यह कह कर
चली गयी कि
मुझे कल से
भूल जाना..
सदियों से
मैं ”आज” को
रोक कर बैठा हूँ !!
सादर अभिवादन..
बिना किसी लाग-लपेट के
चलते हैं सीधे लिंक्स की ओर....
बहुत हो गया
‘उलूक’ रोना
ठीक नहीं
इंटरनेट के
बंद हो जाने पर
कितना खुश हुआ
होगा जमाना कल
ढलते ढलते एक आँसू, रुखसार पे यूँ जम गया
बहते बहते वख्त का दरिया कहीं पे थम गया
पल्कों पे आके ख्वाब इक यूँ ठिठक के रुक गया,
नींद में जैसे अचानक, मासूम बच्चा सहम गया
मन की लहरों को नहीं लिख पाई
जो लिख पाई
वो किनारे के पानी थे
या भीगी रेत के एहसास … !
वो जो मन गर्जना करता है
उद्वेग के साथ किनारे पर आकर
कुछ कहना चाहता है
वह मध्य में ही विलीन हो जाता है
जिन्दगी और
रेलगाड़ी...
दोनों एक जैसी हैं |
कभी तेज तो कभी
धीमी गति से
लेकिन चलती है |
और ये रहा आज का अंतिम लिंक..
चमचों का, भक्तों का, सबका कहना है
नेक हज़ारों में मोदी अच्छा है
सॉरी, मगर, मुझे सच कहना है
विदा मांगती है यशोदा
पेश है भूले-बिसरे गीत...
शुभप्रभात...
जवाब देंहटाएंसुंदर लिंकों के साथ अच्छी हलचल....
आभार आप का।
बढ़िया प्रस्तुति । आभार, 'उलूक' का सूत्र 'कल का कबाड़ इंटरनेट बंद होने से कल शाम को रीसाईकिल होने से टप गया' को जगह देने के लिये, यशोदा जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हलचल-सह-सुन्दर गीत प्रस्तुति हेतु आभार!
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