निवेदन।


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शनिवार, 27 अप्रैल 2024

4109 ...कोयल कूहके ठूँठ पर कैसे पात हो गये पीत

 सादर अभिवादन

वैसाख मास प्रारंभ
इस साल बैसाखी का पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार, 13 अप्रैल 2024, दिन शनिवार को मनाया गया। 
वहीं इस दौरान बैसाखी संक्रान्ति का क्षण रात्रि 09 बजकर 15 मिनट पर होगा। ज्योतिष शास्त्र के 
अनुसार, इस दिन सौभाग्य और शोभन योग का निर्माण हो रहा है, जिसे बेहद ही शुभ माना जाता है।


बैसाखी कृषि से जुड़ा हुआ एक त्योहार है, जिसे पंजाब और हरियाणा में काफी 
धूमधाम के साथ मनाया जाता है. यह त्योहार सिख नववर्ष के रूप में भी मनाया जाता है. ...

पढ़िए आज की चुनिंदा रचनाएं
 


ताल-तलैया पाट दिये गुम झरनों का गीत;
बूँदों को मारे फिरें अब नदी कहाँ मनमीत,
पनघट,गगरी क़िस्से हो गये खो गये सारे रीत;
कोयल कूहके ठूँठ पर कैसे पात हो गये पीत,
साँझ ढले अब नहीं लौटते धूल उड़ाते पाँव;
भेड़-बकरियाँ मिमियायें खो रहा मेरा गाँव।




"तो तुम मेरे साथ ही जलोगी। मेरे पास भागने का विकल्प होता भाग जाता, तुम तो जा सकती हो।"
 
"नहीं दादा, जब से इस पेड़ पर हूँ, कितने अण्डे दिये, बच्चे हुए अपनी छाँव में बचाकर रखा। इन्हीं डालियों और पत्तों पर विष्ठा करके मलिन किया। अब चली जाऊँ और आप जल जायें। नहीं अब तो साथ ही जलेंगे।"




ऐसे बात करते हैं
कि मुंडेर पर बैठी चिड़िया
बिना डरे बैठी रहे,
कलियाँ रोक दें खिलना,
सूखे पत्ते चिपके रहें शाखों से,
हवाएं कान लगा दें,
दीवारें सांस रोक लें,
ठिठककर रह जाएं
सूरज की किरणें.




कभी मुंह में पानी ,
तो कभी अनाज का कोर,
चहचहाते हुये सब ,
मचाते है शोर ।





ज़िन्दगी की सरसता में नीरसता बैंगलोर के तापमान की तरह बढ़ने लगी है।जिसकी हवा तो अब भी पहले सी है मगर ठण्डक कहीं खो गई है ।दिन एक कप चाय जैसे लगने लगे हैं जो आदतानुसार फीकी चाय में भी मिठास के साथ ताजगी ढूँढने से बाज़ नहीं आते । कप में छनते समय अपने भूरे से रंग और भाप के साथ चाय बाँधती तो है अपने आकर्षण में

आज बस. ...
कल मिलिये फिर मुझसे
सादर वंदन

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

4108....संदेह सबकी निष्ठाओं पर

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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सोचती हूँ 

 विश्व के ढाँचें को अत्याधुनिक

 बनाने के क्रम में

ग्रह,उपग्रह, चाँद,मंगल के शोध,

 संचारक्रांति के नित नवीन अन्वेषण

सदियों की यात्राओं में बदलते

जीवनोपयोगी विलासिता के वस्तुओं का

आविष्कार,

जीवनशैली में सहूलियत के लिए

कायाकल्प तो स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है

किंतु,

कुछ विचारधाराओं की कट्टरता का

समय की धारा के संपर्क में रहने के बाद भी

प्रतिक्रियाविहीन,सालों अपरिवर्तित रहना

विज्ञान,गणित,भौतिकी ,रसायन,

समाजिक या आध्यात्मिक 

किस विषय के सिद्धांत का

प्रतिनिधित्व करता है?


#श्वेता सिन्हा

आइये आज की रचन



प्रेम की इतनी जटिलताओं के बीच
वो देखता था विस्मय के साथ सबको
वो करता था संदेह सबकी निष्ठाओं पर
 
वो प्रेम के ग्रह पर पटका गया था
किसी धूमकेतु की तरह
बिना किसी का  कुछ बिगाड़े
वो पड़ा था अकेला निर्जन


ऐसे बात करते हैं 

कि मुंडेर पर बैठी चिड़िया 

बिना डरे बैठी रहे,

कलियाँ रोक दें खिलना,

सूखे पत्ते चिपके रहें शाखों से,

हवाएं कान लगा दें,

दीवारें सांस रोक लें,

ठिठककर रह जाएं 

सूरज की किरणें. 



रखना दुश्वार काबू खुद को ।
सब गुस्से से भरे हुए हैं ।।
उम्मीदें क्या क़तील को हो ।।
कातिल हाकिम बने हुए हैं ।।



खोज लगातार जारी रखना ।
हार कर द्वार बंद मत करना ।
शायद थोङा समय और लगेगा,
अवसर इसी रास्ते से आएगा,
तुम अपनी जगह मुस्तैद रहना ।

ये बुजुर्ग चाहते है 
कुछ पल जो हम सिर्फ 
उनको दे सकें 
सुन सकें उनकी यादों का सिलसिला ।
वे कुछ पल जी लें 
उन लोगों की यादों के साथ ,
जो चले गये लेकिन 
जिनके साक्षी हमारे बचपन थे ।
कौन उनको साथ देता है,
हमारे पास वक्त नहीं,


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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

4107...गज़ब था बुढापा अजब थी जवानी...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीया साधना वैद जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में प्रस्तुत हैं पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

नयन स्वयं को देखते न

खेल कैसा है रचाया

अश्रु हर क्योंकर बहाया,

नयन स्वयं को देखते न

रहे उनमें जग समाया!

मानो किताब एक घर हो

ऐसा क्यों ? कारण सुनो,

दुख इतना हावी हो जाता,

सुख धूमिल हो

आँसुओं में बह जाता ।


एक दिलकश कहानी

गज़ब था बुढापा

अजब थी जवानी

 

वो थी शाहजादी

बला की दीवानी

 

भाया था उसको

एक बूढा अमानी


 कोहरे में कहीं--

वही शाही रस्ता वही शहर भर की रौशनाई,
लामौजूद हूँ ताहम सज चले हैं मीनाबाज़ार,

कुछ चेहरों को नहीं मिलती वाजिब पहचान,
घने धुंध की वादियों में छुपे होते हैं आबशार,

कसौली की खुशबू ने थाम लिया था...

ढलते सूरज की तस्वीर लेते हुए मुझे मानस की याद आई। जाने किस शहर में होगा। घुमक्कड़ ही तो है वो। सोचा उसे बताऊँ कि कसौली मे हूँ। खुश होगा। महीनों, कभी-कभी सालों भी बात न होने के बावजूद मानस हमेशा करीब महसूस होता है। शायद इसलिए कि मैं सोचूँ पत्ती तो वो जंगल की बात करे ऐसा रिश्ता है हमारा।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


बुधवार, 24 अप्रैल 2024

4106..हाँ, हम फिर तैयार हैं

 ।।प्रातःवंदन।।

"लगा राजनीतिज्ञ रहा अगले चुनाव पर घात,

राजपुरुष सोचते किन्तु, अगली पीढ़ी की बात।

शासन के यंत्रों पर रक्खो आँख कड़ी,

छिपे अगर हों दोष, उन्हें खोलते चलो।

प्रजातंत्र का क्षीर प्रजा की वाणी है,

जो कुछ हो बोलना, अभय बोलते चलो..!!"

रामधारी सिंह 'दिनकर'

प्रस्तुतिकरण के क्रम को बढाते हुए...✍️

चुम्बक







कोर्ट परिसर में लगातार चहल कदमी करते लोग। 

जिनमें शामिल थी खिचड़ीनुमाँ जमात। 

कुछ मज़दूर और निम्न वर्गीय लोग, कुछ आम घर परिवारों के नौकरी 

पेशा क़िस्म के लोग, कुछ उद्यमी और व्यवसायी लोग। अधेड़, उम्रदराज़ 

हर उम्र के लोग- कहीं..

✨️

खो रहा मेरा गाँव


खो रहा मेरा गाँव

पंछी और पथिक ढूँढ़ते सघन पेड़ की छाँव, 

रो-रो गाये काली चिड़िया खो रहा मेरा गाँव।

दहकती दुपहरी ढूँढ़ रही मिलता नहीं है ठौर;

स्वेद की बरखा से भींजे तन सूझे न कुछ और..

✨️

बहकते नहीं हैं

 दिल, दाग, दरिया दुबकते नहीं हैं

हृदय, हाय, हालत बहकते नहीं हैं

प्रयासों से हरदम प्रगति नहीं होती

पहर दो पहर में उन्नति कहीं होती..

✨️

पुरानी डायरी

टटोलते टटोलते 

एक भूले बिसरे दराज को 

मिली है आज एक डायरी पुरानी 

जर्जर हो गई है 

कुतर भी डाला था ..

✨️

हाँ, हम फिर तैयार हैं








पुराने घर की अंतिम मुसकुराती हुई तस्वीर 

आग का क्या है पल दो पल में लगती है

बुझते-बुझते एक जमाना लगता है....

जाने कितनी बार सुनी यह गज़ल इन दिनों ज़िंदगी का सबक बनी हुई है। 

अब जब मन थोड़ा संभल रहा है तो इस बारे में लिखना जरूरी लग रहा है

। घटना जनवरी के किसी दिन की है। संक्षेप में इतना ही कि सुबह हमेशा ..

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️


मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

4105...मौन की भाषा

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
-------
पृथ्वी सोच रही है...,
किसी दीवार पर
मौका पाते ही पसरे
ढीठ पीपल की तरह,
खोखला करता नींव को,
बेशर्मी से खींसे निपोरता, 
क्यों नहीं है चिंतित मनुष्य
अपने क्रियाकलापों से ...?

मनुष्यों के स्वार्थपरता से
चिंतित ,त्रस्त, प्रकृति के
प्रति निष्ठुर व्यवहार  से आहत
विलाप करती
पृथ्वी का दुःख
 सृष्टि में
प्रलय का संकेत है।


अब आज की रचनाएँ


कबीर का प्रेम..

निर्गुण ब्रह्म में सब कुछ देखता है 

सूर का प्रेम ..,

शिशु  मुस्कुराहट में खेलता है  

गृहस्थी के सार में साँसें लेता है 

तुलसी का प्रेम 

तो अरावली की उपत्यकाओं में 

गूँजता है मीरां का प्रेम




सुन लेते हैं जो मौन की भाषा 

 जहां छाया है 

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा

वहीं गूंजता है 

अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन हास्य 

और चन्द्रमा का स्पंदन  

मिट जाती हैं दूरियाँ

हर अलगाव हर अकेलापन



गंगा, जमुना, 
सरयू, नर्मदा 
सतुपड़ा, हिमालय नवगीत का,
छंद का हितैषी 
यायावर 
गीत लिखा मन के जगजीत का.
गीतों की
गन्ध रहे बाँटते 
रेत, नदी, धूप में कछार में.


उड़ती हैं महाकाय रंगीन परों की तितलियाँ, हर
कोई बढ़ चला है अनजान सफ़र में, हाथों
में थामे हुए अनेक रहस्यमयी तख्तियां ।
वो सभी चेहरे हैं भाषा विहीन, मूक
कदाचित बधिर भी, उनकी
आँखे हैं पथराई सी,
मशीन मानव की
तरह वो बढ़े
जा रहे हैं
नंगे






''बहुते है ! पर सबसे बड़का अचरज तो अपना दिल्ली में ही है ! चा का टपरी पर उसी का बात हो रहा था ! देखिए, देश का सबसे बलशाली कुनबा ! जहां का तीन-तीन, चार-चार परधान मंत्री बना ! देश का दूसरा सबसे बड़ा पाटी ! अभी भी सबसे जोरावर परिवार ! पर दिल्ली का जउन सा निर्वाचन छेत्र का सीट का लिस्ट में इन लोगन का नाम है, जहां इ लोग वोट देगा, ऊ छेत्र का वोटिंग मशीन पर इनका पाटी का निशाने ही नहीं है ! तो ई लोग कउन चिन्ह का बटन दबाएगा ? इसी पर सब बहिसिया रहे थे ! 


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आज के लिए बस इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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सोमवार, 22 अप्रैल 2024

4104 ...खबरची की खबर पर वाह कह के मगर जरूर आता है

सादर अभिवादन

कल हनुमान जी का जन्म दिन है



पढ़िए आज की चुनिंदा रचनाएं



वाह रे ‘उलूक’
तेरे घर तेरे शहर में हो रहे को तू देखता है
और अपना मुंह छुपाता है

शाबाश है खबरचियों की ओर से
खबरची की खबर पर
वाह कह के मगर जरूर आता है




पापा आप दीर्घायु हो यही है मेरा अरमान
आपसे ही तो है ये छत ये दीवारें ये मकान।

मम्मी के श्रृंगार आप ही से सलामत है पापा ।
आप से ही है मम्मी के चेहरे की मुस्कान ।




‘अरे बंधु,यही मेरी जीत का टीका है।रक्त की एक-एक बूँद से जनता इसका जवाब देगी
अगले दिन सभी अख़बारों के मुखपृष्ठ पर सचित्र खबर छपी, ‘नेताजी ने अपने क्षेत्र में श्रमदान में भाग लिया और रक्तदान का शुभारंभ किया।उनसे मिलकर किसान खूब रोए !’





प्रिये पराये धन को अपना कहूँ,
यह ब्राह्मण धर्म का अंग नहीं।
हम हैं स्वाभिमानी ब्राह्मण प्रिये,
उपकृत महल हमें स्वीकार नहीं।।




कहीं पर नहीं है खाने के निवाले,
तो कहीं पर नहीं हैं खाने वाले।
अमीर देश के अमीर लोग बच्चे नहीं जनते,
गरीब देश के गरीब लोग जनने से नहीं थमते।
विश्व का संतुलन बिगड़ता जा रहा है,
इसीलिए इंसान का सकून छिनता जा रहा है।

आज बस. ...
कल मिलिये सखी से
सादर वंदन
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