई शुरुआत ही है...तो बढते है नए लिंको के साथ...✍️



कुछ पूछोगे तो कुछ नहीं बोलूँगा

राज़ी नहीं भी हूँऊँगा तो भी हाँ ही बोलूँगा

ये मैंने सोच लिया है

तुम्हारी महफ़िल में ये उनमान लिया है

थक गया हूँ मैं इन तक़रीरों से

वक़्त की इस फ़िज़ूल खर्ची से,✍️

✨️


पाप पुण्य 

गंगा में डुबकी लगा 

नहीं चाहता हूं धो लेना 

अपने हिस्से के पाप को

बजा के घंटी, लगा के टीका 

कम भी नहीं करना चाहता हूं उसे..

✨️

विवाह चिह्न और उनसे जुड़े सवाल 


आजकल यह मुद्दा बहुत ही संवेदनशील हो गया है ! भारतीय समाज में विवाह और विवाह चिह्नों को लेकर अनेक मत एवं मान्यताएं प्रचलित हैं ! जिन्हें सदियों से निभाया जा रहा है ! पुरुष प्रधान समाज में विवाह के समय..
✨️
                               
- 1975 में फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ क्रिटिक अवार्ड
बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म रजनीगंधा की रिलीज़ को 50 साल पूरे हो गए हैं। बासु चटर्जी को कुछ हटकर फ़िल्में बनाने के लिए जाना जाता है।उनकी फ़िल्मों का विषय प्राय: भारतीय मध्यम वर्ग ही होता था। सन् 1974 में बनी मसाला फ़िल्मों की तड़क-भड़क से परे, एक सीधी-सादी मिडिल क्लास लड़की की सर्वथा अनछुए विषय को चित्रित करती फ़िल्म`रजनीगंधा’ सुप्रसिद्ध लेखिका मन्नु भंडारी की कहानी`यही सच है’ पर आधारित है।इस मनोवैज्ञानिक प्रेम कहानी पर बनी इस फ़िल्म में  .
✨️
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️

मंगलवार, 28 जनवरी 2025

4382...सरापा गुलमुहर है ज़िंदगी



मंगलवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
-------
क्यों न कुछ दर्द उम्मीद की दरिया में धोया जाय
आसान नहीं फिर भी कुछ सपने बंजर आँखों में बोया जाय।
-------
चिट्ठाजगत में क़लमकारों की क़लम 
की बोलती बंद है दिन-ब-दिन
ये ख़ामोशी बढ़ती ही जा रही है।
किसी-किसी दिन तो 
पाँच कविताएँ / कहानी का
सूत्र लगाने के लिए भी मशक्कत करनी
पड़ती  है।
मन चिंतित है चिट्ठा जगत के भविष्य को लेकर...
नियमित रचनाओं से अलग
आज पढ़िए एक ऐसे तेज-तर्रार,
क़लम के धनी शख्सियत को
अदम गोंडवी
समाज के संचालन के लिए संवेदना ज़रूरी शर्त है। भौतिक प्रगति के साथ, हमने सबसे मूल्यवान जो चीज़ खोई है, वह है संवेदनशीलता। व्यवस्था से जोंक की तरह चिपके हुए लोग, आख़िर संवेदनहीन व्यवस्था के प्रति विद्रोह का रुख कैसे अख़्तियार करें? ऐसे बहुत कम नाम हैं, जो हिंदी गज़ल साहित्य को संवेदना का स्वर देने की कोशिश करते हैं, जिनकी आवाज़ में जड़ व्यवस्था के प्रति विद्रोह का भाव है।


हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए




तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जमहूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ' गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
तुम्‍हारी मेज चाँदी की तुम्‍हारे ज़ाम सोने के
यहाँ जुम्‍मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है





आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है जिंदगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लमहात से भी तल्ख़तर है जिंदगी
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साए में फिर भी बेख़बर है ज़िंदगी
रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िंदगी
दफ़्न होता है जहाँ आ कर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गंदा असर है ज़िंदगी


★★★★★★★

उम्मीद है आज का अंक
आपको पसंद आया होगा;
आप सभी का आभार।
आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

सोमवार, 27 जनवरी 2025

4381 ...सखि वसन्त आया भरा हर्ष वन के मन नवोत्कर्ष छाया

 सादर अभिवादन

जनवरी 2025 शुरु
जब किसी चर्चा कार को लगातार
तीन दिवस प्रस्तुति लगाना पड़े
तो वह कुछ प्रयोग करने लग जाता है
ठीक उसी तरह एक कार्यक्रम है

सुहावना मौसम सामने है ,बच्चों की परीक्षाएं समाप्ति की ओर है
आपको कुछ काम दिया या फिर किया जाए ...इस पंक्तियों को पढ़िए


सखि वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी
पिक-स्वर नभ सरसाया

ये पंक्तियां पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की है
आपको इन पंक्तियों में लिक्खे शब्दों को लेकर
एक कविता , गीत, ग़ज़ल, या व्यंग्य लिखना है
हर कोई लिख सकता है केवल मुझे छोड़कर
और लिखकर सोमवार दिनांक 01 फरवरी 2025 तक
लिख कर संपर्क फार्म में पोस्ट कर दीजिए
ध्यान रहे 03 फरवरी 2025 को वसंत पंचमी है
वह रचना अगले सोमवार को फ्लेश हो जाए
इसलिए रचनाएं रविवार 02 फरवरी से पहले पोस्ट करिए
उत्कृष्ट रचनाओं के लिए प्रशस्ति पत्र तैयार है
प्रयोगात्मक गतिविधि है आपकी सजगता पर निर्भर है
कि ये प्रयोग आगे बढ़ाएं या नहीं ??
सादर ....

रचनाएं देखें



थके से स्वर में बोले, "क्या बताऊँ, सुबह-सुबह इतना दुखद दृश्य देखा । नदी से दो लाशें निकाली हैं पुलिस ने । एक लड़के और लड़की की । आत्महत्या का मामला लग रहा है ।"

मेरा सिर चकरा गया । घुटनों में सिर छुपाए वह लड़का आँखों के सामने घूम गया । कहीं वही तो नहीं






मुझसे ना अंदर जाते बन रहा था ना हीं वहां खड़े रहते ! खुद को सभ्य, शांतिप्रिय, भाईचारे का हिमायती मानने वाले मुझ जैसे लोग किसी प्रकार का डंडा-लाठी भी अपने घर में नहीं रखते, पर आज अपनी स्वरक्षा के लिए ऐसी किसी चीज की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही थी ! इसी बीच भैंस बोल उठी, भाई साहब, मुझे बचा लो ! मुझे एक झटका सा लगा ! पर मैं जैसे किसी दूसरे लोक में सपना देख रहा होऊं ! पता नहीं क्यों उसके इस तरह बोलने पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ, उलटे मैंने उससे पूछा कि क्या बात है, तुम घबराई सी क्यों हो ?
उसने बताना शुरू किया कि सुबह घोसी मोहल्ले में पुलिस आई थी जो किसी काले रंग के कुत्ते को खोज रही थी, जिसने किसी बड़े, रसूखदार आदमी को काट लिया था ! कुत्ता तो उन्हें नहीं मिला पर उनका हवलदार मुझे जैसे देखता हुआ गया, उससे मैं बहुत ही घबड़ा गई ! मैं बहुत ही डरपोक टाइप की भैंस हूं ! रंग भी मेरा काला है ! यदि पुलिस मुझे पकड़ कर ले गई और मेरी कुटाई कर मुझसे कुबुलवा लिया कि मैं भैस नहीं कुत्ता हूँ, तो मेरा क्या होगा ! इसी डर से मैं तबेले से भाग आई और आपका दरवाजा खुला देख अंदर आ गई! अब आप ही मुझे बचा सकते हैं !






कीमती लिफाफा
चाचा की निगाह अब तीसरे लिफ़ाफ़े की तरफ़ थी,जिसमें कच्छा और बनियान मिले थे।मैंने पत्र पढ़ना शुरू किया, ‘ मैं आपका चिर-परिचित हूँ।आपको कच्छा-बनियान पहनने लायक मैंने ही छोड़ा।आगे भी आपकी यह हालत बरक़रार रहे,इसके लिए मुझे ही रिचार्ज करें।दूसरे जो भी दे रहे हैं,उसमें एक बढ़ाकर दूँगा।यह कच्छा-बनियान हमेशा से आपका रहा है,आगे भी रहेगा।और एक बात।इतने सालों में हम आप को कुछ बना नहीं पाए तो आप भी मेरा क्या बिगाड़ पाए ? इसलिए पिछला सब भूलने में भलाई है।मुझे वोट देते रहेंगे,तो विकास होता रहेगा।मैं आपकी ही नहीं,आपके बच्चों की भी जिम्मेदारी लेता हूँ।क़सम से।’




गणतंत्र दिवस की झांकी में
उन्नत भारत दिखलाते हैं
भारत में भूखे-नंगों की
क्या संख्या कभी बताते हैं





पर उसने जाना
कि सुर और भी होते हैं,
जब उसने पहली बार सुनी
अपने बच्चे की किलकारी।


भारत


तिरंगे के रंग
सिर्फ़ रंग नहीं,
करोड़ों दिलों की
आवाज़ है ।

आज बस
वंदन
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