निवेदन।


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शनिवार, 30 अप्रैल 2016

288 सपने में कई रंग भरे हैं



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

दिन गुज़रते हैं फिर भी
वक़्त थमा  हुआ सा है.

ये एक अजीब मौसम है
शादियों का त्यौहार

 इसमें दिन और रात का हिसाब
आपस में गड्डमड्ड सा हो गया है



कर्कशा महिलाएं


मचाता उथल- पुथल इस कदर कि वह अब चींख कर कहना चाहती थी
,"गाय गुड खाती हैं,गाय गुड खाती हैं।
मगर जाने उसके होंठो को क्या हो गया
दबी भावनाओं के साथ फैलते चले जाते और निकाल देते
 ऐसे शब्द जो नही कहने होते और
न ही सुनने होते किसी को
" गाय गु..खाती है ,गाय गु.. खाती हैं



आप कहते हो तो चले जाते है


वो ख़्वाब-ए-खलिश या कशिश थी कोई ,
वो इस तरह ख़्यालों को बे-ख़्याल बनाते हैं।
कैसे कहूं अब यह बात मैं ।
वो नही बे-यक़ीन मगर ,
बे-यक़ीन का यक़ीन क्यों दिलाते है



खुल कर जिओ



जब भी कोई ऐसे व्यक्ति का विचार  , जो मेरे मन को दुखी करता है
तो मैं स्वतः ही उससे बाहर निकलने का प्रयास करती हूँ
और उसमें कामयाब भी हो जाती हूँ
सच मानिये मेरे पास ऐसा कोई भी नहीं है ,
जिसके साथ मैं अपनी परेशानियों को बाँट सकूँ ।
 मगर मैंने जीवन से सीखा है .............




अंत भला तो सब भला



इस बात को समय अपने साथ चलाते चलाते स्वीकारना सिखला देता है।
इस सफर में क्या खोया पाया क्या दिया लिया समस्त हानि लाभ को
इकठ्ठा कर इन सबका हिसाब किताब भले ही करके
हम अपने मन को व्यथित करें पर इससे हमारा कुछ भला नही होता
उलटे अपनी ही ऊर्जा का क्षरण करते रहते हैं हम घुट घुट कर



बात इतनी सोचना तुम



हाथ में उनके फ़कत तारीकियाँ ही रह गयीं
तुमसे पहले जो गये थे रोशनी को छोड़कर

ख़ाक पे आये तो आके ख़ाक में ही मिल गये
वो सफ़ीने जो कि आये थे नदी को छोड़कर

साथ देना चाहते हो साथ रहकर तो सुनो!
सब गवारा है मुझे धोखाधड़ी को छोड़कर




उसकी आँखों में



मन की धरती
सुनती है तुम्हारे शब्द
जो उपजते हैं समर्पण से
पूरी निष्ठा के साथ
जैसे पहरूए तैनात हैं
अपने प्राण देकर
सरहद के पक्ष में



सपने में कई रंग भरे


उस पहाड़ी पर चढ रही हूँ जहाँ से
बादलो में
छुपा सूरज अंधेरे
को खाकर ,
डकार मार
आसमान मे मुस्कराकर
ठहर जाता हैं
सपने में कई रंग भरे हैं




फिर मिलेंगे .... तब तक के लिए

आखरी सलाम




विभा रानी श्रीवास्तव


शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

287....समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा


जय मां हाटेशवरी...

आज सब से पहले....
राजा दशरथ का विलाप, उनकी आज्ञासे सुमन्त्र का राम के लिए रथ जोतकर लाना,
करने लगे विलाप दुखी हो, चिन्तन मन में श्रीराम का
शायद किसी पूर्वजन्म में, प्राणियों की, की थी हिंसा
गौओं का उनके बछड़ों से, अथवा तो विछोह कराया
इस कारण ही संकट, पाया कैकेयी द्वारा दुःख कितना
किन्तु मृत्यु न अब भी आती, क्लेश सहन करने पर इतना
प्राण नहीं निकलते तब तक, जब तक समय नहीं आता
अब बारी है चयनित लिंकों की...


चंद विचार बिखरे बिखरे
धीरज धरती सा के लिए चित्र परिणाम
दीन  दुनिया से है दूर तो क्या
अंतस की आवाज तो सुन सकता है
उस पर ही यदि अडिग रहा
उसका ही अनुकरण किया
तब आत्म विश्वास जाग्रत होगा
वही सफलता की कुंजी होगा |
आलेख "हिन्दुस्तानियों की हिन्दी खराब क्यों है?" बाते हिन्दी व्याकरण की
वाक्य तीन काल में से किसी एक में हो सकते हैं:
वर्तमान काल जैसे मैं खेलने जा रहा हूँ।
भूतकाल जैसे 'जय हिन्द' का नारा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दिया था और
भविष्य काल जैसे अगले मंगलवार को मैं नानी के घर जाउँगा।


अनावृष्टि
सुखा पीड़ित घूँट घूँट पानी के लिए तरसते रहे
लाखों लीटर पानी, एक क्रिकेट मैंदान पी गए ||४|
‘प्रसाद’ कहे सुनो नेता, जनता को ना यूँ मारो
तुम्हारे खेल कूद, जनता पर भारी पड गए ||५||

भीम बैठका एकांत की कविता है - प्रेमशंकर शुक्ल
भीम बैठका एकांत की कविता है, जो कुछ ज्ञात में, कुछ अज्ञात में सुनी जा सकती है। ध्यान से देखिए न आप, भीम का मौन, चटटानों को कितना अथाह बना चुका है। इन चटटानों
में भीम के तन-मन की आग भरी है। स्पर्श में कविता है। भीम का नाम सुनते ही, यहाँ के पेड, पाखी, कितने वाचाल हो गए हैं... आगे की कविता का ऑडियो के माध्यम से

बदन... एक ग़ज़ल
आरज़ू-ए-वस्ल वो, खूंखार आज बाकी नहीं,
साथ हो बस हमसफ़र, तन्हा पड़ा तरसता बदन।
कायदा संसार का इंसान पे लिपटता कफ़न,
फ़र्ज़ की अदायगी, दर-ब-दर भटकता बदन।

रीवाज पाल रखी..
मैं हि मैं हूँ।
न जाने
वो इख्लास की
छवि गई कहाँ
जहाँ अजीजो की
भी थी हदें




आज बस यहीं तक...
फिर मिलेंगे.
अंत में...
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे--दिनकर
धन्यवाद।




गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

286 ... बापू – यादों में नहीं सिर्फ जेबों में रह गए हैं

सभी साथियों को मेरा नमस्कार कुछ दिनों से व्यस्त होने के कारण ब्लॉगजगत को समय नहीं दे पा रहा हूँ ज़िंदगी की भागमभाग से कुछ समय बचाकर आज आप सभी के समक्ष उपस्थित हूँ पाँच लिंकों का आनन्द ब्लॉग में आप सभी का हार्दिक स्वागत है !!
गुरुवार का दिन है तो अब पेश है ................. मेरी पसंद के कुछ लिंक :))


बापू – यादों में नहीं सिर्फ जेबों में रह गए हैं
बापू
अच्छा ही हुआ
जो आप नहीं हैं आज
अगर होते तो
रो रहे होते खून के आंसू
गणतंत्र को गनतंत्र बना देने वाले
क्या रत्ती भर भी समझ पाये हैं !
मेरी धरोहर ब्लॉग पर ............यशोदा अग्रवाल :)

गज़ल के शेर बनाना हमें नहीं आता
ये माना साथ निभाना हमें नहीं आता
किसी को छोड़ के जाना हमें नहीं आता

वो जिसकी जेब में खंजर ज़ुबान पर मिश्री
उसी से हाथ मिलाना हमें नहीं आता

स्वप्न मेरे ब्लॉग पर ................ दिगंबर नासवा :)


हाँ मैं जिन्दगी हूँ ,                                
तुम्हे जीना सीखा दूंगी.....
घुल गयी जो..
तुम्हारी सांसो में तो....यक़ीनन..
तुम्हारी सांसो को महका दूंगी !
'आहुति' ब्लॉग पर .................... सुषमा वर्मा :)

'आइटम' कहते हुए लज्जा तो आनी चाहिए !
कोख में ही क़त्ल होने से बची कलियाँ हैं हम  ,
खिल गयी हैं इस जगत में झेलकर ज़ुल्मो सितम ,
मांगती अधिकार  स्त्री भीख नहीं चाहिए ,
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !

भारतीय नारी ब्लॉग पर .........शिखा कौशिक 'नूतन':)

खिड़की के चार सींखचों और
दरवाज़े के दो पल्ले के पीछे
इस बेतरतीब बिस्तर
और इन तकियों के रुई के फाहे में,
बिना रुके इस घुमते पंखे
और इस सफ़ेद CFL की रौशनी में,
हर उस शय में
जो मुझे इस कमरे के
चारो तरफ से झांकती है...
खामोश दिल की सुगबुगाहट ब्लॉग पर ...........शेखर सुमन :)


इसी के साथ ही आप सब मुझे इजाजत दीजिए अलविदा शुभकामनाएं फिर मिलेंगे अगले हफ्ते इसी दिन

-- संजय भास्कर

बुधवार, 27 अप्रैल 2016

285..रिटायरमेंट के बाद रनिंग, जिसने जीवन ही बदल दिया


सादर अभिवादन..

गरमी ने पकाना शुरु कर दिया
आम अमरूद सब पीले हो गए
पीले तो हाथ भी हो रहे हैं लड़कियों के
लाल हो गए चेहरे लड़कों के भी....

आज की पढ़ी रचनाएँ.....



सोये हुए क्यों? कवि उठो ! दर्प को दर्पण दिखाओ
नैराश्य ओढ़े भूमि गत जो, हाथ दे उनको उठाओ  
स्वार्थ की संकीर्णता में, इंसानियत जो आज भूले 
झकझोर कर उन पशु सरीखे मानवों में प्राण लाओ 


घर आँगन छत देहरी सूनी,
सूना है मन तुम बिन माँ !
तुम्ही नहीं तो 
क्या घर आँगन !
कैसी वर्षा , कैसा सावन !
बादल भर भर बरस रहे हैं ,
फिर भी धूल उड़ी है आँगन .


मन का मंथन में....कुलदीप सिंह ठाकुर
मैं करण हूं
मुझे याद है
अपनी भूलों पर
मिले हर श्राप
पर मैं मुक्त हो चुका था
हर श्राप  से।
मैंने तो बस
सब कुछ लुटाया ही था



सच को कारावास अभी भी,
भ्रम पर है विश्वास अभी भी ।

पानी ही पानी दिखता पर,
मृग आँखों में प्यास अभी भी ।


खामोशी के सागर में,
मुस्कान कंकड़ डाल |
खुशियों की लहरें,
बना जाता है वह |



ये है आज की शीर्षक रचना का अंश
कह रही है दौड़ो.. और फिट रहो

वाह !!
मशहूर रनर तनवीर काज़मी का लगातार 100 दिन दौड़ने का न्योता मिला है ! नियमों के अनुसार 30 अप्रैल को पहले रन से , जो कम से कम 2 km का होगा, शुरू करके 7 अगस्त तक हर हालात में चाहे भयंकर वारिश हो अथवा बीमार हों,अथवा सफर में हों, बिना नागा दौड़ना होगा !

आज यहीं तक
कल फिर मिलते हैं
यशोदा













मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

284....इंतज़ार करती मा


जय मां हाटेशवरी...


प्रस्तुति बनाने बैठा तो....
 मां पर बहुत कुछ लिखा हुआ पाया...
मुझे भी मुनव्वर राना के लिखे कुछ शब्द याद आ रहे हैं...
अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
अब चलते हैं आज के लिंकों की ओर...

कहा, हम चले जब मुहब्बत में गिरने ...
तेरे ख़त के टुकड़े गिरे थे जहां पर
वहीं पर निकल आए पानी के झरने
है आसान तलवार पे चलते रहना
कहा, हम चले जब मुहब्बत में गिरने


आईना
रोको नहीं सफर कि सहरा बहुत बड़ा है ,
देखा किया बहुत है ,पहरा हर आईने में
वो  टुकड़ा तुम्हारे दर्श में ही,होगा कहीं छुपा
नादाँ हो ढूंढते हो वही टुकड़ा  हर आईने में


जो भी है जैसा भी है बस बना रहे बनारस
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इसको समझने के लिये इसको जीना पड़ता है और जो एक बार बनारस को जी लेता है वो फिर इसे क्वोटो नही बनाना चाहेगा। यह मस्त मलंगो का शहर है इसे ऐसा ही रहना चाहिये



इंतज़ार करती माँ.....ब्रजेश कानूनगो
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सच तो यह है कि खूब जानती है माँ मेरी विवशता
खुद ही चली आती है कविता में हर रोज
सब कुछ समेटे अपनी पोटली में.
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एक विकट समस्या का सरल समाधान - जल
पानी के उचित संरक्षण के लिये एक बार फिर से हमको उन नदियों पर, जो सिर्फ बरसात में ही बहती दिखाई देती हैं, छोटे छोटे चेक डैम बना कर उनका पानी ताल तलैयों
और झीलों में जमा करना होगा ! सूख चुके कूओं में वर्षा का पानी डाल कर भूमिगत पानी के जल स्तर को उठाने का पूरा प्रयास करना होगा ! जी हाँ इसे ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग
कहते हैं ! इसके छोटे बड़े अनेक रूप हैं और हमें हर संभव तरीके से इन्हें अपनाना होगा ! मेरे विचार से मनरेगा जैसी योजनाओं के लिये उपलब्ध धन व संसाधनों को सिर्फ
ऐसी योजनाओं में ही लगाना चाहिए जिससे ग्राउण्ड वाटर का स्तर बढ़ाने में सहायता मिले ! सूझ बूझ से पानी का सही उपयोग कर हमें इसका अपव्यय भी रोकना होगा तब ही
हम इस समस्या से छुटकारा पा सकेंगे ! अभी भी देर नहीं हुई है और साधन व हल दोनों ही हमारे पास हैं बस हमें अपने इरादों को मजबूती देनी होगी और सही निर्णय लेने
के लिये एक सकारात्मक वातावरण का निर्माण करना होगा
 

भूलकर याद आ जाता है वह
भूल तो जाउँ उसे पर,
कैसे भुलाउँ उपकार उसका |
समीर  उसकी, नीर  उसका


अमर सागर झील : रांची से रेत के शहर तक – 6
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जब हम मंदि‍र पहुंचे तो ठीक बाहर दो बच्चे सड़क पर बैठे थे, जि‍न्‍होंने ढोल बजाकर हमारा स्‍वागत कि‍या। अंदर जाते ही सबसे पहले एक खूबसूरत फूलों वाला बागीचा
मि‍ला। अंदर भगवान आदि‍श्‍वर का दो मंजि‍ला जैन मंदि‍र है। बेहद खूबसूरत। यहां के स्‍थापत्‍य में हिन्दू -मुगल शैली का सामजंस्‍य है। मंदि‍र के गवाक्ष, बरामदों
पर उत्‍कीर्ण अलंकरण, झरोखें बेहद आकर्षक है।


मातृ-श्रृंगार
आओ माँ का रूप मित्रों,
करें गौरव से सुसज्जित।
नियम माँ के, जो सनातन,
काल चरणों में समर्पित ।।
शत्रुता अपनी भुलाकर,
रक्त का रंग संघनित हो ।


आज यहीं तक
फिर मिलते हैं





















सोमवार, 25 अप्रैल 2016

283..कपड़े शब्दों के कभी हुऐ ही नहीं उतारने की कोशिश करने से कुछ नहीं होता

नमस्कार....
विदा होने के कगार पर है..

ये अप्रैल भी..

प्रस्तुत है कुछ पढ़ा हुआ..जो पसंद आया








कुछ अलग सा में...गगन शर्मा
पानी की समस्या सिर्फ हमारी ही नहीं है सारा संसार इस से जुझ रहा है। पर विडंबना यह है कि अपने देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें अपने मतलब के सिवा और कुछ भी नज़र नहीं आता। धन-बल और सत्ता के मद में वे कोर्ट के आदेश की भी आलोचना से बाज नहीं आते और अपनी गलत बात पर अड़े रहते हैं...











दीपक बाबा की बक बक....दीपक बाबा
“फूट डालो और शासन करो” का महामंत्र जो उसने अपने पूर्वर्ती विदेशी शासकों से सीखा था वो वही रहेगा.
शासन करना बहुत आसन है, पर देश हित में कार्य करना बहुत मुश्किल ..










कंचन_प्रिया में....कंचन
अमावस की राते नहीं कट रहीं हैं
बिना चाँद के रात यूँ ढ़ल रही है
मेरी जान एक दिन तो दोगे सदा तुम
इसी आश में ज़िदगी कट रही है










मेरी सोच !! कलम तक ....अरुणा
चुरा लिए हैं कुछ पल मैंने ,बचपन की स्मृतियों से 
संग सखियों के व्यय करेंगे ,अपने स्मृति कलश भरेंगे 
स्मृतियों में गोदी दादी की ,हठ है और ठिनकना है 
मक्की की सौंधी रोटी संग ,शक्कर दूध और मखना है 


ये है आज की प्रथम  व शीर्षक रचना का अंश...











उलूक टाईम्स में ..सुशील कुमार जी जोशी
खाली दिमाग के
शब्दों को इतना 
नंगा कर के भी 
हर समय खरोचने 
की आदत से कहीं 
भी कुछ नहीं होता।

.....
आज्ञा दें दिग्विजय को...















रविवार, 24 अप्रैल 2016

282....जिसमें कुछ गधे होते हैं जो सारे घोडो‌ को लाईन में लगा रहे होते हैं

सादर अभिवादन...
रविवार 24 अप्रैल..
सोलह में चार माह और..
जुड़ गए..
मन को हो रहा है कि
पूरा लिख दूँ...
पर रुक गई मैंं...
आदरणीय राजकिशोर जी का आलेख पढ़कर
आप भी पढ़िए..और
लिखिए स्तरीय.....

आज की मेरी पसंदीदा रचनाओं के अंश.....
















सामान्यतः लेखक से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि 
वह पाठकों की आवश्यकताओं को संतुष्ट करे। कोई भी लेखक, सब से पहले, अपने लिए लिखता है न कि किसी और के लिए। 
साहित्य या रचना के क्षेत्र में ‘स्वांतःसुखाय’ का अर्थ यही है। लेकिन अपने सुख के लिए भी वही कुछ लिखा जाता है जिसकी समाज को जरूरत हो। अगर कोई लेखन समाज की किसी जरूरत को पूरा नहीं करता, तो वह लेखक की आत्म-रति है, जिसका उसे अधिकार है।

  किसी रचना को अगर पाठक नहीं मिले, तो इसके कम से कम दो अर्थ हो सकते हैं : रचनाकार के स्तर तक कोई पहुँच नहीं पाया या फिर वह रचना ही ऐसी थी जिसका गंतव्य रद्दी की टोकरी होती है। 









समभाव से बाँट रहा, सूरज सबको धूप.
ऊर्जा पोषित हम मनुज, खोलें मन का कूप..















तुम्हारे शब्दों का पैरहन
अब मेरे ख्यालों के जिस्म पर
फिट नहीं आता !
उसके घेर पर टँके
मेरे सपनों के सुनहरे सितारे









फिज़ाओ में 
खुशबू ,,
क्यों घुली है ,,
हवाओं में 
ठंडक क्यों हुई है 

आज की शीर्षक रचना एक अखबार की कटिंग..













गधा गधे के 
लिये भाषण 
घोड़ो के सामने 
दे रहा होता है 
किस तरह घोड़ा 
गधे की तीमारदारी 
में लगा होता है 
गधा ना होने 
का अफसोस 
किसी को 
नश्तर चुभो 
रहा होता है
......................
आज की पढ़ी हुई रचनाओं मे से चयनित पांच रचनाएँ
इज़ाज़त दीजिए यशोदा को..
कल तक के लिए..



शनिवार, 23 अप्रैल 2016

281~ ब्रजेश कानूनगो



यथायोग्य सभी को
प्रणामाशीष

तसल्ली की बात है कि
उम्मीद के कुछ परिंदे देशांतर से अभी भी
आते रहते हैं पर्यटन करने 
भरोसा यह भी है कि
संगिनी बजाएगी सितार
और कर लेगी किसी विलायती चिड़िया से नई दोस्ती ~ ब्रजेश कानूनगो





ऋतुराज ब्याहने  आ पहुँचा,
जाने की जल्दी आज पड़ी हो।
और कोकिला  कूँक-कूँक  कर, गाये मंगल ज्योनार,
मस्त पवन के संग-संग आया मधुऋतु का त्योहार ~ आनन्द विश्वास




आम का शर्बत और ठंडाई भाये
आइसक्रीम बहुत ललचाये रे
सजन एसी लगा दो
टप- टप-टप-टप पसीना टपके
सोलह श्रृंगार बहा जाय रे ~ कंचन प्रिया





अति उत्साहित था मेरा मन,
नजरों में बसा था तेरा तन।
नहीं सब्र था पलभर मुझको,
स्पर्श किया उद्धेलित हो तुमको।
सहलाया मैंने बड़े प्रेम से ~  जयन्ती प्रसाद शर्मा






ज़िंदगी जीने के दो ही तरीके हैं..पहला..
ऊपरवाले पर सबकुछ छोड़ दो और निश्चिंत हो जाओ...किस्मत जो भी दे, 
उसे खुशी-खुशी स्वीकारो..अच्छा मिले तो बढ़िया..नहीं मिले तो कड़वा घूंट समझ कर पी जाओ...
दूसरा..जीतोड़ मेहनत करो और अपना भाग्य खुद बनाओ...
दोनों में से कोई भी तरीका अच्छा या बुरा नहीं है ~ अंशु प्रिया प्रसाद







होड़ में दौड़ते पैकेटों के समय में 
शुक्रवारिया हाट से चुनकर लाई गयी है बेहतर मक्का
सामने बैठकर करवाई है ठीक से पिसाई
लहसुन के साथ लाल मिर्च कूटते हुए
थोड़ी सी उड़ गयी है चरपरी धूल आँखों में
बड़ गई है मोतियाबिंद की चुभन कुछ और ज्यादा ~ ब्रजेश कानूनगो


ब्रजेश कानूनगो की कविता को जरुर से पढ़ें
समझेंगे मैंने 10 दस लिंक्स लगाये



फिर मिलेंगे ..... तब तक के लिए
आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव


शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

280....व्यथित धरती माता (विश्व पृथ्वी दिवस २२ अप्रैल पर )

जय मां हाटेशवरी....


आज है विश्‍व पृथ्‍वी दिवस। क्पृथ्वी दिवस पूरे विश्व में 22 अप्रॅल को मनाया जाता है। पृथ्वी दिवस को पहली बार सन् 1970 में मनाया गया था। इसका उद्देश्य लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील
बनाना था।
महात्मा गाँधी पृथ्‍वी  का महत्व बताते हुए कहते हैं...
 पृथ्वी स्वर्ग से भरी हुई है …लेकिन यह केवल वही देख पाता है जो अपने जूते उतारता है....
अब देखिये आज के लिये मेरे द्वारा चुने हुए कुछ लिंक....

हे निर्दयी,कृतघ्न ,स्वार्थी मानव तुझसे श्रेष्ठ तो पशु-पक्षी हैं. तू गुणहीन होने के साथ बुद्धिहीन भी है, क्योंकि जिस पृथ्वी और उसके संसाधनों के कारण तेरा अस्तित्व है उनको ही विनष्ट कर तू खिलखिला रहा है ,आनंद मना रहा है स्वयम को जगत  का सबसे बुद्धिमान मानने वाले जीव, तेरी मूढमति पर तरसआता है  मुझको .तू जिस अंधाधुन्ध  लूट खसोट की प्रवृत्ति का शिकार हो स्वयम को समृद्ध और अपने आने वाली पीढ़ियों का भविष्य स्वर्णिम बनाना चाह रहा है , उनकी राहों में ऐसे गड्ढे खोद रहा है ,जिसके लिए वो तुझको कभी क्षमा नहीं करेंगें.विकास की दौड़ में भागते हुए तू  ये भी भूल रहा है कि आगामी पीढियां तेरे प्रति कृतज्ञता का  अनुभव नहीं
करेंगी अपितु तुझको कोसेंगी कि तेरे द्वारा  उनका जीवन अन्धकारमय बना दिया ,उनको कुबेर बनाने के प्रयास में , उनको जीवनोपयोगी वायु,जल से वंछित कर दिया.सूर्य
के  प्रचंड ताप को सहने के लिए विवश कर उनको कैंसर ,तपेदिक जैसे रोगों का शिकार बना डाला.  हे मानव मत भूल , तेरे  कृत्यों के ही कारण गडबडाया  समस्त ऋतु चक्र......


अच्छा प्रयास
नई सरकार बनने के बाद अब तक तीन ऐतिहासिक चीज़ें जो किसी भी कारण से बाहर थी वापस देश आ चुकी हैं !
अगर भारत कोहिनूर लाने में सफल रहता है तो एक और सफलता होगी |


खून अपना सफ़ेद जब होता
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चोट लगती ज़ुबान से ज़ब है,
घाव गहरा किसे नज़र होता।
बात को दफ्न आज रहने दो,
ग़र कुरेदा तो दर्द फ़िर होता।



जल
तपती धूप
जल कहाँ से लाऊँ
कुछ सूझे ना |
प्यास न बुझे
शीतल जल बिन
अब क्या करे |

नन्हे नन्हे से बिंदु ...... ????
कभी कभी ये भी सोचती हूँ कि चुनाव के समय इन नन्हे से परावलम्बित दिखने वाले बिंदुओं को चुना ही क्यों जाता है  .... शायद आत्ममुग्धता की स्थिति होती होगी वो
कि हम कितने सक्षम हैं कि इन बेकार से बिंदुओं को भी एक तथाकथित सफल ढाँचे में फिट कर दिया  .... पर कभी उन बिंदुओं से भी पूछ कर देखना चाहिए कि हमारे निर्मित
ढाँचे में फिट बैठने के लिए उन्होंने भी तो अपने अस्तित्व पर होने वाली तराश या कहूँ नश्तर के तीखेपन को झेला ही है  .... हाँ उन्होंने अपने घावों की टपकन नहीं
दिखने दी और हमारे कैसे भी ढाँचे में फिट हो गए ,इसके लिए उनके अस्तित्व को एक स्वीकार तो देना ही चाहिए  .....

संघमुक्त भारत का जादुई स्वप्न
एक और पुरानी कहावत है कि अगर आप किसी का लगातार विरोध करते हैं तो कई बार आप उसकी ही तरह हो जाते हैं । बीजेपी का विरोध करते करते नीतीश कुमार भी बीजेपी के
नारों के अनुयायी बनते नजर आ रहे हैं जब वो बीजेपी के नारे कांग्रेस मुक्त भारत की तर्ज पर संघ मुक्त भारत का नारा बुलंद करते हैं । दरअसल नीतीश कुमार यह बात
बखूबी जानते हैं कि बीजेपी को असली ताकत संघ से ही मिलती है । संघ से बीजेपी को ना केवल वैचारिक शक्ति बल्कि कार्यकर्ताओं की ताकत भी हासिल होती है जो चुनाव
दर चुनाव पार्टी को मजबूत करती नजर आती है । संघ भले ही प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में ना हो लेकिन बीजेपी के गठन के बाद से वहां एक सहसरकार्यवाह होते हैं जो
पार्टी और संघ के बीच तालमेल का काम देखते हैं । इन दिनों ये काम कृष्ण गोपाल देख रहे हैं । सबसे पहले 1949 में के आर मलकानी ने संघ के सक्रिय राजनीति में आने
की वकालत की थी । तब मलकानी ने लिखा था – संघ को सक्रिय रूप से राजनीति में शामिल होना चाहिए ताकि राजनीति की षडयंत्रों को नकारा जा सके । इसके अलावा सरकार
की भारत विरोधी नीतियों का विरोध किया जा सके । बावजूद इसके संघ सक्रिय राजनीति में तो नहीं उतरा बल्कि परोक्ष रूप से राजनीति से गहरे जुड़ता चला गया ।  नीतीश
कुमार के बयान को संघ के इस अप्रत्यक्ष ताकत को काउंटर करने के आलोक में देखा जाना चाहिए ।
नीतीश कुमार को ये भी लगता है कि बिखरी हुई कांग्रेस और राहुल गांधी के नाम पर सभी दल बीजेपी के खिलाफ एकजुट नहीं हो सकते हैं और उनकी केंद्रीय राजनीति के सपने
को पूरा करने के लिए ये सबसे मुफीद वक्त है । संघ पर हमला बोलकर नीतीश कुमार अपनी सेक्युलर छवि भी पेश करना चाहते हैं । पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में
मंत्री और फिर करीब दस साल तक बीजेपी के साथ बिहार में सरकार चलानेवाले नीतीश कुमार संघ पर हमला कर अपनी इसी सेक्युलर छवि को और गाढा करना चाहते हैं ।

आज के लिये बस इतना ही...
कल फिर यहां से आगे....
विभा आंटी की पसंद...
धन्यवाद।

 


गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

279....सच्चाई मिटती नहीं, बनती है सरताज

सादर अभिवादन स्वीकारें
तपन सच मे असहनीय होता जा रहा है
अप्रैल में ये हाल है तो...
मई और जून की कल्पना कीजिए...

आज की चुनिन्दा रचनाओं के अंश....


खुदा कसम अगर वो बेनकाब हो जाये 
बरसो पुराना सच मेरा ख्वाब हो जाये 











कभी सोचता हूँ
तो याद आता है मुझे
अपना अक्श,
गड्ड मड्ड,
आकार रहित,
बिना आँख कान नाक ,
एकदम सपाट चेहरा













खून अपना सफ़ेद जब होता,
दर्द दिल में असीम तब होता।

दर्द अपने सदा दिया करते,
गैर के पास वक़्त कब होता।



अब किस्मत का दुखड़ा क्या रोऊँ,
कल सब जो खुसी में सरीक थे मेरी
और मैं कहीं और ही था
गुजरे कल के गहरे समुन्दर में डूबा हुआ











वर्तमान में आम इंसान को दिन प्रतिदिन जल के घटते हुए स्तर एवं प्रदूषण की भीषण समस्या का सामना करना पड़ रहा है ! ज़मीन के नीचे का जल स्तर कम वर्षा के कारण हर रोज़ घट रहा है

ये आज की शीर्षक रचना की कुण्डली










अच्छाई की राह पर, नित करना तुम काज 
सच्चाई मिटती नहीं, बनती है सरताज 
बनती है सरताज, झूठ की परतें खोले 
मिट जाए संताप, मौन सी सरगम डोले 
कहती शशि यह सत्य, प्रेम से मिटती खाई 
दंभ, झूठ का हास, चमकती है सच्चाई।

इज़ाज़त दीजिए यशोदा को
फिर मिलेंगे...


बुधवार, 20 अप्रैल 2016

278...जाने क्यूँ सब कुछ भूल जाता है

सादर अभिवादन...
गरमी रायपुर में ही है
ऐसा कहा जा रहा है
रायपुर वासियों के द्वारा...
भारत ही एकमात्र देश है
जहां छः ऋतुएँ होती है...
जो परिपक्व कर देती है
मनुष्य के मस्तिष्क को....

चलें...आगे बढ़ें..गरमियां तो आते-जाते रहती है....

जीवन भर
देखे उसने
सिर्फ एक जोड़ी पैर
और सुनी
एक रौबदार आवाज-
"चलो"


हम भोजन के बिना तो दो तीन दिन रह सकतें हैें लेकिन पानी की प्यास अगर अभी लगी तो अभी चाहिए । हद से हद एकाध घन्टे का विलम्ब सहा जा सकता है , उससे ज्‍यादा नहीं क्योंकि पानी की प्‍यास होती ही ऐसी है । जल ही जीवन है यूँ ही नहीं कहा जाता है । 


टूटे हुए तारे।
चलो, फिर इक बार बुने वही ख़्वाबों 
की दुनिया, कुछ रंगीन धागे 
हो तुम्हारे, कुछ रेशमी 
अहसास रहें 
हमारे।



तुम्हारे 
आंसुओं की वजह 
में ,,मेरा वुजूद ,,
मेरी ज़िंदगी थी अगर ,,,
यह राज़ तुमने मुझे 
पहले अगर बता दिया होता 
सच ,,खुद को खत्म कर लेते 


ये है प्रथम व शीर्षक कड़ी

जिंदगी  
मैं सोचती हूँ  
जब भी तुम्हें  
तो फिर  
जाने क्यूँ सब कुछ  
भूल जाता है 
...........
आज्ञा दें...
दिग्विजय







मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

277.....दिन गरमी के आ गए

जय मां हाटेशवरी....

मैं पुनः उपस्थित हूं...
एक लंबे अंतर्ाल के बाद....
कविता  से ज्यादा प्यार मुझे कहीं नही मिला..
ये सिर्फ वही बोलती है, जो मेरा दिल कहता है…

अब देखिये मेरी पसंद में...
ये चुने हुए लिंक...
गजल
s200/Rajesh4
जिंदगी में दिल से बढ़ कर  हो गयी  दौलत अभी।
नाते-रिश्ते इस जहां के जब इसी पर टिके हैं अभी।।
होठों पर नकली मुसकानें,  दिल में नकली प्रीति ।
नकली चेहरा सामने रखते जग की यह है  रीति।।
ऐसे में  सच क्या  पनपेगा आप  ही बतलाइए ।
जब स्वार्थ ही दिल में पलेंगे आप ही बतलाइए।।


कैसा अरे! श्रृंगार है
Love poems shayari
सादगी है देह की
                 जो रूप का सिरमौर है
सुन्दरी सुलोचना जिस-
               की ना उपमा और है
और मिलन होगा कहां
                     अधर स्वंय अभिसार है


जनाब नीतीश कुमार कांग्रेस मुक्त भारत और संघ मुक्त भारत का यकसां अर्थ नहीं है
संघ प्रतीक है राष्ट्रीय गौरव ,अक्षुण भारतीय संस्कृति और उस सनातन धारा को जो युगों से प्रवहमान है। किस माई के लाल ने अपनी माँ का दूध पीया है जो भारत से
संघ का सफाया कर सके।
जनाब नीतीश  कुमार कांग्रेस मुक्त भारत और संघ मुक्त भारत का यकसां अर्थ नहीं है। कांग्रेस भ्रष्ट तंत्र का प्रतीक बन चुकी थी उसे अपनी मौत मरना ही था ,कांग्रेस
तो  राजनीतिक पार्टी है ,संघ तो भारत को जोड़ने वाली एक सांस्कृतिक संघटन है ,कड़ी है सांस की धौंकनी है जन मन  की।
 

कविता - काव्य कोकिला - मालिनी गौतम
गाना चाहती हूँ गीत मेरी आजादी के, जमीन के साथ-साथ आसमान में भी पसारना चाहती हूँ मेरी जड़ें,..... लेकिन........मेरी फैलती हुई जड़ें शायद हिला देती हैं उनके
सिंहासनों को....., मेरे आजादी के गीत शायद उँडेलते हैं गरम-गरम सीसा उनके कानों में.... तभी तो घोंट दी जाती है मेरी आवाज,... .......................... सदियों
पहले भी, एक थेरियस ने किया था बलात्कार फिलोमेला का काट डाली थी उसकी जबान. अपने देवत्व के बलबूते पर बना दिया था उसे ‘काव्य-कोकिला’ .............बिना जीभ
की ‘काव्य-कोकिला’ सिलसिला आज भी जारी है आज भी मैं हूँ जीभ बिना की कोकिला ताकि यूँ ही सदियों तक गाती रहूँ और कोई न कर सके अर्थघटन मेरे काव्य का...
कुण्डलियाँ -- दिन गरमी के आ गए
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नभ में बनकर भाप, तपिश से दिन घबराये
लाल लाल तरबूज, कूल, ऐसी मन भाये
 कुदरत का उपहार,  वृक्ष की शीतल नरमी 
रसवंती आहार, खिलखिलाते दिन गरमी .



मेरा वजूद तब मुकम्मल नहीं होता
ये बरसात धूप हवायें सब हवा है
जब तलक तू मेरे शहर में नहीं होता।
शाम रोशन कभी हो नहीं पाती
जो तू चरागों विस्मिल नहीं होता।
मैं पतंगा हूँ, तेरे होने से मै हूँ हमेशा
जो तू नहीं होता तो मैं नहीं होता।


आज  बस यहीं तक...
फिर मिलते हैं...



कुलदीप ठाकुर


सोमवार, 18 अप्रैल 2016

276....वाक़ई ! बाज़ार में ये बालियाँ सोने की हो जायेंगी

सादर अभिवादन

सीधे चले रचनाओं की ओर....

किसी न किसी बहाने से, कोई पुकारता नहीं,
आखों से तकरार अभी होती नहीं,
गुस्से से प्यार कोई करता नहीं,
झगडे और नोक-झोक में खोती नहीं,
झूठ-मुठ का गुस्सा अभी होती नहीं,
तेरे बिन मेरे दिल को थोड़ा बुरा- सा लगता है



वो तेरा सपनों में आना, आकर मुझको रोज सताना
मगर हकीकत में क्यूँ लगता झूठा तेरा प्यार जताना?
दिल में है संदेह तुझे मैं दुश्मन या मनमीत कहूँ?
तू ही बता कि इस हालत में कैसे तुझसे प्रीत करूँ?


"दद्दू बाबा के चरणों में जगह-जगह छेद हो गए हैं।" घीसू ने दुखी हो बताया। 
दद्दू भी दुखी हो गए, "बेटा अभी कुछ रोज पहले तो बाबा के चरण ठीक-ठाक थे।



झरोखा में...निवेदिता श्रीवास्तव
" पूर्ण विराम "  ... ये ऐसा चिन्ह है जो वाक्य की पूर्णता को दर्शाता है  । लगता है शायद उस स्थान पर आकर सब कुछ समाप्त हो गया है । यदयपि उन्ही बातों को शब्दों के मायाजाल से सजा कर कुछ अलग - अलग रूप देकर अपने कथ्य को थोड़ा विस्तार देने का प्रयास तब भी होता रहता है ।





आज की शीर्षक कड़ी...

आगत का स्वागत में...सरोज
बैसाख के अंगने में
गेहूं की बालियाँ
पककर सुनहली हो चलीं हैं ....
वाक़ई ! बाज़ार में
ये बालियाँ सोने की हो जायेंगी
ललचाता सा मेरा किसान दिल
हिदायती लह्ज़े में मुझसे कहता है
"रोज़! सहेज लेना सोने की बालियाँ
बेटी के ब्याह को काम आएँगी !

आज्ञा दें..फिर मिलेंगे
यशोदा





रविवार, 17 अप्रैल 2016

275...किसने ऐसा किया इशारा था

सादर अभिवादन...
सजय भाई
हद कर दी आपने...
.....

चलिए चलें तड़ाक फड़ाक प्रस्तुति की ओर..

अभिव्यक्ति मेरी में.. मनीष
किस गम के गीत गाऐं ,किसको वयाँ करें।
शिकवों का जाम आखिर ,कब तक पिया करें।।


बस यू ही में.. पूनम
एक नाम..
एक आवाज़..
एक एहसास..
एक पहचान..


अंदाज़े गॉफिल में ..चन्द्र भूषण जी
हैं ख़रीदार भी बेशुमार आदमी
बेचता है धड़ल्ले से प्यार आदमी


अनुभूतियों का आकाश में..महेश कुशवंश
मैं भूंखा हू
अए  रोटी तुम कहाँ हो  ?
कब से नहीं देखा तुम्हें साबूत
बस टुकड़ों मे ही दिखाई देती हो


शीर्षक कड़ी...













मेरी धरोहर में..डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री
किसने ऐसा किया इशारा था
ख़त मेरा था पता तुम्हारा था

इज़ाज़त दें
यशोदा
सादर



शनिवार, 16 अप्रैल 2016

274 ... बँधी हुई ख़ुशबू ...


सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

हथियार से ज़्यादा
छीन रही ज़िन्दगी
जीवन की रफ़्तार
रहो होशियार..
~सीमा स्मृति

55-/15

आज जैसे शोक का मौसम दिखाई देने लगा था.
मेरी आँखों के सामने अन्धकार सा महसूस होने लगा.
मेरे घर में लगे बिना पेंट किया हुआ दरवाजा,
घर के सामने बना मंदिर, घर का उजड़ा आँगन भले ही
वहां खूबसूरत फूल खिले हुए हो, घर में बूढ़ी दादी और
सब कुछ सामने दिखाई देने लगा था
 परन्तु अधेरा हो ही चला था.


49th Day

बस हममें और निर्जीव वस्तुओं में एक फर्क ये है कि
 निर्जीव वस्तुएँ चुनाव नहीं करतीं लेकिन हम चुनते हैं।
हम खुद decide करते है कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा।
 इसी आधार पर हमारे गुण विकसित होते हैं
 जिनके आधार पर हमारी destiny , यानि हमें उन particular properties के साथ
किस जगह होना चाहिए ,ये condition खुद-ब-खुद बन जाती है ।



April 18, 2015


( रोटी बनाने के लिए
माँ ,बहन घर में हैं और
पत्नी भी लायी गयी है
रोटियाँ बनाने की खातिर। )…
औरत के मौजूद रहते
आदमी का रोटियाँ बनाना शर्म है
और आदमी के होते
औरत का रोटियां न बनाना जुर्म है।


May 9, 2015

वो चिट्ठी नसीहत से ख़त्म होती थी
"परीक्षाएं आ रही हैं, चिंता मत करना
खूब मन लगाकर पढ़ाई करना
बादाम भेज रही हूँ, थोड़ी खा लेना"

कागज़ के हर कोने में
नसीहतें लिखी होती थीं
हाशिए पर फ़िक्र के दस्तख़त थे


10 अप्रैल 2016


ईमानदारी और साख के लिए गहरा संकट खड़ा कर दिया है।
बाहर वालों को घर आंगन साफ सुफरा करने के लिए
झाड़ु हाथ में अवतरित हैं और बाजार में खड़ा होकर
 हांक लगा रही हैं कि घूसखोरी तो हुई है क्योंकि घूस दी गयी है



दिसम्बर 25 /2015

चेहरे पे ; बदन बुद्धि पे ; क्यूं नाज हम करें ;
दुनियां से गये ; जब गये ; समूल गये हम !

रहने के लिये देश ; शहर ; घर बनाया फिर ;
औक़ात में रहने की अदा ; भूल गये हम !



April 9 / 2016


दिल की सरहद पे
लड़ती हूँ जंग,खुद से
हारती रहूँ खुद से
करती दुआ रब से।

ज़िंदगी का ये मोड़, कबूल मुझे
सफ़र होगा कितना लम्बा
अब नहीं फिक्र मुझे
हर लम्हे में मिल रहा सकून मुझे।



फिर मिलेंगे ...... तब तक के लिये
आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

273...सबको समझा इसके उसके घर की फड्डा फड्डी

सादर अभिवादन...
कल ही आए
सब-कुछ
ठीक-ठाक करके

जुट गए खेल में..
और खेल भी कौन सा...
कबड्डी...
दूसरों के घर में घुसकर
मार-काट करके
वापस आप अपने घर आए
तो.... वही है कबड्डी....

बहते हुये ख़ुद को सम्भालना बहुत मुश्किल है.
मगर सम्भाल ले जो ख़ुद को बहुत बड़ा काम है..

आज रामनवमी है...
ये राम भी न...
बड़ा खिलाड़ी है कबड्डी का
रावण के घर में घुसकर..
तहस-नहस करके
वापस अयोध्या आ ही गए

चलिए चलते हैं...बातें तो होती रहेंगी.....

नीत-नीत में....नीतू सिंघल
हरिहरि हरिअ पौढ़इयो, जो मोरे ललना को पालन में.,
अरु हरुबरि हलरइयो, जी मोरे ललना को पालन में.,

बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी,
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में.....


रूप-अरूप में....रश्मि शर्मा
सूखी पत्ति‍यों सी
बि‍खर रही थी
उसने बुहारकर समेटा
सारा वजूद
जैसे सूखती जिंदगी में


मेरा हमसफर में....पी.के. शर्मा तनहा
ज़िंदगी से जंग भी, निरन्तर जारी है !
मगर ज़िंदगी मुझसे, कभी ना हारी है !!

दर्द ने भी पीछा, छोड़ा नहीं आज तक !
आँख भी आँसुओ, की बहुत आभारी है !!


मन की लहरें में....अरुण खाडिलकर
मिची आँखों के सामने सपने, खुली आँखों के सामने भी
यही वो हकीकत है शायद जो किसी नींद से गुज़रती रहती
********
हर वक्त रुका ठहरा, लगता के चले हरदम
आंखों में न जो आये....पूरी कुदरत एकदम


ब्लॉग विक्रम में....आनन्द विक्रम त्रिपाठी
कन्धे से कन्धा
मिला चलें हैं
अबकी बारी
ठान लिए है
अपना हक
लेकर रहेंगे
नहीं किसी की
बात सुनेंगे


और आज की शीर्षक रचना का अंश

उल्लूक टाईम्स में....डॉ. सुशील जोशी
कौन देख रहा
किस ब्रांड की
किसकी चड्डी
रहने दे खुश रह
दूर कहीं अपने
घर से जाकर
जितना मन चाहे
खेल कबड कबड्डी

********
आज यहीं तक...
आज्ञा दें दिग्विजय को...











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