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गुरुवार, 28 अक्टूबर 2021

3195...कूड़ा समेटने वाला हमेशा घबराता है शर्माता है...

शीर्षक पंक्ति :आदरणीय डॉ.सुशील कुमार जोशी जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

बदलते जाते हैं 

मौसम 

महँगाई के 

इस दौर में,

पाँव के नीचे 

देखो ज़मीं...

कौन ठहरे? 

फ़ाक़े के ठौर में!

-रवीन्द्र सिंह यादव     

 प्रस्तुत हैं गुरुवारीय अंक में चंद चुनिंदा रचनाएँ-  

कूड़ा लिखउलूकपरेशानी एक है साथ में डस्टबिन क्यों नहीं ले कर के आता है


सारे कूड़े पर बैठे हुऐ कूड़े

अपने अपने दाँत निपोर कर दिखाते हैं
कूड़ा समेटने वाला हमेशा घबराता है शर्माता है

पर्यावरण के पाठ में और उसी विषय की किताब में
कूड़ा ही होता है
जो गालियाँ कई सारी हमेशा खाता है

 शेर बोली पर हैं मिसरे बेचता हूँ ...

चाँदनी पे वर्क चाँदी का चढ़ा कर,
एक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँ.
 
पक्ष वाले ... सुन विपक्षी ... तू भी ले जा
आइनों के साथ मुखड़े बेचता हूँ.

  गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

ज़िन्दगी की भी  कैसी हाय बेचारगी

रोने को विवश ज़ब्त करने में लाचार

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

भीतर की तबाही के सहके अत्याचार

नारी


अम्बर के आँचल तले

नहीं मिली है छाँव

कुचली दुबकी है खड़ी

नित्य माँगती ठाँव

आज थमा दो डोर को

पीत पड़े अब गात।।

पहली गुरु

वह बोला- "सचमुच मम्मी! मेरी कोई गलती नहीं? सबसे बड़ी दुश्मन तो आप ही हैं मेरी। माँ तो बच्चों की पहली गुरु होती है और उसकी दी हुई सीख बच्चों को जीवन में हर पग पर मार्गदर्शन करते हैं। पर आपने तो अपनी औलादों को ग़लत सही का पाठ पढ़ाया नहीं, हमेशा उनकी बड़ी से बड़ी गलती को भी दूसरों पर मढ़ती रही हो। आपकी नजर में पूरी दुनिया ही आपके बेटों के भोग का सामान है....है ?

*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे अगले गुरुवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


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