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मंगलवार, 31 मई 2016

319...तम्बाकू ऐसी मोहिनी जिसके लम्बे-चौड़े पात

जय मां हाटेशवरी...

आज सारा विश्व तम्बाकू निषेध दिवस  मना रहा है...
इस लिये आज की प्रस्तुति के आरंभ में...   इसी विषय पर  कुछ अनुमोल विचार।
list of 7 items
• “तंबाकू छोड़ना इस दुनिया का सबसे आसान कार्य है।
मैं जानता हूँ क्योंकि मैंने ये हजार बार किया है।”- मार्क ट्वेन
• “तंबाकू मारता है, अगर आप मर गये, आप अपने जीवन का बहुत महत्वपूर्ण भाग खो देंगे।”- ब्रुक शील्ड
• “तंबाकू का वास्तविक चेहरा बीमारी, मौत और डर है- ना कि चमक और कृत्रिमता जो तंबाकू उद्योग के नशीली दवाएँ बेचने वाले लोग हमें दिखाने की कोशिश करते हैं।”-डेविड बिर्न
• “ज्यादा धुम्रपान करना जीवित इंसान को मारता है और मरे सुअर को बचाता है।”- जार्ज डी प्रेंटिस
• “सिगरेट छोड़ने का सबसे अच्छा तरीका है तुरंत इसको रोकना- कोई अगर,
और या लेकिन नहीं।”- एडिथ जिट्लर
• “सिगरेट हत्यारा होता है जो डिब्बे में यात्रा करता है।”- अनजान लेखक
• “तंबाकू एक गंदी आदत है जैसे कथन के लिये मैं समर्पित हूँ।”- कैरोलिन हेलब्रुन
आइये इस अवसर पर हम सब भी  संकल्प लें कि खुद भी नशा नही करेंगे और अन्य लोगो को भी नशा ना करने
के लिये प्रोत्साहित करेंगे
अब पेश है...आज के लिये  के कुछ चुने हुए लिंक...

तम्बाकू ऐसी मोहिनी जिसके लम्बे-चौड़े पात
s320/Tobacco
हर वर्ष विश्व तम्बाकू निषेध दिवस आकर गुजर जाता है। इस दौरान विभिन्न  संस्थाएं कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को तम्बाकू से होने वाली तमाम बीमारियों के बारे में समझाईश देते है, जिसे कुछ लोग उस समय गंभीर होकर छोड़ने की कसमें खा भी लेते है, लेकिन कुछ लोग हर फिक्र को धुंए में उड़ाने की बात कहकर उल्टा ज्ञान
बघार कर- “कुछ नहीं होता है भैया, हम तो वर्षों से खाते आ रहे हैं, एक दिन तो सबको ही मरना ही है, अब चाहे ऐसे मरे या वैसे, क्या फर्क पड़ता है“  हवा निकाल देते हैं। कुछ ज्ञानी-ध्यानी ज्यादा पढ़े-लिखे लोग तो दो कदम आगे बढ़कर “सकल पदारथ एही जग माही, कर्महीन नर पावत नाही“ कहते हुए खाने-पीने वालों को श्रेष्ठ और इन चीजों से दूर रहने वालो को कर्महीन नर घोषित करने में पीछे नहीं रहते। उनका मानना है कि-
















बीडी-सिगरेट, दारू, गुटका-पान 
आज इससे बढ़ता मान-सम्मान 
दाल-रोटी की चिंता बाद में करना भैया 
पहले रखना इनका पूरा ध्यान! 
मल-मल कर गुटका मुंह में डालकर 
हुए हम चिंता मुक्त हाथ झाड़कर 
जब सर्वसुलभ वस्तु अनमोल बनी यह 
फिर क्यों छोड़े? क्या घर, क्या दफ्तर!  


ग़ज़ल "बिगड़ा हुआ है आदमी"
छिप गयी है अब हकीकत, कलयुगी परिवेश में,
रोटियों के देश में, टुकड़ा हुआ है आदमी।
हम चले जब खोजने, उसको गली-मैदान में
ज़िन्दग़ी के खेत में, उजड़ा हुआ है आदमी।

कलम नहीं चला पाई
शब्दों का भण्डार अपार
उनमें ही डुबकी लगाई
लिखने की रही क्षमता
पर कलम नहीं चला पाई |
क्या यह थी कुंठा मन की
या प्रहार की चिंता थी

जिन्दगी
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खुशियों के कुछ
संकेतों से
और फ़िर
हम जिन्दगी से
प्रेम करने लगते हैं
और चल पड़ती है
जिन्दगी
खुशियों का निमन्त्रण पाकर

हर मौसम तेरा बनना है
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मेरे इस प्यासे तन पर, जब से पडी छाया तेरी,
खिल गयी मुरझाई कली, फूल बनी काया मेरी
धडकनों की धुन बन कर, गीत तुम्हारा बनना है
कभी धूप कभी छाँव बन, हर मौसम तेरा बनना है


दोहे
अतिशय गरमी आज है, चरम छोर पर ताप
खाली नल में मुहँ लगा, प्यासा करे संताप |
रवि है आग की भट्टी, बरस रहा है आग
झुलस रहा है आसमाँ, जलता जंगल बाग़  |

आज की प्रस्तुति को यहीं विराम देता हूं...
धन्यवाद।







सोमवार, 30 मई 2016

318..अब आत्माऐं होती ही नंगी हैं बस कुछ ढकने की कुछ सोची जाये

सादर अभिवादन
भाई विरम सिंह जी आ गए
संजय भाई की वापसी भी
हो ही गई...
कुछ तो विविधता मिलेगी
आप सभी को..

दो दिन से मैं पढ़ ही रही हूँ
प्रस्तुत है कुछ नयी कुछ जूनी रचनाओं की कड़िया.....


मनोज नौटियाल.....
भाव की  भागीरथी के , मैं किनारे देखता हूँ
आज तर्पण पा गए हैं ,  वेदना के छंद सारे
बाँध रखी थी गिरह जो , वीतरागी चेतना ने
मुक्त होने लग गए हैं , प्रेम के अनुबंध सारे ।।


संगीता जांगीड़.....
तुम चाहते क्या हो ?
मैं हमेशा खुश रहूँ ?
या खुश दिखूँ
तुम ही बताओ
जब अंदर पतझर हैं
तो बाहर
बसंत कैसे बिखेरू मैं ?

उस दि‍न 
पेड़ से झड़ी सुनहरी पत्‍ति‍यों ने 
सजाया था अनोखा बि‍स्‍तर 
चांद पलकें झपकाकर देख रहा था 
हमारा प्रथम चुंबन 
जो आधा मेरे होठों पर रखकर 
आधा अपने साथ लेकर चला गया था वो
फि‍र एक रोज पूरा करने का वादा देकर 

अगर सोच में तेरी पाकीज़गी है
इबादत सी तेरी  मुहब्बत लगी है

मेरी बुतपरस्ती का जो नाम दे दो
मैं क़ाफ़िर नहीं ,वो मेरी बन्दगी है


ख़ार तो खुद ही मिले, गुल बुलाने से मिले 
आपके शहर के धोखे भी सुहाने से मिले 

मुस्कराहट को लिए ग़म खड़े थे राहों में 
अज़ब फ़रेब तेरा नाम बताने से मिले


अजीबोगरीब सच...

सारे संसार में ऐसी हजारों जगहें और इमारतें हैं जिन्हें पारलौकिक शक्तियों के वशीभूत माना जाता है।
इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी अफवाह यह कभी भी परमाणित नहीं हो पाता क्योंकि
दोनों पक्षों के पास अपनी बात सिद्ध करने के दसियों प्रमाण होते हैं।
हमारे देश में भी ऐसी सैंकड़ों विवादित जगहें हैं जिन्हें अंजानी शक्ति के द्वारा बाधित माना जाता है।
ऐसी ही एक इमारत राजस्थान के कोटा शहर में भी है जिसे बृजराज महल के रूप में जाना जाता है। 


आज की शीर्षक कड़ी
डॉ. सुशील कुमार जोशी...
कई दिन के
सन्नाटे में
रहने के बाद
डाली पर उलटे
लटके बेताल
की बैचेनी बढ़ी
पेड़ से उतर कर
जमीन पर आ बैठा
हाथ की अंगुलियों
के बढ़े हुऐ नाखूनों से
जमीन की मिट्टी को
कुरेदते हुऐ
लग गया करने
कुछ ऐसा जो
कभी नहीं किया

आज्ञा दें यशोदा को..
एक गीत सुनिएगा
बीस साल बाद







रविवार, 29 मई 2016

317.... हाथों से नहीं, पैरों से हवा में उड़ान भरती हैं

सुप्रभात
पिछले कुछ दिनो से परीक्षा की तैयारी मे व्यस्त होने के कारण ब्लॉग को समय नही दे पाया। कुछ इस तरह खो गए अपनी दुनिया मे की दीदी को सूचना भी नही दे पाए इसलिए माफी चाहता हू ।
whatsapp से
एक मूर्ति बेचने वाले गरीब कलाकार के लिए...किसी ने क्या खूब लिखा है.... ""गरीबो के बच्चे भी खाना खा सके त्योहारों में, तभी तो भगवान खुद बिक जाते है बाजारों में..!
आइए अब चलते है आज की कड़ीयो की ओर....
        मेरे गीत पर...
खुश अगर हैं सभी,तो सभी दौड़िए !
मन है भारी अगर, तो अभी दौड़िए !
क्या पता भूल से दिल रुलाया कोई
गर ह्रदय पर वजन हो, तभी दौड़िए !
आने वाली नसल,आलसी बन गयी
उनको हिम्मत बंधाने को भी दौड़िए !
       शेष फिर पर....
बहते जल की छोटी सी धारा में
बनता है एक छोटा भवँर
मुझे याद आती है
तुम्हारी नाभि
भँवर में समा जाता है
शाख से टूटा एक पत्ता
तब मुझे याद आती है
अपने कान की प्रतिलिपि
जो समा गई थी तुम्हारी नाभि में
मगर भँवर की तरह नही
बल्कि उस बच्चे की तरह
       अजीब गजब पर.....
हाथों से नहीं, पैरों से हवा में उड़ान भरती हैं जेसिका- अमेरिका के एरिज़ोना में जन्मी और वहीं रहने वाली जेसिका कोक्स (32) जन्म से अपंग हैं। उनके दोनों हाथ नहीं थे, इसके बावजूद वह पायलट है। बिना हाथों वाली वह दुनिया की पहली पायलट है, जो हाथों से नहीं, पैरों से प्लेन उड़ाती हैं।लेकिन यह कमजोरी ही उनकी ताकत बनी। आज जेसिका वो सभी काम कर सकती हैं और करती हैं, जो आम लोग भी नहीं कर पाते।
           
             उच्चारण पर.....
कितने ही दल हैं यहाँ, एक कुटुम से युक्त।
होते बारम्बार हैं, नेता वही नियुक्त।१।
--
नेता मेरे देश के, ऐसे हैं मरदूद।
भाषण तक सीमित हुए, उनके आज वजूद।२।
        हिन्दी वाला ब्लॉग पर...
प्रणब मुखर्जी देश के 13वें राष्ट्रपति हैं जिन्होंने जुलाई 2012 से पद संभाला है. इससे पहले वे छह दशकों तक राजनीति में सक्रिय रहे हैं और उन्हें कांग्रेस का संकटमोचक माना जाता है.
अस्सी वर्षय मुखर्जी विदेशी मंत्री, रक्षा मंत्री, वाणिज्य मंत्री और वित्त मंत्री के रूप में अलग-अलग समय पर सेवा की वे दुर्लभ विशिष्टा के साथ शासन में अद्वितीय अनुभव वाले इंसान है. वे 1969 से राज्य सभा के लिए 5 बार चुने गए थे ओर 2 बार लोक सभा के लिए 2004 में चुने गए थे. वे कांग्रेस वर्किंग समिति के सदस्य भी थे जो 23 वर्षो से सबसे ज्यादा निति बनाने वाली पार्टी है.
अब दिजिए आज्ञा
धन्यवाद
विरम सिंह सुरावा

शनिवार, 28 मई 2016

316 .... जिन्दगी




सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष


जिंदगी की राह में ठोकरें काफी मिलती है
लेकिन
अपने पैरों पर उठ खड़े होने का फैसला
 केवल हमारे हाथों में ही है
जगत खातिर ही जुगत में जुटिये
केवल अपने लिए तो पशु  जुटाते





हर उजाले की तह में एक अँधेरा छुपा होता है जिसे हम नहीं पहचान पाते,
 जिस तरह चौंधिया देने वाली रौशनी में फिर कुछ नहीं दिखता, 
असल में हम खुद के आलोक में खुद को नहीं पहचान सकते, 
हम सबसे ज़्यादा जिससे गैरवाकिफ होते हैं वे हम खुद हैं..
 असल में हम अपने खुद की शान्ति में सबसे बड़ा अवरोध साबित होते हैं



स्मृतियाँ जब मस्तक पटल पर दस्तक देती हैं तो ऐसे में कैसे विस्मृत कर पाऊँगा 
मई की पन्द्रवी उस शाम को जब सूरज की लालिमा हिमखंडों से टकराकर
 उसके चेहरे पर पड़ रही थी और लालिमा से तमतमाया उसका चेहरा 
सखी-सहेलियों के गुरमुट में यूं प्रतीत हो रहा था 
मानो आज धरती पर ही चाँद मेरे इन्तजार में खड़ा हो।




दूसरों को सुखी करना ,पुण्य का काम होता है
मैं अन्य लोगों को पुण्य कमाने का मौका देना चाहता था
सो मैं सतर्क था | 
जिनका छठे छमासे ही कभी फोन आता था
वे भी इस सुख की लालसा में 




हर साल 20 मई को हमें स्कूल से रिजल्ट मिलता था. 
उसी शाम बाबू मुझे चारबाग स्टेशन की छोटी लाइन ले जाते, 
जहां नैनीताल एक्सप्रेस खड़ी रहती. 
ट्रेन में दो-चार परिचित मिल ही जाते. किसी एक को मेरा हाथ थमा कर 
बाबू उससे कहते- ‘बच्चे को हल्द्वानी से बागेश्वर की बस में बैठा देना तो!
’ मैं मजे से उनके साथ यात्रा करता.




ऊर्जा बन कर बहती है
इस मिट्टी में बसती है                  
बीज से खिलती है
नए पौधों में मिलती है
जवानी कहीं जाती नहीं.




हिन्दी भारत की एकता, 
महिमा और गरिमा है, 
हिन्दी सभी भारतीय भाषाओं की अग्रजा है।
हिन्दी को दैनिक जीवन में लाना और रखना हमारा धर्म है।
हिन्दी का हृदय पवित्र और विशाल है, 
हिन्दी उर्दू को अपनी छोटी बहन मानती है





चलो सखी हम दूर जहाँ से, इक दर्या के शांत किनारे
सूरज की लाली में लिपटे गगन-तले इक सांझ गुजारे

लहरों का हो शोर सुरीला, और पवन की चंचल हलचल
नर्म रेत की चादर ओढे इत्मिनान से बैठे कुछ पल

घुले साँस में साँस, पहन ले हाथों में हाथों के कंगन




फिर मिलेंगे ..... तब तक के लिए 

आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव


शुक्रवार, 27 मई 2016

316..यह जिस्म तो किराये का घर है; एक दिन खाली करना पड़ेगा:!!

जय मां हाटेशवरी...

प्रत्येक ग्रंथ धर्म का उपदेश देता है...
पर श्री भागवत गीता कर्म का उपदेश देती है....
गीता का संदेश देते हुए...
किसी ने कुछ यूं कहा है...
 
यह जिस्म तो किराये का घर है; एक दिन खाली करना पड़ेगा:!!
सांसे हो जाएँगी जब हमारी पूरी यहाँ; रूह को तन से अलविदा कहना पड़ेगा:!!
वक्त नही है तो बच जायेगा गोली से भी; समय आने पर ठोकर से मरना पड़ेगा:!!
मौत कोई रिश्वत लेती नही कभी; सारी दौलत को छोंड़ के जाना पड़ेगा:!!
ना डर यूँ धूल के जरा से एहसास से तू; एक दिन सबको मिट्टी में मिलना पड़ेगा:!!
कर कर्म बिना फल की इच्छा से; वर्ना बाद में बहुत रोना पड़ेगा!!!!!!!
सब याद करे दुनिया से जाने के बाद; दूसरों के लिए भी थोडा जीना पड़ेगा:!!
मत कर गुरुर किसी भी बात का ए दोस्त:! तेरा क्या है..? क्या साथ लेके जाना पड़ेगा…!!
इन हाथो से करोड़ो कमा ले भले तू यहाँ… खाली हाथ आया खाली हाथ जाना पड़ेगा:!!
यह ना सोच तेरे बगैर कुछ नहीं होगा यहाँ; रोज़ यहाँ किसी को ‘आना’ तो किसी को ‘जाना’ पड़ेगा..


अब देखिये....मेरे पढ़े हुए में से...मेरी पसंद...

गीत
s200/Geet
पल को इस समेट लो
वक्त मिलेगा फ़िर कहां।
मिलेगी सबको मंजिलें
नया बनेगा आशियां
कदम कदम से मिल रहे
कारवां भी चल पड़ा।


अमर क्रांतिकारी रासबिहारी बोस - इंडियन इंडिपेंडेस लीग के जनक
s400/Rash_bihari_bose
२२ जून १९४२ को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमन्त्रित
करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चे पर कई भारतीय युद्धबन्दियों को पकड़ा था। इन युद्धबन्दियों को इण्डियन इण्डिपेण्डेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी (आई०एन०ए०) का सैनिक बनने के लिये प्रोत्साहित किया गया। आई०एन०ए० का गठन रासबिहारी बोस की इण्डियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में सितम्बर १९४२ को किया गया। बोस ने एक झण्डे का भी चयन किया जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झण्डे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के हवाले किया। रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्य कमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आई०एन०ए० के नेतृत्व से हटा दिया लेकिन आई०एन०ए० का संगठनात्मक ढाँचा बना रहा। बाद में इसी ढाँचे पर सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आई०एन०एस० का पुनर्गठन किया।


नोच ले जितना भी है जो कुछ भी है तुझे नोचना तुझे पता है अपना ही है तुझे सब कुछ हमेशा नोचना
s400/cat-scratch_-BWBW1100
जितना भी
नोचना है
अपनी
सोच को
उसे भी
पता है
तू जो भी
नोचेगा
अपना ही
अपने आप
खुद ही नोचेगा ।


छद्म
s400/brishti
यह तुम हो या कोई बूँदों सा रूप धरा है
मेरे लिए तो तुम्हारा  हर छद्म उन्मादपूर्ण है ...


कि बादल आये हैं
वो आँसूं भी सूख चुके हैं तप-तपकर
ढलके थे जो कोर कि बादल आये हैं
बाँध लिया है झूला मेरे प्रियतम ने
चला मैं सारा छोड़ कि बादल आये हैं
पौधे, पंछी, मानव सबकी चाह यही
बरसो पूरे जोर कि बादल आये हैं


मातॄ दिवस पर ...
s320/Untitled
 सच कहूँ तो मै बहुत खुश हूँ तुमने ससुराल में सबके दिलों में अपना घर बना लिया है, तुम अपनी दुनिया में खुश हो, तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है, तुम्हारे
लौटकर आने पर सारे घर में हंसी की लहर फैल गई थी, मै चाहती थी तुम कुछ दिन रुक जाओ, लेकिन तुमने कहा माँ मुझे जाना होगा, ससुर जी मेरे हाथ की ही चाय पीते हैं,
सासु माँ मेरे बिना मंदिर नहीं जाती होगी, इनको तो यह भी नहीं मालूम कि इनकी जुराबे कहाँ रखी है? मै चुपचाप तुम्हारा चेहरा देख रही थी कि तुम कितनी जल्दी पिता
की जरूरत को भूल गई कि वो तुम्हारे बिना एक कदम भी नहीं चल पाते हैं, मुझे भी खड़े रहने में दिक्कत होती है। तुम कितनी जल्दी भूल गई कि इस घर में तुमने उन्नीस
साल बिताये थे, आज जल्दी जाने की जल्दी मची थी, लेकिन इसमें तुम्हारा कुसूर नहीं था, तुम्हारे जन्म के साथ ही यह निश्चित हो गया था कि एक दिन तुम हम सबको छोड़कर
किसी और का घर बसाने चली जाओगी। मुझे याद है, मैने कहा था हम औरतों की ज़िंदगी में यही होता है, हमें अपने प्यार की खुशबू पूरे गुलशन में बिखेरनी होती है,


आज बस इतना ही...
कुलदीप ठाकुर













गुरुवार, 26 मई 2016

315..मुझे पंख चाहिए वैसे पंख जो मन के पास होते हैं :)

सुप्रभात मैं संजय भास्कर कई दिनों बाद हाजिर हूँ कुछ चुने हुए लिनक्स के साथ....!

Sushma 'आहुति'




Darshan Jangara




महेन्द्र श्रीवास्तव




Anupama Tripathi




यह दरख्त ना छाँव देता है ना राहत ...!
उपासना सियाग
 


धीरेन्द्र सिंह भदौरिया 

रश्मि प्रभा
 

नीरज गोस्वामी
 


इसी के साथ ही आप सब मुझे इजाजत दीजिए अलविदा शुभकामनाएं फिर मिलेंगे अगले हफ्ते इसी दिन सादर अभिवादन स्वीकार करें

-- संजय भास्कर

314....कुछ पल को बस छाया है सुस्ताने दो

सादर अभिवादन..
आज मौसम खराब है

बदली भी
बूंदा-बांदी भी
साथ-साथ तेज हवा भी..
जानलेवा ऊमस भर गई है..


मदन मोहन बाहेती...
भरे सरोवर में ,मै मीठा ,और विशाल सागर में खारा 
कभी छुपा गहरे कूवे में,कभी नदी सा बहता प्यारा 
कभी बादलों में भर उड़ता,कभी बरसता,रिमझिम,रिमझिम 
गरमी में मै भाप जाऊं बन,सर्दी में बन बरफ जाऊं जम 


अंशुमाली रस्तोगी....
मियां आज सुबह-सुबह ही आ धमके। न दुआ, न सलाम। न चेहरे पर मुस्कुराहट, न हाथ में छड़ी। धम्म से सोफे पर पसर गए। हाथ में थामा हुआ अखबार मेरे तरफ फेंकते हुए बोले- 'अमां, देख रहे हो समाज में क्या-क्या हो रहा है? आंख का पानी तो बहुत पहले मर गया था, अब तो दिलों से डर भी जाता रहा।' मैंने मियां द्वारा मेरी तरफ फेंके अखबार को हाथ में लेते हुए खबर को पढ़ा। खबर थी कि एक बीवी अपने सोते हुए शौहर की आंखों में फेवीक्विक लगाके किसी के साथ चंपत हो ली।

आशा सक्सेना....
डाली  कश्ती तभी  अपनी  
इतने बड़े भव सागर में 
हमें तूफान क्या डराएगा 
हस्ती हमारी देख कर
खुद ही शांत हो जाएगा |


दिग्विजय अग्रवाल....
महात्मा जी नें कहा, “बंधु! मेरा कौन शत्रु? शान्ति और सदाचार की शिक्षा देते हुए भला मेरा कौन अहित करना चाहेगा। मै स्वयं अहिंसा का उपदेश देता हूँ और अहिंसा में मानता भी हूँ।” नेता जी नें कहा, “इसमें कहाँ आपको कोई हिंसा करनी है। इसे तो आत्मरक्षा के लिए अपने पास रखना भर है। हथियार पास हो तो शत्रु को भय रहता है, यह तो केवल सावधानी भर है।” नेताजी ने छूटते ही कहा, “महात्मा जी, मैं आपकी अब एक नहीं सुनूंगा। आपको भले आपकी जान प्यारी न हो, हमें तो है। कल ही मैं आपको लायसेंस शुदा हथियार भेंट करता हूँ।”



चाहे जितने जुगनूँ तारे चमकें
आसमान में डंका चाँद का
पर दीपक की परिभाषा अभिन्न
तमकारा चीर सुख देता आनंद का

आज की प्रथम व शीर्षक कड़ी

भूख लगी है दो रोटी तो खाने दो
कुछ पल को बस छाया है सुस्ताने दो

हाथ उठाया जब बापू ने गुस्से में
अम्मा बोली बच्चा है समझाने दो

आज्ञाा देंं यशोदा को
फिर मिलेंगे...


बुधवार, 25 मई 2016

313...हवा से हवा में हवा भी कभी सीख ही लेना

सादर अभिवादन स्वीकार करें

आज का प्रस्तुति..
तनिक से कुछ अधिक ही
लम्बी हो गई है
किंकर्तव्यविमूढ़ थी
काफी से अधिक रचनाएँ छूट भी गई...


निर्मल गुप्त......
कुर्सी पर बैठते ही आदमी
घिर जाता है उसके छिन जाने की
तमाम तरह की आशंकाओं से
इस पर बैठ जाने के बाद
वह वैसा नहीं रह पाता
जैसा कभी वह था नया नकोर।



अपर्णा त्रिपाठी....
जाने लोग बदल गये, या मेरा नजरिया बदल गया
कुछ तो बदला है हवाओं में, कि मौसम बदल गया

कल तक रोये जिसके लिये, उसे पल मे भुला दिया
दो दिन में दिल की धडकने बदली, दिल बदल गया


प्रफुल्ल कोलख्यान....
ओ मेरी जाँ नहीं मैं जिंदा हूँ तेरे अंदर
चाँद को पता है जानता है समंदर

पूछो चाँद से देखो क्या कहता है समंदर
घुमड़ता है जुल्फों में जो आँसू का समंदर


दर्द दिल का ज़िंदगी में हम बता देते नहीं  
नैन में जज़्बात अपने हम  छिपा लेते कहीं
ज़ख्म इस दिल के दिखायें हम किसे जानिब यहाँ
शाम होते ही सजन महफ़िल सजा लेते कहीं


मनोज नौटियाल....
जला देना पुराने ख़त निशानी तोड़ देना सब
तुम्हारी बात को माने बिना भी रह नहीं सकता
मिटा दूं भी अगर मै याद करने के बहानों को
तुम्हारी याद के रहते जुदाई सह नहीं सकता ||


गिरीश पंकज....
पानी से जब बाहर आई
इक मछली कित्ता पछताई
पानी से जब दूर हुई तो
मछली तूने जान गँवाई
मछली बच गई मगरमच्छ से 
इंसानों से ना बच पाई



प्रथम व शीर्षक रचना..
डॉ. सुशील जोशी...
कभी तो माना 
कर जमाने के 
उसूलों को 
‘उलूक’ 
किसी एक 
पन्ने में पूरा 
ताड़ का पेड़ 
लिख लेने से 
सब कुछ 
हरा हरा 
नहीं होना ।

और अंत में क्षमा याचना
कुछ ब्लॉग में सूचना देते समय दिनांक का ध्यान नही रहा
बुधवार 25 मई 2016 के स्थान पर बुधवार 27 मई 2016
लिख भेजी हूँ

इज़ाज़त दे यशोदा को
कल फिर मिलते हैं....





मंगलवार, 24 मई 2016

312..क्या ये बहुत ज्यादा था !!!

सादर अभिवादन
भाई कुलदीप प्रशिक्षण प्राप्त करने
मुख्यालय गए हैं
आज की पढ़ी रचनाओं से चुनिन्दा सूत्र...


मैं प्रेम अगन के बीज खेत में नहीं उगाती 
मन्दिर-मस्जिद के झगड़े को संस्कार बना देखो
अपने पुरखों के जीवन इतिहास उठा देखो
कर्तव्य पथ पर बढ़ते कदमों को मत रोको
देशप्रेम के बढ़ते पथ पर मत टोको


ये 
शूल
बबूल
दंभ मूल 
विषाक्त चूल
निकृष्ट उसूल
चीर-चीर दुकूल


देखे
कहीं भा
दिशाहीन
यश का लोभ
भ्रम में पड़ा है
अधर में खड़ा है


मुसाफिर हूँ तो मैं सेहरा का, लेकिन 
चमन का रास्ता भी जानता हूँ 

ये दुनिया सिर्फ खारों से ख़फ़ा है 
मैं फूलों की खता भी जानता हूँ 

गीत संगीत की बातें हों और मन हिरन सा कुलाँचे भरता हुआ बचपन की वादियों में ना पहुँच जाए यह तो हो ही नहीं सकता ! हमारा बचपन ! बेहद प्यारा और न्यारा बचपन ! वह बचपन जब आसमान के सितारों को गाने सुनाने की होड़ में सुर कभी तार सप्तक से नीचे उतरते ही नहीं थे और सुबह की पहली किरण के साथ गीत संगीत के साथ जो तारतम्य जुड़ता था वह रात को निढाल हो नींद के आगोश में लुढ़कने के बाद ही टूटता था !


और अंत में मैं मंजू दीदी की रचना साझा कर रही हूँ..
मुट्ठी भर सपने
दो चार अपने  
ख़ुशी के चार पल
तुम्हारी याद नहीं, तुम
बस.…
जिंदगी से
इतना ही तो माँगा था
क्या ये बहुत ज्यादा था !!!

आज्ञा दें...
भाई विरम सिंह आ गए हैं
शायद कल की प्रस्तुति वे दें
सादर
यशोदा...






सोमवार, 23 मई 2016

311...हर लिखे लफ्ज़ में जी हुई नाजायज़ साँसों की कर्ज़दार हूँ

सादर अभिवादन..
पता नही हमारे श्रीमान जी
यकबयक एक प्रस्तुति प्रकाशित कर दी 
अपने ब्लॉग में
कभी करते देखा नहीं उन्हें..

चलिए चलें अभी तक की पढ़ी रचनाएं की ओर

यशोदा मैया वारी जाये
गोपियों संग रास रचाये  बंसी अधर लगाये
मोर पँख पीतांबर सोहे  मुरली मधुर  बजाये
ग्वालों संग खेलत खेलें कालिया नाग भगाये
गोपियों को वह  सतायें राधा को मोहन भाये

क्रोध काम मद लोभ सब, हैं जी के जंजाल
इनके चंगुल जो फँसा, पड़ा काल के गाल !

परमारथ की राह का, मन्त्र मानिये एक
दुर्व्यसनों का त्याग कर, रखें इरादे नेक !


इस जीवन में कुछ बातें हैं 
में जिन्हें बयां नहीं कर सकता 
इस जीवन में कुछ रेज़गी हैं 
क्योंकि, सब समान नहीं रहता 
इस जीवन में कुछ सपने हैं!


फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों की जांच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की ही पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है!


आज की शीर्षक कड़ी...
मेरे जाने के बाद
होती रहेंगी यूँ ही सुबहें
शामें भी गुजरेंगी इसी तरह
रातें कभी अलसाई सी स्याह होगीं

आज्ञा दें कल फिर आऊँगी
सायोनारा
यशोदा......


रविवार, 22 मई 2016

310......तुझे ये चाँद क्या तौफ़ीक़ देगा

सादर अभिवादन
आज से पाँच दिन
मेरा है सिर्फ..मेरा,,
भाई कुलदीप
प्रशिक्षण लेने प्रवास पर हैं
विरंम भाई ने आँखें नही खोली
अब तक
और संजय जी
व्यस्त हैं

आज को आनन्द का आगाज एक देशगीत से



शैल रचना...शैल सिंह
कहीं  लग  न  जाये  आग  घर  के चराग़ से
खा  न  जाएँ  मात  जयचन्दों  के  जमात से
वहशी आँधियाँ बहा न लें  अपने मिज़ाज से
जागो  नौजवानों  देश  के,अबेर न  हो जाये
भरके जोश-ज़िस्म खूने-जुनूँ  देर न हो जाये ,

जिन अंधेरों से बचकर भागता हूँ
हमदम हैं वो मेरे।
जिनके साथ हर पल मैं जीता हूँ
और मरता भी हूँ हर पल
कि आखिरी तमन्ना हो जाए पूरी।

लम्हों का सफर...डॉ. जेन्नी शबनम
इश्क़ की केतली में  
पानी-सी औरत और  
चाय पत्ती-सा मर्द  
जब साथ-साथ उबलते हैं  
चाय की सूरत  
चाय की सीरत  
नसों में नशा-सा पसरता है  


कुछ अलग सा.....गगन शर्मा
किसी काम को नीचा दिखाना, मेहनत-मशक्क्त करने वालों की तौहीन है
दादा भाई नारौजी गरीब परिवार से थे उस पर सिर्फ चार साल की उम्र में उनके पिता की मृत्यु के पश्चात उनकी माँ ने उन्हें कैसे पाला होगा इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है। हमारे पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बेहद साधारण परिवार से थे। लाल बहादुर शास्त्री को कौन नहीं जानता, पैसों की कमी की वजह से कई बार वे तैर कर नदी पार कर पढ़ने जाते थे। हमारे सबसे लायक राष्ट्रपति कलाम साहब को बचपन में अखबार का वितरण करना पड़ा था। ऐसे नाम कम नहीं हैं सरदार पटेल, गोपाल कृष्ण गोखले, जगजीवन राम, कामराज जैसे नेताओं का जन्म साधारण परिवारों में हुआ बचपन अभावों में बीता पर उन्होंने अपनी लियाकत से देश और अपना नाम ऊंचा किया

दादी हमारा इंतजार किस शिद्दत से करती थीं ये हम इसी तरह जान पाते थे कि उन्हें बाँहों में भरकर प्यार करना आता नहीं था, वो बस चुपके चुपके ख्याल रखते हुए प्यार करना जानती थीं. हमारे इंतजार में वो तरह तरह के अनाज को भाड में भुंजवा के रखा करती थीं. ज्वार, बाजरा, चना, लाई, मूंग, गेंहू, जुंडी और न जाने क्या क्या...सारा दिन मुंह चलता रहता था. 

उस छोटे से स्‍टेशन पर 
भीड़ को धकि‍याते 
एक हाथ में अपना ट्राली बैग थामे 
बेताब नजरों से 
जब भी ढूंढते दि‍खते थे मुझको 
मैं छुप जाती थी 
तुम्‍हारी नजरों की बेचैनी देख 
अनजाना सा सुकून मि‍लता था मुझे। 


आज की शीर्षक कड़ी..

रचना संसार...अखिल
मेरा हर जश्न हर त्यौहार है तू।
मेरी पूजा तू मेरी आरती है।।

तुझे ये चाँद क्या तौफ़ीक़ देगा।
तू ख़ुद उस चाँद से भी कीमती है।।

...........
दें इज़ाज़त यशोदा को
और सनिए ये गीत...



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