निवेदन।


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शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

1931.. दिठौना

सभी को यथायोग्य

प्रणामाशीष

'काल्हि से दशई शुरू हो जाई आजी के रात सभन बचवन के पैरन के तलवा में अउरी नाभि में काजल के टिका लागी'

दशहरा से शुरू हो जाता था नजर लगना, डायन की बातें, घर साफ रखना मकड़ी के जालों की बातें...। समय के साथ प्रगतिशील हम होते गए .... 

अक्टूबर भर मननेवाला हैलोवीन में जिक्र है उन्हीं बातों की.. मौज मस्ती के रूप में.. 


प्रकृति अपना लिबास बदल रही है.. उदासी क्यों घेरे.. झड़ने के पहले जब यह नज़ारा हमें देखने को मिले.. जी कर आया लगाने को

दिठौना

देती माँ खुशियों के पल !

झुकता सृष्टि का खल बल ! 

पहला कदम अंगुली के बल !

होने न दे हमको निर्बल !

न समझ अपने को बौना ;

खो समय क्यों रोते  हो ना

काजल लगाना नहीं भूलना

काजल, आंखों में डाला जाता है, जैसे कजरा मोहब्‍बत वाला...या आंजा जाता है और दिठौना हुआ तो माथे या गाल पर टीका जाता है, फिर यह कौन सा काजल आ गया, लगाने वाला! खैर, अंदर के पूरे पेज पर अकेला संक्षिप्त सा वाक्य- 

संबोधन से परे..

जोड़े दिन भर की दिहाड़ी, समेटे स्वप्न,

जब लौट रहे होते हैं खेतिहर, विहंग, मजूर।

औ' रूप निहारता कोई जड़ देता है दर्पण को दिठौना।

उठो और जागो

मल-मल निर्मल कर तन मन दे लाल ललाट दिठौना माँ .

धरती काँटों पर सोये, दे आँचल हमें बिछौना माँ .

लुट-लुट, घुट-घुट स्वयम हमें दे, भोजन और खिलौना माँ .

रक्त पिलाती दूध पिलाकर, हमको करे सलोना माँ.

बहनों से बात

पड़ोसन को 'आँटी' न पुकारें , उनसे भी ज़रा -

अपनों जैसा ही कोई 'रिश्ता' बना लें ,

        भाभी, दीदी, बहना, चाची, मौसी या बुआ ,

         बूढ़ी हों तो दादी-नानी कह कर बुला लें |

रैन बसेरा

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पुनः मिलेंगे...

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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

1930 ...कितना और मुझे चलना है

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।

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स्वागतम् स्वागतम्
शीतल शरद सुस्वागतम्।


धान चुनरी,कँवल,कुमदिनी,
नीलकुंरिजी  मनभावनम्।
मगन किलके अलि,तितली
खंजन खग गुंजायनम्।
शरद विहसे चंद्रिका महके
सप्तपर्णी  सम्मोहनम्।
 धरणी चूमे ओस मुक्ता
शिउली झरे अति पावनम्।

स्वागतम् स्वागतम्
शीतल शरद सुस्वागतम्।

#श्वेता

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आइये आज  की रचनाओं का आनंद लेते हैं-

कितना मुझे और चलना है ?


कितना और अभी बाकी है, 
इन श्वासों का ऋण आत्मा पर !
किन कर्मों का लेखा - जोखा,
देना है विधना को लिखकर !
अभी और कितने सपनों को,
मेरे नयनों में पलना है ?
कितना और मुझे चलना है ?




जागृत, इक विश्वास, कि उठ खड़े होंगे हम, 
चुन लेंगे, निर्णायक दिशा ये कदम,
गढ़ लेंगे, स्वप्निल सा इक धूमिल आकाश,
अनन्त भविष्य, पा ही जाएगा अंत,
ज्यूँ, पतझड़, ले आता है बसन्त!
चिंगारी, हो उठती है ज्वलंत!


लालसा का
 दास मानव 
नाम की बस चाह होती 
अर्थ के संयोग से फिर 
भावना की डोर खोती 
द्वेष की फिर आँधियों में 
मूल्य के उपवन उजड़ते।।




गणित में 
एक तरफ शून्य होता है 
दूसरी तरफ अनंत 
एक तरफ कुछ नहीं 
दूसरी तरफ सब कुछ पूर्ण 
पर जरूरत का सिद्धांत 
तो अपूर्णता का सिद्धांत है 
क्यूंकि जरूरतें अनंत है  
पर जरूरतें अपूर्ण हैं 
अनंत भी हैं और अपूर्ण भी हैं




एक द्वेष की फिर चिंगारी
रिश्ते पल में सुलगते।
नारी के आँचल में पलकर
नारी तन ही कुचलते।

प्रीत दिखावे में लिपटी
जिव्हा भी मिसरी बोले।
पीछे पीठ पर घात करें
और जहर ज़िंदगी घोले।
...
कल मिलिए विभा दीदी से
श्वेता
सादर


 

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

1929...लोकप्रिय पटकथाएँ तो अंधेरे में ही लिखी जाती है...

शीर्षक पंक्ति : आदरणीया अमृता तन्मय जी की रचना से।

सादर अभिवादन। 

आइए आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

हम और अस्तित्व....अनीता


जैसे शंकर की जटाओं में सिमट जाती है गंगा

बहती है वह जग की तृषा हरने

गौरी धरती है भीषण काली का रूप

सहना होगा जिसे असुरों का आक्रमण

हजार विरोध भी, पर वहाँ कोई नहीं होगा


मान लेते हैं हमारी हार है ...दिगंबर नासवा

मेरी फ़ोटो

सच परोसा चासनी के झूठ में
छप गया तो कह रहा अख़बार है
 
चैन से जीना कहाँ आसान जब
चैन से मरना यहाँ दुश्वार है


क्षणिकाएँ .....अमृता तन्मय

Amrita Tanmay

लोकप्रिय पटकथाएँ तो

अंधेरे में ही लिखी जाती है

हर झूठ को सच

मानने और मनवाने से ही

अभिनय में कुशलता आती है .

लॉकर में बंद... हर्ष वर्धन जोग


तब तक दो बज चुके थे. मेजर साब अपनी मैडम को लेने गए. मैडम नदारद. वो भांप गए की गड़बड़ हो गई है. जोर जोर से चिल्लाने लगे. शोर मचा तो ब्रांच का बचा खुचा स्टाफ तहखाने में इकट्ठा हो गया. चाबी वाले मैनेजर साब तो गए पर हैड केशियर नदारद! वो तो घर के लिए निकल चुका था. तभी किसी ने बताया की वो अक्सर सड़क के दूसरी तरफ बस लेता है शायद अभी भी खड़ा हो?

 

एक रेलवे स्टेशन, जो ग्रामीणों के चंदे से चलता है....गगन शर्मा

 

पर ना ही रेलवे के निजीकरण को ले कर विलाप करने वाले मतलबपरस्त, ना हीं मानवाधिकार का रोना रोने वाले मौकापरस्त और ना हीं सबको समानाधिकार देने को मुद्दा बनाने वाले सुविधा भोगी कोई भी तो इधर ध्यान नहीं दे रहा ! शायद उनके वोटों को ढोने वाली रेल गाडी इस स्टेशन तक नहीं आती 

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे अगली प्रस्तुति में। 

रवीन्द्र सिंह यादव

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