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शनिवार, 31 अगस्त 2019

1506... अमृता प्रीतम

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"क्या कर रही हैं अम्मू?" कल शाम में बुचिया का फोन आया प्रणाम-आशीष के बाद- उसका पहला सवाल स्वाभाविक था..
"कुछ खास नहीं... बस पेट-पूजा की तैयारी.. तुम बताओं?"
"कल का क्या प्रोग्राम है? कल सौ साल पूरे हो रहे हैं और कहीं किसी कोने में कुछ सुगबुगाहट नहीं है..., स्त्रियों के साथ ऐसा क्यों किया जाता है?" बुचिया बेहद क्षुब्ध थी...
"मैं तो शहर से बाहर हूँ... फिर भी देखती हूँ क्या कर सकती हूँ!" फिर सोच में डूबी ये मुआ ढ़ाई आखर पर चर्चा करनी होगी... किसी शब्द को लो उसमें आधा वर्ण है... जो खुद आधा समेटे हुए है वह कैसे पूरा होगा...

कहते हैं प्यार एकतरफा भी होता है
तो क्या प्यार हवा में उफनता है
बिना आँच बिना ईंधन पानी बिना अवलम्बन
साहिर का नाम लिखने के लिए इमरोज का पीठ हाजिर था
प्रीतम को खोने के लिए साहिर मौजूद रहा
फिर इमरोज किस आधार पर आज भी जिंदा रखे हुए हैं

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ज्ञानपीठ प्राप्त मशहूर व संवेदनशील लेखिका अमृता प्रीतम की जन्मशताब्दी के अवसर पर ब्लॉगर परिवार की ओर से सादर नमन...
वह_कौन_थी ?
जानना चाहते हो - वह कौन थी ?!
वह थी सावन की पहली बारिश, बारिश के बाद की निखरी धूप, बागीचे में डाला गया झूला, उसकी पींगे, और हवा में इठलाती लटें ...।खिलखिलाती हुई जब वह आईने के आगे खड़ी होती थी, तो घण्टों खुद को निहारती, लटों से खेलती बन जाती थी एक सपना । सब्ज़ी काटते हुए, सुनती थी अपनी चूड़ियों की खनक, छौंक लगाती अपनी हथेलियों की अदाएं देखती, मसालों के संग एक चुटकी नमक की तरह खुद को डाल देती थी । ताकि मायके में उसका स्वाद बना रहे ...
ढोलक की थाप पर, शहनाइयों की धुन में जब उसके पाँव महावर से रचे गए, तब वह जादुई नमक साथ ले गई थी, ताकि ससुराल में भी उसका स्वाद उभरे । लेकिन, ...
यह जो राम नाम के सत्य की रटन हो रही है न, यह उसी के लिए । सारे नमक उसके ज़ख्मों में भर गए और कहानी खत्म हो गई है । नाम जानकर क्या करोगे, किसी भी नाम से तर्पण अर्पण कर दो - चलेगा ।© Rashmi Prabha
ज्योति स्पर्श : अमृता एक कविता में कहती हैं- ' मैं लौटूँगी...'। अमृता प्रीतम के शब्द जो पढ़ने वाले के पहलू में तसल्ली से बैठ कर अपना अनुभव साझा करते हैं। अमृता सिर्फ इमरोज,अपने बच्चों और अपने दोस्तों की यादों में ही नहीं जिन्दा हैं बल्कि लाखों लड़कियों की इस हसरत में जिन्दा हैं कि उन्हें कोई इमरोज़ की तरह चाहे। अमृता को पढ़ते हुए चाँदी सी उम्र भी बगावती होना चाहती है।
अपने शब्दों की सरलता से अध्यात्म की तारीकी गुफाओं में पाठक के लिए जुगनू उड़ा देती हैं अमृता।

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अमृता प्रीतम
पुण्यतिथि
प्यार अगर इंसान की शक्ल लेता तो उसका चेहरा अमृता प्रीतम जैसा होता
जैसा अमृता प्रीतम ने अपने लिए चुना, वैसा ही प्यार और
आजादी के मेल से बना चटख रंग वे हर स्त्री के जीवन में चाहती थीं.

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अमृता प्रीतम

अज्ज आखां वारिस शाह नूं
पंजाबी भाषा में लिखी गई यह बेहद प्रसिद्ध कविता है। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है। इस कविता को भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में सराहना मिली थी।
एक मुलाकात
यह ऐसे प्रेमी जोड़े की दास्तान है, जो मिल नहीं पाते हैं

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अमृता प्रीतम



अमृता प्रीतम

बात अनहोनी,
पानी को अंग लगाया
नदी दूध की हो गयी
कोई नदी करामाती
मैं दूध में नहाई
इस तलवण्डी में यह कैसी नदी
कैसा सपना?

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अमृता प्रीतम

यह दोस्ती और रूहानी अहसास उनकी रचना एक थी सारा में जीवित है. उनकी हर रचना हर पाठ के साथ एक नयी आलोचना तैयार करती है. कहानियाँ और कविताएं भाषिक सरंचना से जाने कैसा ज़ादू पैदा करती है कि उन में डूबा हुआ पाठक इस दुनिया ज़हान के समस्त  प्रसंगों के लिए अपरिचित बन बैठता है. पाठक को हर रचना पाठ के बाद भी कुँआरी जान पड़ती है. वहाँ खामोशी का बोलता हुआ दायरा है जो आपको अपने आगोश में लेने के लिए बेताब जान पड़ता है. अमृता अपनी रचनाओं में सदा जीवित बनी रहेंगी, यही कारण है कि पाठक उनकी कविताओँ में हर बार एक नयी अमृता को पा लेता है, ठीक इन पंक्तियों की तरह-

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जब शब्द सम्पूर्ण हो तो समझना ज्योत्स्ना शीतल है


शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

1505 ...अपने घर को अपनी कब्र मत बनाओ

स्नेहिल नमस्कार
------
जीवन मानव का
हर पल एक युद्ध है
मन के अंतर्द्वन्द्व का
स्वयं के विरुद्ध स्वयं से
सत्य और असत्य के सीमा रेखा
पर झूलते असंख्य बातों को
घसीटकर अपने मन की अदालत में
खड़ा कर अपने मन मुताबिक
फैसला करते हम
धर्म-अधर्म को तोलते छानते
आवश्यकताओं की छलनी में बारीक
फिर सहजता से घोषणा करते
महाज्ञानी बनकर क्या सही क्या गलत
हम ही अर्जुन और हम ही कृष्ण भी
जीवन के युद्ध में गांधारी बनकर ही
जीवित रहा जा सकता है
वक्त शकुनि की चाल में जकड़कर भी
जीवन के लाक्षागृह में तपकर 
कुंदन बन बाहर निकलते है 
हर व्यूह को भेदते हुए
जीवन के अंतिम श्वास तक संघर्षरत
मानव जीवन एक युद्ध ही है।
-श्वेता
★★★★★★
आइये आज की रचनाएँ पढ़ते है-

लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती
बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती
शहर की आवारा गलियों से सहमी-सहमी पूछ रही हैं 


एक लम्हा दिल फिर से
उन गलियों में चाहता है घूमना
जहाँ धूल से अटे
बिन बात के खिलखिलाते हुए
कई बरस बिताये थे हमने ..
बहुत दिन हुए ...........
फिर से हंसी कि बरसात का
बेमौसम वो सावन नहीं देखा ...

वेदना को ये  भी है कसक
असहनीय    मौन      तेरा
निर्मोही   हो  गये  हो  तुम
वियोगी  मन बना  के मेरा।
प्रेम    का    प्रसंग    लिखूं
या   दावानल    विरह  का
विलाप   गर  समझ  सको
खोलूं राज  की  गिरह  का।

शून्य


शून्य में ब्रह्म छुपा
शून्य है परमात्मा
अनेकों रहस्य लिए
शून्य ही है आत्मा


रसीद नहीं आई? ऐसा कैसे हो सकता है? रसीद तो मैंने उसी रात को भिजवा दी थी। लिफाफे में। तुम्हारे पापा के नाम का लिफाफा था।’




लहरों का जादू ऐसा होता है कि जितना भी वक़्त इनके साथ बिताओ कम ही लगता है. घंटों समन्दर में पड़े-पड़े त्वचा फूलने लगती है फिर भी मन बाहर आने का करता ही नहीं. भूख, प्यास मानो सब स्थगित. जब रात काफी हो गयी और सिक्योरिटी अलर्ट के चलते बाहर आने को बोला जाने लगा तब कोई चारा नहीं था. लेकिन डिनर वहीँ समन्दर के किनारे ही किया ताकि नजर से ओझल न हो पल भर समन्दर. 

★★★★★★★
आज का अंक आप सभी को कैसा लगा?
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहती है।

कल का अंक पढ़ना न भूले
कल आ रही हैं विभा दी एक
विशेष विशेषांक के साथ।

हवा में बारुद की गंध मत उड़ाओ
माचिस नफ़रतों की मत सुलगाओ
अरे दुष्टों! ज़रा अक्ल भी आजमाओ
अपने घर को अपनी कब्र मत बनाओ


गुरुवार, 29 अगस्त 2019

1504...हे देव ज़हर सृष्टि में क्यों ?

सादर अभिवादन। 


हे 
देव 
ज़हर 
सृष्टि में क्यों? 
दया करना 
कृपा के सागर 
अमन हो बाग़ में। 
-रवीन्द्र 

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-



पर मैं टूटी नहीं बिखरी नहीं 

ख़ुद को समेटा अपनी दरारों को 

भर तो न पाई पर उन्हें इस तरह 

से ढका की वो खूबसूरत दिखने लगी 

और मैं उनके साथ जीने लगी 




जो हुआ, अच्छा हुआ, कहकर भुला दो सब कुछ 
बीती बातें याद करके, नए दर्द को बुलाओगे। 

दोस्त बनाए रखना, भले कहने भर को ही 
दोस्तों से हाथ धो बैठोगे, जब आज़माओगे। 





आँखों में गुज़ारा है तुमने, 
रात का हर पहर ,
ठुड्डी टिकाये रायफ़ल पर,  
निहारा है खुला आसमान, 
चाँद-सितारों से किया, 
 बखान अपना फ़साना गुमनाम ।




दिन के उजाले में 
दुनिया मायावी लगती है 
लेकिन रात के अंधरे में 
मुरझाया गुलाब
एक तेरे न होने से साथ मेरे 




कल उन्हें यात्रा पर निकलना है. बड़ा सा सूटकेस जो वे ले जाने वाले हैं, काफी भारी हो गया है. कभी-कभी खुद भी उठाना पड़ सकता है, न भी पड़े तो जो भी उठाएगा उसकी कमर पर असर पड़ सकता है. आज विश्व ऑटिज्म डे है, शायद मृणाल ज्योति में कुछ आयोजन हुआ हो इस उपलक्ष में. बाहर बच्चों के झूला झूलने की आवाजें आ रही हैं, कल से उन्हें पूरा बगीचा मिल जायेगा.


आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले गुरूवार। 

बुधवार, 28 अगस्त 2019

1503..सिंदूरी सवेरा बादलों की ..


।।भोर वंदन।।
पौ फटी..
"चुपचाप काले स्याह भँवराले अंधेरे की घनी चादर हटी..
मगरूर आँखों में गई भर जोत
जब फूटा सुनहला सोत..
सिंदूरी सवेरा बादलों की सैकड़ों सलेटी तहो को चीरकर
इस भांति उग आया कि जैसे स्नेह से भर जाय मन की हर सतह.."
जगदीश गुप्त

जी, हाँ स्नेह से भर जाती है मन की हर
 सतह और पिरोती है
 अल्फ़ाज़ जिसे समेटने की कोशिश शामिल लिंकों में..✍
📚📚




मैं
अकसर
सबके बीच मौजूद होकर भी
खुद अपने भीतर 
अपनी ही ग़ैरमौजूदगी की गवाह होती हूँ!



पीड़ा देता है 
खुद में खुद का न होना
खुद से खुद का छला जाना..

📚📚


                              बात इस सरकार से पहले के सरकार के जमाने कि हैं | देश की राजधानी में कुछ बड़े पुलिस  अधिकारियों की एक आतंकवाद के खिलाफ खास एसआईटी बनाई गई थी | यह एसआईटी देश और दिल्ली में हुए कई बड़े आतंकवादी..
📚📚





सींच रैयत जब धरा रक्त से
बीज नील का बोता था।
तिनकठिया के ताल तिकड़म में
तार-तार तन धोता था।



आब-आबरू और इज़्ज़त की,
पाई-पाई चूक जाती थी।
ज़िल्लत भी ज़ालिम के ज़ुल्मों..
📚📚





हर ईंट जतन से संजोयी
कण कण सीमेंट का घोला
अट्टालिकाएं खड़ी कर भी
स्व जीवन में ढेला



यह कैसा मर्म कर्मो का
जीवन संदीप्त पा नहीं सकता
नीली छतरी के नीचे कभी
छत खुद की डाल नहीं सकता



मुठ्ठी भर मजदूरी से
उदर आग बुझ जाती
चूं चूं करते चूजों देख..



अब भी याद आती है
वह।
जब रोते-रोते हिचकी बंध जाती
वह पास आकर पुचकारती
कभी बाँहों में भरकर
ढाढस बँधाती, सहलाती।



अब भी याद आती है
वह।
घर से दूर रहने पर
उसका ही साथ संबल देता..
📚📚
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍


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