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शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

जय मां हाटेशवरी


जय मां हाटेशवरी...... स्याही खत्म हो गयी “माँ” लिखते-लिखते उसके प्यार की दास्तान इतनी लंबी थी न जाने क्यों आज अपना ही घर मुझे अनजान सा लगता है, तेरे जाने के बाद ये घर-घर नहीं खली मकान सा लगता है झरोख़ा वो आफ़ताब आग बरसाता है हर सू , आ अपने इस हसीं महताब से मिला दूँ । मेरे ख़यालों की भटकती रूह सी 'निवी' , आ तेरे ख़्वाबों की ख्वाहिशों से मिला दूँ । वन अच्छे लगते है बना लो राहे और पगडंडिया कितनी भी घनी छाया के बिन सारे रास्ते कच्चे लगते है क्या कहने तुम्हारे वजूद के - तुम नहीं तो कुछ भी नहीं है जीवन की रंगीनियों की एक झलक भी दिल खुश कर देती है तुम्हारी भीनी भीनी महक मन खुशी से भर देती है | नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर ! जगती के कोने कोने में भर देते आलोक सुनहरा पुलक उठी वसुधा पाते ही परस तुम्हारा प्रीति से भरा झूम उठीं कंचन सी फसलें खेतों में छाई हरियाली आलिंगन कर कनक किरण का करता अभिवादन रत्नाकर ! नमन तुम्हें हे भुवन भास्कर ! लिखन बैठी जाकी छवि: कुछ भाव जीवन और मृत्यु की छुअन से जन्मी मेरी कविताएं जो कब्रों में सोये हैं क्या वो सचमुच मर चुके हैं और जो कब्रों से बाहर हैं , क्या वो सचमुच जिन्दा हैं . वो अपनी मृत्यु की कल्पना करती है और कहती है - मुझे अभी भी लगता है कि जब मैं मर रही हूँगी तो वह मेरे पास आएगा. (रिल्के) मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं मर रही हूँ . एक दिन मैं खत्म हो जाउंगी और कोई मुझे नहीं ढूंढेगा. न ढूंढ पायेगा . हो सकता है कई बरसों बाद कोई बेहतर कल हो लेकिन तब मैं नहीं रहूंगी. इस जगह पर मुझे महसूस होता है जैसे कि मैं हूँ या नहीं हूँ. और फिर 31अगस्त 1941 के एक पहर हुआ यूँ कि ज़िंदगी के एक-एक लम्हे के लिए लड़ने वाली , जीवन और कविता ब्रज भोर की ओर - कोई प्राणदायी स्पर्श फिर बढ़ा जाए उम्र की रेखाएं, नयन, अधर, वक्ष - - स्थल, गभीरतम हृद, कहीं नहीं कोई कांटेदार सीमाएं, किन्तु निःशर्त हो सभी लेनदेन हमारी, ब्रज भोर की - - धन्यवाद।

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