आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
ले घर अपना, अपने ही देश में हो
जाएं शरणार्थी, गांव जल रहे
हैं शहर हैं धुआं धुआं,
मानवता का दम
भरने वाले
छुपे बैठे
हैं जाने
कहाँ,
मिलते हैं अगले अंक में।
दिन भर ब्लॉगों पर लिखी पढ़ी जा रही 5 श्रेष्ठ रचनाओं का संगम[5 लिंकों का आनंद] ब्लॉग पर आप का ह्रदयतल से स्वागत एवं अभिनन्दन...
शीर्षक पंक्ति: आदरणीय संतोष त्रिवेदी जी के लेख से।
सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में पढ़िए पॉंच
पसंदीदा रचनाएँ-
है स्वयं पूर्ण, जगत अधूरा
मिथ्या स्वप्न, सत्य है पूरा,
क्षितिज कभी हाथों ना आता
चलता राही थक सो जाता!
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जब उदासियाँ
घाटियों में
बैठकर कविताएँ रचती हैं,
तब उनके पास
केवल चमकती हुई
दिव्य आँखें ही नहीं होतीं,
अपार सौंदर्य भी
होता है।
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मुझे और सीखना था
बहुत कुछ
मग़र मैं बनकर रह गयी पैसिव लर्नर
उन सात दिनों के क्षेपित सच के साथ
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यदि हमारी न्याय प्रणाली त्वरित और सख्त हो तो समाज में इसका अच्छा संदेश जाएगा और अपराधियों के हौसलों पर लगाम लगेगी। गिरगिट की तरह बयान बदलने वाले गवाहों पर भी अंकुश लगेगा और अपराधियों को सबूत और साक्ष्यों को मिटाने और गवाहों को खरीद कर, उन्हें लालच देकर मुकदमे का स्वरूप बदलने का वक़्त भी नहीं मिलेगा। कहते हैं जब लोहा गर्म हो तब ही हथौड़ा मारना चाहिए। समाज में अनुशासन और मूल्यों की स्थापना के लिये कुछ तो कड़े कदम उठाने ही होंगे। त्वरित और कठोर दण्ड के प्रावधान से अपराधियों की पैदावार पर अंकुश लगेगा और शौकिया अपराध करने वालों की हिम्मत टूट जाएगी।
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आए दिन सम्मानों को लेकर हाय-तौबा मची रहती है। लगता है साहित्य केवल सम्मान के लिए ही बना और बचा हुआ है।ठीक वैसे ही जैसे सियासत सेवा के लिए।आज हालत यह है कि लेखक लिखते बाद में हैं, ‘सम्मान’ की गारंटी पहले माँगते हैं।सम्मान के वादे पर इन्हें भरोसा नहीं होता क्योंकि यह शब्द अब अपना अर्थ खो चुका है।साहित्य हो,सियासत हो या निजी जीवन हो,वादे किए ही इसलिए जाते हैं कि उन्हें पूरा करने का कोई नैतिक दबाव नहीं होता।सम्मान-समारोह का ताजा जिक्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि तीन दिन पहले इंटरनेट मीडिया पर इसका सामूहिक न्योता परोसा गया था।उस साहित्यिक-भंडारे में सम्मानित होने वालों में चिर-वरिष्ठ से लेकर वर्षों से उभरते हुए रचनाकार शामिल थे।उन्होंने अलग से इस बात का ढोल भी पीटा कि माँ सरस्वती जी की कृपा से उन्हें इस लायक समझा गया यानी वे भी मानते हैं कि वाक़ई वे हैं नालायक ही पर भोले इतने हैं कि दूसरों से अपने को ‘लाइक’ करवाना चाहते हैं।
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
शीर्षक पंक्ति: आदरणीया नूपुरं जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
रविवारीय अंक में आज पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-
बूँद-बूँद घट में संचित
मिट्टी में अमिट छाप
जिसकी, चेतना में व्याप्त
विचारों की अविरल धारा
सींचती रहे मानस धरा~~
अतऐव संजो कर रखनी है
अपनी यह अकूत संपदा,
घटानी नहीं, जोङनी है।
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ये
फूल
खिलते
महकते
मुस्कुराते हैं
हमें सुखी कर
भू पे बिछ जाते हैं!
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ग़ज़ल, हाकिम रियाया के दिल की बात कब जानता
है
पिछले महीने तेरे शहर में ज़लज़ला आया था
उसके कहने का मतलब जानता है
ये सवाल मेरी शख्सियत पर हावी है
वो मुझसे क्यों पूछता है जब जानता है
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किसी मोड़ पर जब रोने को भी तरस जाओगे
अपनी नाकामियां तब तुम किसको
बताओगे
घुट घुट के ही अंदर जब मर
जाओगे
कही जाकर तब ये एहसास आयेगा
वक़्त जब हाथ से फिसल
जायेगा.....
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इस फ्रायडे को गुड क्यों कहा जाता है?
वैसे यह सवाल बच्चों को तो क्या
बड़ों को भी उलझन में डाल देता है कि जब इस दिन इतनी दुखद घटना घटी
थी, तो इसे "गुड" क्यों कहा जाता है ? इसका यही जवाब है कि यहां "गुड" का अर्थ "HOLY"
यानी पावन के अर्थ में लिया गया है ! क्योंकि इसी दिन यीशु ने सच्चाई का साथ देने
और लोगों की भलाई के लिए, उनमें सत्य, अहिंसा और प्रेम की भावना जगाने के लिए, अपने प्राण त्यागे थे। इस दिन उनके अनुयायी उपवास रख पूरे दिन प्रार्थना करते हैं और यीशु को दी गई
यातनाओं को याद कर उनके वचनों पर अमल करने का संकल्प लेते हैं।
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव