निवेदन।


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रविवार, 31 अक्टूबर 2021

3198...नित तोड़ के चढ़ैबै हम श्याम तुलसी।

 सादर अभिवादन

बस कुछ दिन और
दीपावली को
दिवाली गई.. और
लोगों ने कहा कि साल निकल गया

रचनाएँ...



हमर अंगना में शोभे,श्याम तुलसी।
श्याम तुलसी,हां जी राम तुलसी।
हमर अंगना में.................
सोने के झारी में गंगाजल भर के,
नित उठ के पटैबै हम श्याम तुलसी।
हमर अंगना में..............
सोना के डलिया में बेली-चमेली,
नित तोड़ के चढ़ैबै हम श्याम तुलसी।      
   



दाँया बाँया देखकर, सड़क कीजिए पार ।
रहो सुरक्षित आप तब ,खुशियाँ मिले हजार।।

वाहन लेकर के चलो, कभी नहीं तुम तेज।
हेलमेट लेने से नहीं ,करना कभी गुरेज।।





इससे पहले कि नीलिमा कुछ कहती बहूरानी बोल उठी - "हम दिन भर मेहनत करते इस लिए नहीं कमाते कि इसे मुर्दों के नाम पर खर्च किया जाय। सो इसे तो आप भूल ही जाइये कि जो आप अब तक पापा की कमाई से उड़ाती रही हैं , हम भी आप को उड़ाने देंगे। "

बहू - बेटा के जाने के बाद नीलिमा के कानों में नितिन के लिए "मुर्दा" शब्द देर तक गूंजता रहा। बेकार ही लोग पितृ, पुरखे और पूर्वज कहते हैं सोचते सोचते आखों के आगे माँ , बाबूजी की छवि घूम गयी।




कमला बड़बड़ाती  हुई घर में घुसी और तेजी से काम करने में जुट गयी लेकिन 
उसका बड़बड़ाना  बंद नहीं था।

"अरे कमला क्या हुआ ? क्यों गुस्सा में हो?"

"कुछ नहीं दीदी, मैं तो छिपकली और गिरगिट से परेशान हूँ। "

"ये कहाँ से आ गए ?"

" ये तो मेरे घर में हमेशा से थे, मैं अपने कमरे में बात करूँ तो ननद हर वक्त कान लगाए रहती है और घर से वह कहीं चली जाए तो ससुर का रंग दूसरा होता है और उसके होने पर दूसरा।"

इति शुभम्

शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

3197.. स्वच्छता


हाज़िर हूँ...! पुनः 
उपस्थिति दर्ज हो...

दशहरा के बाद.. बिहार में (मुझेअन्य राज्य का अनुभव नहीं) जंग शुरू हो जाता है। स्पेशल ट्रेन चालू होने के बाद भी ट्रेन के छत पर भीड़, पायदान में लटके लोग। वाशरूम का रास्ता ब्लॉक कर रखा.. जुगाड़ से टिकट जुटाए जुझारू बिहारी। देश के किसी कोने में हों लौटेंगे छठ में।

    जब गाँव से इतना प्यार है तो बिहार वृद्धाश्रम क्यों बनता जा रहा..; जिनके बच्चे विदेश जा बसे या जिनके घर में छठ नहीं होता..., मकड़जाल में उलझे वृद्ध की पथराई आँखें तलाश रही..

स्वच्छता

सभी बच्चों को ईनाम के रूप में पिकनिक पर अगले दिन ले जाना तय हुआ। वैसे तो जो उन्होंने किया था। वो हर ईनाम से परे था। जितनी प्रशंसा करो उतनी ही कम है।

स्वच्छता

अगर उन्होंने अच्छा किया, तो उन्हें उसके स्वादिष्ट गाजर के केक का एक अतिरिक्त टुकड़ा दिया जाएगा। सफाई का दिन अच्छा चल रहा है और बच्चों ने मोपिंग का आनंद लिया। और फर्श को साफ़ कर रहा है। जल्द ही खाने का समय हो गया। रिकी और रिया गाजर केक के काटने का इंतजार नहीं कर सकते थे।

स्वच्छता

रविवार के दिन सभी अजय के मोहल्ले में गए. सबके हाथ में एक-एक टोकरी और झाटू थे। सड़क पर झाडू लगाकर उन्होंने कूड़ा इकट्ठा किया। नालियों की सफ़ाई की और पानी का रास्ता बनाया।

ना मैं गंदगी करूंगा, न ही करने दूंगा

वर्तमान समय में स्वच्छता हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है। यह समय भारत वर्ष के लिए बदलाव का समय है, बदलाव के इस दौर में यदि हम स्वच्छता के क्षेत्र में पीछे रह गए तो आर्थिक उन्नति का कोई महत्व नहीं रह जाएगा। साथ ही हमें इसे एक बड़े स्तर पर भी देखने की जरूरत है ताकि हमारे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।


प्रकृति के अनसुलझे जटिल रहस्यों के आगे उसे कई बार चमत्कृत होना पड़ा। बड़ी मात्रा में प्रकृति और उसकी शक्तियां मनुष्य के नियंत्रण से बाहर ही रहीं। मनुष्य प्रकृति की देखी-अनदेखी शक्तियों से डरा और उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी वंदना में ऋचा गीत लिख डाले। दुर्दम्य प्रकृति को उसने उस मात्रा में अपने अनुकूल बना लिया जितना कि उसके जीवन रक्षा के लिए आवश्यक था।

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पुन: भेंट होगी...

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शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

3196....अजीब हैं हम भी...।

शुक्रवारीय अंक में
मैं श्वेता आप सभी का 
स्नेहिल अभिवादन करती हूँ।
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चुराकर जीवन से कुछ पल,
सारी परेशानियों को भूलकर 
प्रकृति को महसूस कीजिए
शीतऋतु के हिंडोले झूलकर-

भोर पलक छूकर मुस्कुराई/ किरणें चमकीली रसधार।
मंत्र खुशी का सुन लो तुम भी/ पाखी गाये जीवन सार।
पैर पटकती जल पर किरणें/  दरिया से करती है प्यार।
धरा की धानी चुनरी विहंसी/ अंगड़ाती पुरवाई बयार।
ऋतु की पाती आती -जाती/ समय न ठहरे झरे बहार।
निशा करतल से फिसला चाँद/ डूबा सागर जागा संसार।

 #श्वेता सिन्हा
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आइये आज की रचनाओं के संसार में-

प्रांतर में प्रातः

पीत दुकूल बादल का ओढ़े
रवि का थाल चमकता था।
रजत वक्ष पर रश्मिरथी के
पहिये का पथ झलकता था।

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नियति के समक्ष बेबस एक पिता की
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति-

ज़ख्म मेरा रो रहा है

अस्पताल में ज़िंदगी से जूझ रही नवजात की मार्मिक तस्वीर साझा करने की हिम्मत नहीं मुझमें

दूध की चाहत अधर को, पर दवाई पी रहे,
अंग उलझे तार नस-नस, ज़िंदगी ये जी रहे।

क्या ख़ता थी मेरी ईश्वर, जो सज़ा मुझको दिया,
रातदिन सब पूजते फिर, क्यूँ दगा मुझको दिया?

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किराए पे लड़की


पढ़ेगी वो क्या ? ये शहर के उजाले, 
चकाचौंध उसको किए जा रहे हैं ।
करज में हैं डूबे जो माँ बाप इसके, 
मुझे भी परेशाँ किए जा रहे हैं ।।

यही मैं नियत देखती आ रही हूँ, 
कि गाँवों की प्रतिभा शहर ज्यों ही आती ।
ये झिलमिल सी दुनिया औ रंगी दीवारें, 

उसे नित भरम में डुबोती है जाती ।।

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चाँद और इश्क



दिल लगा जब से इसके दिलजले ख्वाबों से l
तन्हा रह गए हम भरी सितारों की महफ़िल में ll

जोरों से दिल हमारा भी खिलखिला उठा तब ।
पकड़ा गया चाँद जब चोरी चोरी निहारते हुए ll


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नयी सोच

दादू ! हम दूध पीते हैं न। एक छोटी सी बछिया को उसकी माँ के थन से जबरन अलग कर उसे रूखा-सूखा घास खिलाते हैं और उसके हिस्से का दूध खुद पी जाते हैं, क्या ये गलत नहीं है दादू ? कोई पाप भी नहीं है ?    हमें इन गलतियों का पाप क्यों नहीं लगता दादू?।     


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 चालाकी

आयोजन स्थल के थोड़ा पहले चौराहा पड़ा। जहाँ पानी वाला नारियल का ठेला लगा था। गाड़ी रोककर चालक उतरा साठ रुपया का नारियल पानी पी लिया। जब हम आयोजन स्थल पर पहुँचे तो वह मुझसे नारियल वाला पैसा मांगने लगा।

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और चलते-चलते एक विचार-

 जनता अपराधी फिल्मी कलाकारों को जेल ले जाती वैन के पीछे बेतहाशा दौड़ती है। उनके संगीन अपराध के बावजूद उनको अपना हीरो मानती है सहानुभूति जताती है , अपराधी चुनाव जीत जाते हैं। 

मीडिया जिसे चाहे नायक और देशभक्त बना देती है और जिसे चाहे खलनायक जैसा देशद्रोही बना देती है।

ऐसी मानसिकता, स्तरहीन वैचारिकी दुर्दशा के लिए और इस माहौल के लिए हम लोग ही जिम्मेदार हैं।

शातिर लोग भावुक लोगों की संवेदनाओं का व्यापार कर रहे हैं... नेताओं और मीडिया की कठपुतली जैसे हम इमोशनल बेवकूफ ऐसा न सिर्फ़ होने दे रहे हैं बल्कि इसमें अपनी शान भी समझ रहे,आपस में सिरफुटौव्वल कर रहे हैं....अजीब नहीं हैं हमलोग...?

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आज के लिए इतना ही 
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2021

3195...कूड़ा समेटने वाला हमेशा घबराता है शर्माता है...

शीर्षक पंक्ति :आदरणीय डॉ.सुशील कुमार जोशी जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

बदलते जाते हैं 

मौसम 

महँगाई के 

इस दौर में,

पाँव के नीचे 

देखो ज़मीं...

कौन ठहरे? 

फ़ाक़े के ठौर में!

-रवीन्द्र सिंह यादव     

 प्रस्तुत हैं गुरुवारीय अंक में चंद चुनिंदा रचनाएँ-  

कूड़ा लिखउलूकपरेशानी एक है साथ में डस्टबिन क्यों नहीं ले कर के आता है


सारे कूड़े पर बैठे हुऐ कूड़े

अपने अपने दाँत निपोर कर दिखाते हैं
कूड़ा समेटने वाला हमेशा घबराता है शर्माता है

पर्यावरण के पाठ में और उसी विषय की किताब में
कूड़ा ही होता है
जो गालियाँ कई सारी हमेशा खाता है

 शेर बोली पर हैं मिसरे बेचता हूँ ...

चाँदनी पे वर्क चाँदी का चढ़ा कर,
एक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँ.
 
पक्ष वाले ... सुन विपक्षी ... तू भी ले जा
आइनों के साथ मुखड़े बेचता हूँ.

  गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

ज़िन्दगी की भी  कैसी हाय बेचारगी

रोने को विवश ज़ब्त करने में लाचार

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

भीतर की तबाही के सहके अत्याचार

नारी


अम्बर के आँचल तले

नहीं मिली है छाँव

कुचली दुबकी है खड़ी

नित्य माँगती ठाँव

आज थमा दो डोर को

पीत पड़े अब गात।।

पहली गुरु

वह बोला- "सचमुच मम्मी! मेरी कोई गलती नहीं? सबसे बड़ी दुश्मन तो आप ही हैं मेरी। माँ तो बच्चों की पहली गुरु होती है और उसकी दी हुई सीख बच्चों को जीवन में हर पग पर मार्गदर्शन करते हैं। पर आपने तो अपनी औलादों को ग़लत सही का पाठ पढ़ाया नहीं, हमेशा उनकी बड़ी से बड़ी गलती को भी दूसरों पर मढ़ती रही हो। आपकी नजर में पूरी दुनिया ही आपके बेटों के भोग का सामान है....है ?

*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे अगले गुरुवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

3194 ..मन का हो तो अच्छा न हो तो और अच्छा...

 

।। उषा स्वस्ति ।।

"उठो सोनेवालो, सबेरा हुआ है,

वतन के फकीरों का फेरा हुआ है।

जगो तो निराशा निशा खो रही है

सुनहरी सुपूरब दिशा हो रही है

चलो मोह की कालिमा धो रही है,

न अब कौम कोई पड़ी सो रही है।

तुम्हें किसलिए मोह घेरे हुआ है?

उठो सोनेवालो, सबेरा हुआ है।"

अज्ञात

चलिए आज शुरुआत करते हैं ब्लॉग नया सवेरा की खास पेशकश...✍️



मन का हो तो अच्छा न हो तो और अच्छा...

उपजाऊ या बंजर 

केवल ज़मीन ही नहीं

बल्कि ...

हमारा मन भी होता है ।

जहाँ जो रोपा जाए 

या तो वह खूब बढ़ता..

➿➿

झिल्ला !



तुम्हारे पास कित्ते झिल्ला हैं ? चार ! दुई हमरे तीर ।

 दुई छुटकी तीर हैं। जोड़ो जोड़ो कित्ते झिल्ला ? उंगलियों के पोरों पर राबिया ने गिनती गिनना शुरू किया। एक ...दुई...तीन ....। तीन के बाद राबिया आंखें मटकाने लगी । 

➿➿




कुत्तों के भौंकने से हाथी अपना रास्ता नहीं बदलता है

आदमी काम से नहीं चिन्ता से जल्दी मरता है 

गधा दूसरों की चिन्ता से अपनी जान गंवाता है

धन-सम्पदा चिन्ता और भय अपने साथ लाती है 

धीरे-धीरे कई चीजें पकती तो कई सड़ जाती है

विपत्ति के साथ आदमी में सामर्थ्य भी आता है..

➿➿

जुलूस का मशाल वाही - -






वो सभी हो चुके हैं किंवदंती जिनका
बखान कर के आज तुम ख़ुद को,
महा मानव कहते हो, जातक
कथाओं में कहीं, तुम
आज भी हो वहीं
पर खड़े, जहाँ
था कभी
छद्म
रुपी सियार, ओढ़े हुए व्याघ्र छाल !
पहलू बदल बदल कर छलते..

➿➿


चलते चलते गौर फ़रमाये  ग़ज़ल कयामत हो गई..



  ख्वाब टूटे आस बिखरी क्या क़यामत हो गई|

हाथ से तक़दीर फिसलीक्या क़यामत हो गई|

कल में रहेकल में जिएकल की बनाई योजना,

।।इति शम ।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...

✍️

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