सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
'काल्हि से दशई शुरू हो जाई आजी के रात सभन बचवन के पैरन के तलवा में अउरी नाभि में काजल के टिका लागी'
दशहरा से शुरू हो जाता था नजर लगना, डायन की बातें, घर साफ रखना मकड़ी के जालों की बातें...। समय के साथ प्रगतिशील हम होते गए ....
अक्टूबर भर मननेवाला हैलोवीन में जिक्र है उन्हीं बातों की.. मौज मस्ती के रूप में..
प्रकृति अपना लिबास बदल रही है.. उदासी क्यों घेरे.. झड़ने के पहले जब यह नज़ारा हमें देखने को मिले.. जी कर आया लगाने को
देती माँ खुशियों के पल !
झुकता सृष्टि का खल बल !
पहला कदम अंगुली के बल !
होने न दे हमको निर्बल !
न समझ अपने को बौना ;
खो समय क्यों रोते हो ना
काजल, आंखों में डाला जाता है, जैसे कजरा मोहब्बत वाला...या आंजा जाता है और दिठौना हुआ तो माथे या गाल पर टीका जाता है, फिर यह कौन सा काजल आ गया, लगाने वाला! खैर, अंदर के पूरे पेज पर अकेला संक्षिप्त सा वाक्य-
जोड़े दिन भर की दिहाड़ी, समेटे स्वप्न,
जब लौट रहे होते हैं खेतिहर, विहंग, मजूर।
औ' रूप निहारता कोई जड़ देता है दर्पण को दिठौना।
मल-मल निर्मल कर तन मन दे लाल ललाट दिठौना माँ .
धरती काँटों पर सोये, दे आँचल हमें बिछौना माँ .
लुट-लुट, घुट-घुट स्वयम हमें दे, भोजन और खिलौना माँ .
रक्त पिलाती दूध पिलाकर, हमको करे सलोना माँ.
पड़ोसन को 'आँटी' न पुकारें , उनसे भी ज़रा -
अपनों जैसा ही कोई 'रिश्ता' बना लें ,
भाभी, दीदी, बहना, चाची, मौसी या बुआ ,
बूढ़ी हों तो दादी-नानी कह कर बुला लें |
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पुनः मिलेंगे...
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