चमकती सफेद चाँदी
के रंग में या फिर
स्वर्ण की चमक से
ढले हुऐ हिमालय
कवि सुमित्रानंदन की
तरह सोच भी बने
क्या जाता है
सोच लेने में
वरना दुनियाँ ने
कौन सी सहनी है
हँसी मुस्कुराहट
किसी के चेहरे की
दिन भर ब्लॉगों पर लिखी पढ़ी जा रही 5 श्रेष्ठ रचनाओं का संगम[5 लिंकों का आनंद] ब्लॉग पर आप का ह्रदयतल से स्वागत एवं अभिनन्दन...
सादर
नमस्कार ! आज करीब एक माह पश्चात यहाँ आना हुआ ........ ब्लॉग जगत की सैर करते हुए एक ही डायलॉग बोलने का मन हुआ कि ----- " इतना सन्नाटा क्यों है भाई " ..... ऐसा लग रहा कि लोगों ने ब्लॉग पर लिखना ही शायद छोड़ दिया है या धीरे धीरे सब चेहरे की किताब ( फेसबुक ) में शामिल हो गए हैं .... खैर ...... प्रयास किया है इस सन्नाटे को तोड़ने का ........लायी हूँ कुछ नयी पुरानी तहरीरें .... शायद पसंद आयें ........
इस लोक में भ्रमण करते हुए पारलौकिक अनुभव यदि मिले तो कैसा अद्भुत संजोग होगा ? ...... वैसे मेरा भी मानना है कि ऐसे अनुभव होते हैं .....ऐसे अनुभव की साक्षी मैं स्वयं भी रही हूँ .
बस तभी से भोलेनाथ जपने लगी। मेरे प्रत्येक कठिन समय में भी उन्होंने मेरी उँगली थामे रखी और न जाने कितने अनुभव कराये, कभी शिशु भाव से तो कभी मित्र भाव से ... कभी-कभी तो मातृ भाव भी। मुझे लगता कि मुझको तो देवा प्रत्येक कठिनाई से निकाल लायेंगे और सारी तीक्ष्णता स्वयं पर ले लेंगे, परन्तु मैं पीड़ित होती थी कि यदि मैं इतनी परेशान हो जाती हूँ तो उनको कितना कष्ट पहुँचता होगा।
आत्माओं की बात पढ़ती हूँ तो बहुत रोमांच हो आता है , ऐसा भी जाना समझा है कि आत्माएँ अपने परिजनों की आत्मा को लेने आती हैं ...... शायद ऐसा ही कुछ रहा हो और निवेदिता जी को इस तरह का अनुभव हुआ हो ...... लोग इस लोक से परलोक जा कर भी रिश्ते निभाते हैं ,जब कि यहाँ रहते हुए कौन कितने रिश्ते संभालता है ये सोचने की बात है ........ इसी पर आइये पढ़ते हैं दो कवितायेँ .......
शीर्षक एक है लेकिन लेखक और विषय वस्तु अलग अलग .....
जितना बूझूँ, उतना उलझें
एक पहेली जैसे रिश्ते।
स्नेह दृष्टि की उष्मा पाकर,
पिघल - पिघलकर रिसते रिश्ते।
मेरे रीसायकल बिन में
बहुत से टूटे हुए रिश्ते हैं,
कुछ मैंने तोड़ दिए थे,
कुछ ग़लती से डिलीट हो गए.
अब रिश्ते डिलीट हों या न हों , लेकिन आज कल बहुत कुछ ज़िन्दगी से डिलीट हो जाता है अचानक ही ..... जब आर्थिक मंदी हो और नौकरियों पर अचानक गाज गिरे तो कैसा अनुभव होता है उसकी बानगी इस लघुकथा में देखिये .
“कैसे हो ? बहुत दिन हुए तुमसे बात नहीं हुई ?
हाल - चाल.., ठीक -ठाक ?” आदित्य के फ़ोन उठाते ही दूसरी ओर से उसके मित्र अनुज ने कुशल - क्षेम पूछी ।
कितना कठिन है ऐसी भयावह स्थिति को सहना .....वैसे तो बहुत कुछ जानते समझते भी हम लोग कितनी गलतियाँ करते हैं बिना यह सोचे कि आने वाली पीढ़ी को कितना सहना पड़ेगा ? हमारे एक ब्लॉगर साथी हैं जो प्रकृति से जुड़े हुए हैं , वो मानव को चेता रहे हैं .... काश उनकी बात सब तक पहुँच सके ....
बेटा ! ये जो मेज पर प्लेट में धुले हुए, दो सेब रखे है, जाओ एक दादी माँ को दे दो एक तुम खा लेना ।” शगुन ने बेटे से कहा ।
बेटे ने सेव उठाया और चलते-चलते.. दाँतों से कुतरना शुरू कर दिया दूर बैठी, दादी ने ये दृश्य देखा और ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ाने लगीं ।
कभी कभी बच्चे निःशब्द कर देते हैं न ? ऐसे ही निःशब्द कर देती हैं कुछ कविताएँ / रचनाएँ ...... ज़िन्दगी में बहुत कुछ विरोधाभास होता रहता है लेकिन उसे साधना भी आना चाहिए .....
ये म्यान मेरा है
उसकी अपनी मजबूरियां है
तो फिर वायदा - कायदा को
तोड़-ताड़ करने में
कुछ जाता भी नहीं है
ज्यादा चिढेगा वो , भागेगा
और इस खोखले म्यान को तो
खाक होना ही है |
अब मयान में दो तलवार आयें या न आयें लेकिन काव्य की एक विधा ऐसी ज़रूर है जिसमें सोच दो तरह से होती है लेकिन जवाब अलग ही होता है ..... एक झलक आप भी देखें ....
हर पल मेरी लट उलझाए
चूनर मेरी ले उड़ जाए
फिरता वो चहुँ ओर अधीरा
को सखी साजन ?
इस विधा में सखियों का संवाद चलता है ....... हालांकि आज तो आपस में संवाद ही कहाँ हो पाता है ? सब बहुत व्यस्त हैं ? पर किन कामों में व्यस्त हैं ये नहीं पता ....... ऐसे ही भावों को समेटा है इस रचना में ....
स्वेटर की तो बात दूर हैं
घर के काम लगे भारी
झाड़ू दे तो कमर मचकती
तन पर बोझ लगे सारी
रोटी बननी आज कठिन है
बेलन छोड़ कलाई से।।
ये व्यंग्यात्मक रचना को पढ़ थोडा विचार कर लें कि क्या यही सच है? हो सकता है कि कुछ के लिए तो सच ही होगी ......चलिए ज़िन्दगी की एक और सच्चाई से रु -ब - रु करवाती हूँ .....
सादर
इन कविताओं में बहुत सारे विषय और परिस्थितियां हैं, मूर्त और अमूर्त स्थितियों का मिश्रण है, परिदृश्य की एक स्थानिकता है, एक धीमी लय, एक तलाश और अस्त व्यस्तता है, जगमगाहट के पीछे से झांकते अंधेरे कोने–कुचाले हैं, विद्रूपताएं हैं और स्थिति विपर्यय का एहसास है । सत्ता के नुमाइंदे जिस शक्ति-तंत्र को एक आम आदमी के जीवन में रचते हैं, उन नुमांइदों की आवाज को जानना है, जिसमें ‘‘ न कोई सन्देह, न भय / न भर्राई न कर्कश हई कभी / हमेशा सम पर थिर ।’’
प्रियतम को आंखों का काजल बना कर सपने संजोना भले ही नई बात न हो लेकिन उसे अंतस में शीतल शब्दों की नदी के रूप में प्रवाहित करना रजनी दीप की संवेदना और सामर्थ्य को इंगित करता है. यहां काजल सिर्फ काजल भर नहीं रहता बल्कि शून्य में विलीन होने बाद भी उस तुम तक पहुंचने का माध्यम बन जाता है जिसे इस कृति में प्रियतम माना गया है. सही मायने में 'तुम' से 'तुम' तक पहुंचने की तड़फ ही इस एकालाप का सार है जो प्रेम में होने की सही परिभाषा है.
स्मरण रखो औ’ विश्वास करो,
मानव हो सकता है
मात्र मानव,
अपनी कुशलता-हताशा-पराजय के साथ भी,
और यह गात
होना होगा इसे आत्मा से एकात्म।
आज के इतिहास के अभूतपूर्व दबाव का एहसास उनमें इतना गहरा था कि उन्हें अन्ततः साहित्य की सीमा का भी बोध हो गया था। इसीलिए स्वयं एक साहित्यकार होते हुए भी मुक्तिबोध यह कहने का साहस कर सके कि “साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा करना मूर्खता है।” क्योंकि “साहित्य मनुष्य के आंशिक साक्षात्कारों की बिम्ब-मालिका भर तैयार करता है।” इस कथन से, सम्भव है, हमारे साहित्यिक अहं को कुछ चोट लगे, किन्तु वस्तुस्थिति से इनकार करना कठिन है; और यह भी एक विडम्बना ही है कि साहित्य के अवमूल्यन का आभास देते हुए भी लगे हाथों मुक्तिबोध साहित्य की एक वैज्ञानिक परिभाषा भी दे गये।
निराश मत होओ
क्योंकि
मृत्यु-शैय्या पर
पड़ा रोगी
अभी मरा नहीं है
और आशा की डोर
अभी टूटी नहीं है