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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

867...तुम सूरज न बन पाओ तो बादल बन के रहना.....

सादर अभिवादन। 
आज 30 नवम्बर अर्थात इस साल का 334 वां दिन।  
अब 31 दिन और शेष हैं 2018 का इंतज़ार ख़त्म होने में। 

समाचार आया है कि अँधेरे में मोबाइल का उपयोग करने वालों की 
आँखों की रौशनी जा सकती है अर्थात अँधा होने का ख़तरा !

आजकल आधार को लेकर अब भी भ्रम बरकरार है।  विभिन्न  योजनाओं के साथ आधार को लिंक करना सरकार ने अनिवार्य कर दिया और 31 दिसंबर 2017 की तारीख़  भी तय कर दी। अब इसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के ज़रिये सुनवाई के लिए लाया गया है। संभव है अगले कुछ दिनों में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कोई फ़ैसला दे। 
इस बीच ख़बर है कि लोगों को फ़र्ज़ी एसएमएस (SMS ) के ज़रिये ऑनलाइन ठग संदेश भेज रहे हैं कि आप अपना आधार कार्ड लिंक कीजिये। इस सम्बन्ध में LIC का ज़िक्र आया है जिसका नाम ठग उपयोग कर रहे थे।  
अब ऑनलाइन ठगी की घटनाऐं निरंतर बढ़ रहीं हैं अतः सावधानी बरतें और माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का भी इंतज़ार कर सकते हैं। 

चलिए अब आपको ले चलते हैं आज की पाँच पसंदीदा रचनाओं की ओर -

आदरणीय राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"  जी की नई रचना के संदेश पर मनन कीजिये - 




तुम सूरज ना बन पाओ,
तो बादल बन के रहना,
शत्रु ना बनना सूरज का
दोस्त बन के ही रहना। 

तुम चमको कभी शिखर पर
बाधाएं तो आएँगी,
कर्म न छोड़ना तुम कभी,
बाधाएं हट जाएँगी। 


शिक्षा एक ऐसा बिषय है जिसे हम जीवनभर सीखते ही रहते हैं। कुछ ऐसा ही प्रेरक संदेश इस ख़बर में बता रहे हैं यश रावत जी - 




तोशिको ने बताया कि वह 8 साल पहले काशी आयी थी लेकिन यहां आने से पहले वह काठमांडू, नेपाल घूमने आयी थी और नेपाली भाषा सीखने लगी, लेकिन जब उसे पता चला कि नेपाली भाषा का मूल संस्‍कृत है, तब उन्‍होंने संस्‍कृत सीखने का फैसला किया। उन्‍हें बताया गया कि अगर संस्‍कृत सीखना है तो भारत में काशी से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती है। तोशिको 2008 में काशी आयी और संस्‍कृत महाविद्यालय में प्रमाणपत्रीय पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। 

अपने तीखे, तल्ख़, धारदार व्यंग के लिए मशहूर आदरणीय  गोपेश जसवाल जी का ताज़ा व्यंगात्मक संस्मरण  पढ़िए -


मेरी फ़ोटो


कई बार मैंने सोचा है कि मैं बच्चों को एअरपोर्ट तक छोड़ आऊँ पर उन दुष्टों को तो ऐसे कामों के लिए टैक्सी करना ही पसंद है.
पिताजी की ही तरह कार बैक करना मुझको आइन्स्टीन की थ्योरम जैसा कठिन लगता है. हमारे घर के गेट के बगल में एक पेड़ है. उस दुष्ट को पता नहीं क्यों मेरी बैक होती हुई कार से गले मिलना बहुत भाता है. अब तक कार और पेड़ की प्रेम लीला की वजह से मेरी चार बार बैक लाइट बदल चुकी हैं. डेंट पड़ने पर तो मैंने उन्हें ठीक करवाना भी छोड़ दिया है.

पेश है आदरणीया अभिलाषा जी की एक विचारशील  रचना जो स्त्री-पुरुष मानसिकता पर गंभीर सवाल खड़े करती है-  


समा लेती है
स्त्री 
उसे अपने अंदर 
तन से,
मन से,
अर्पण से,
फिर भी 
पुरुष दम्भी 
और 
स्त्री कुंठित क्यों???

आज पहली बार इस मंच पर हम परिचय करा रहे हैं नए ब्लॉगर शोएब अख्तर जी का।  पढ़िए उनकी यथार्थपरक रचना -


 कितना सुखद अहसास है
एक भर्ती बीमार के लिए
लो हो गई छुट्टी अस्पताल से
छुट्टी!
एक हकीकत है जिंदगी की
एक दिन हो जाएगी छुट्टी
    इस जिंदगी से    



आज बस इतना ही।  
आपकी उत्साहवर्धन करती अनमोल प्रतिक्रियाओं और उपयोगी सुझावों की प्रतीक्षा में। 
फिर मिलेंगे। 
रवीन्द्र सिंह यादव 

                                           

बुधवार, 29 नवंबर 2017

866..शेष है अब भी कुछ सवाले.. जो निर्भर है जीवन और परिवेश के हवाले..


।।शुभ भोर वंदन।।

जी, नमस्कार आज शुरुआत करते है
 इन अल्फाजों के साथ कि..
शेष है अब भी
कुछ सवाले..
जो निर्भर है
जीवन और परिवेश के हवाले..
क्योंकि...

जो पढा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ
(ज़फ़र साहबाई)

बातों के सिलसिले को आगे बढाते हुए
 आज के
रचनाकारों के नाम है..आदरणीया सदा जी,
आदरणीया अनीता लागुरी (अनु)जी, आदरणीय अरुण साथी जी, 
आदरणीय संजय ग्रोवर  जी , आदरणीय सुधा देवरानी जी, 
आदरणीया ऋता शेखर ‘मधु’ जी...✍

कुछ रिश्ते
जिंदगी होतें हैं
परवाह और
अपनापन लिए
जिनमें फ़िक्र की
धूप होती है
और ख्यालों की छाँव !!!



निस्तब्ध मां को देख रहा था
तो कभी गीत कोई गुनगुना देती...
तो कभी दौड़ सीढ़ियों से उतर



से उबरने के लिए संघर्ष करना पड़ा पर बहुत हद तक सफलता पाई है।
 उपाय के तौर पे सबसे पहला काम मोबाइल एप्प को डिलीट किया।
 ब्राउज़र से कभी कभी उपयोग करता हूँ। गंभीर मामला है, समझें..

एक समय की बात है
 एक अजीब-सी जगह पर, बलात्कार
 करनेवाले, बलात्कृत होनेवाले,
 बलात्कार देखनेवाले,




  अपरिभाषित एहसास।
  " स्व" की तिलांजली...
       "मै" से मुक्ति !
   सर्वस्व समर्पण भाव
   निस्वार्थ,निश्छल
       तो प्रेम क्या ?
     बन्धन या मुक्ति  !
 प्रेम तो बस, शाश्वत भाव
    एक सुखद एहसास!!
एहसास?

बेबसी की ज़िन्दगी से ज्ञान लेती मुफ़लिसी
मुश्किलों से जीतने की ठान लेती मुफ़लिसी

आसमाँ के धुंध में अनजान सारे पथ हुए
रास्तों को ग़र्द से पहचान लेती मुफ़लिसी
﹏﹏﹏﹏﹏﹏﹏﹏﹏

आज बस यहीं तक कल फिर नई प्रस्तुति के साथ 
सम्यक् समीक्षा जरूर करें..
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह,,,✍

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

865....एक इंसान जिसने देशभक्ति की भावना को जाग्रृत करने का सही तरीका बतलाया!

जय मां हाटेशवरी....
आज भी हमारे देश में बाल-विवाह जैसी कुप्रथा प्रचलित है....
अभी दो तीन दिन पहले हिमाचल महिला व बाल विकास विभाग के   प्रयासों से दो बच्चियों    के  बाल-विवाह होने से रोके गये....
बचपन 
जो एक गीली मिट्टी के घडे के समान होता है इसे जिस रूप में ढाला जाए वो उस रूप में ढल जाता है । जिस उम्र में बच्चे खेलने - कूदते है अगर उस उमर में उनका विवाह करा दिया जाये तो उनका जीवन खराब हो जाता है ! तमाम प्रयासों के बाबजूद हमारे देश में बाल विवाह जैसी कुप्रथा का अंत नही हो पा रहा है । बालविवाह
एक अपराध है, इसकी रोकथाम के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग को आगे आना चाहिए । लोगों को जागरूक होकर इस सामाजिक बुराई को समाप्त करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए । बाल विवाह का सबसे बड़ा कारण लिंगभेद और अशिक्षा है साथ ही लड़कियों को कम रुतबा दिया जाना एवं उन्हें आर्थिक बोझ समझना । क्या इसके पीछे आज भी अज्ञानता ही जिमेदार है या फिर धार्मिक, सामाजिक मान्यताएँ और रीति-रिवाज ही इसका मुख्‍य कारण है, कारण चाहे कोई भी हो इसका खामियाजा तो बच्चों को ही भुगतना
पड़ता है ! राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और प. बंगाल में सबसे ख़राब स्थिति है । अभी हाल ही में आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है । रिपोर्ट के अनुसार देश में 47 फीसदी बालिकाओं की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में कर दी जाती है । रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 22 फीसदी बालिकाएं
18 वर्ष से पहले ही माँ बन जाती हैं । यह रिपोर्ट हमारे सामाजिक जीवन के उस स्याह पहलू कि ओर इशारा करती है, जिसे अक्सर हम रीति-रिवाज़ व परम्परा के नाम पर अनदेखा करते हैं ।

         बाल विवाह को रोकने के लिए सर्वप्रथम 1928 में शारदा एक्‍ट बनाया गया व इसे 1929 में पारित किया गया । अंग्रेजों के समय बने शारदा एक्‍ट के मुताबिक नाबालिग लड़के और लड़कियों का विवाह करने पर जुर्माना और कैद हो सकती है । इस एक्‍ट में आज तक तीन संशोधन किए गए है । शारदा एक्‍ट महाराष्‍ट्र के एक प्रसिद्ध नाटक 'शारदा विवाह' से प्रेरित होकर बनाया गया । राजस्‍थान में बीकानेर रियासत के तत्‍का‍लीन महाराजा गंगासिंह ने इसे लागु करने के लिए सर्वप्रथम प्रयास किए थे । इसके पश्‍चात सन् 1978 में संसद द्वारा बाल विवाह निवारण कानून में संशोधन कर इसे पारित किया गया । जिसमे विवाह की आयु लड़कियों के लिए कम से कम 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल निर्धारित किया गया । बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006 की धारा 9 एवं 10 के तहत् बाल विवाह के आयोजन पर दो वर्ष तक का कठोर कारावास एवं एक लाख रूपए जुर्माना या दोनों से दंडित करने का प्रावधान है । तीव्र आर्थिक विकास, बढती जागरूकता और शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी अगर यह हाल है, तो जाहिर है कि बालिकाओं के अधिकारों और कल्याण की दिशा में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है । क्या बिडम्बना है कि जिस देश में महिलाएं राष्ट्रपति जैसे
महत्वपूर्ण पद पर आसीन हों, वहाँ बाल विवाह जैसी कुप्रथा के चलते बालिकाएं अपने अधिकारों से वंचित कर दी जाती हैं । बाल विवाह न केवल बालिकाओं की सेहत के लिहाज़ से, बल्कि उनके व्यक्तिगत विकास के लिहाज़ से भी खतरनाक है । शिक्षा जो कि उनके भविष्य का उज्ज्वल द्वार माना जाता है, हमेशा के लिए बंद भी हो जाता है । शिक्षा से वंचित रहने के कारण वह अपने बच्चों को शिक्षित नहीं कर पातीं ।



आज की प्रस्तुति के आरंभ में आदरणीय साधना वैद जी की सुंदर रचना
अनमना मन
हमको फिर से
मौन रहना
भा गया है !
फिर वही पतझड़ का मौसम
फिर वही वीरान मंज़र
दर्द के इस गाँव का
हर ठौर पहचाना हुआ सा
हैं सुपरिचित रास्ते सब 
और सब खामोश गलियाँ
साथ मेरे चल रहा है दुःख
हम साया हुआ सा !


बादलों की ओट से झांकता है चाँद 
ये भापूर्ण रचना है....  आदरणीय रेखा जोशी जी 
आ गये हम तो यहाँ परियों के देश में
यहाँ चाँदनी पथ पे बिखेरता है चाँद
…………………………………
दीप्त हुआ चाँदनी से चेहरा तेरा
रोशन हुआ आलम जगमगाता है चाँद
........................................... ..........


आदरणीय सुरेन्द्र शुक्ला " भ्रमर" जी अपनी कविता चीख रही माँ बहने तेरी -क्यों आतंक मचाता है
के माध्यम से समझाने का प्रयास कर रहे हैं, उन युवाओं को जिनके कदम आतंकवाद की ओर बढ़ रहे हैं.....
मार-काट नित खून बहाना
कुत्तों सा निज खून चूसना -
खुश होना फिर- कौन मूर्ख सिखलाता है
नाली के कीड़े सा जीवन क्या 'आजादी' गाता है
==============================
कितनी आशाएं सपने लेकर
माँ ने तेरी तुझको पाला
क्रूर , जेहादी भक्षक बनकर
बिलखाया ले छीन निवाला

   आदरणीय ज्योति देहलीवाल जी  बता रही हैं...
एक इंसान जिसने देशभक्ति की भावना को जाग्रृत करने का सही तरीका बतलाया!
राष्ट्रगान अनिवार्य करवाने के पीछे सरकार की मंशा ज़रुर देशप्रेम की भावना को जाग्रृत करने की रही हो लेकिन किसी भी भावना को कानून के डंडे से जाग्रृत नहीं किया जा सकता। अब सवाल उठता हैं कि देशप्रेम की भावना को जाग्रृत कैसे किया जाए? तो इस सवाल का जबाब दिया हैं तेलंगाना के करीमनगर जिले के जम्मिकुंटा कस्बे के एक पुलिस ऑफिसर प्रशांत रेड्डी ने। उन्होंने गांव के लोगों से बात करके...इसी वर्ष 15 अगस्त के दिन से सभी को राष्ट्रगान के लिए तैयार किया। जब यहां पहली बार राष्ट्रगान हुआ तो लोगों को कुछ भी समझ में नहीं आया। बहुत से लोग तो अपने काम में ही लगे रहें। जो लोग खड़े भी हुए वो सावधान मुद्रा में नहीं थे। लेकिन अब लोगों को राष्ट्रगान के नियमों की पूरी जानकारी हो गई हैं। प्रशांत रेड्डी जी की पहल से वहां के लोगों में देश के प्रति सम्मान बढ़ रहा हैं।

आदरणीय जयन्ती प्रसाद शर्मा  की लघु-कथा
स्वाभिमान
शान्त स्वर में कहा “ठीक है तुम रहो, मैं जा रहा हूँ"।
अगले ही पल स्वाभिमानी पिता का निस्पंद शरीर कुर्सी पर लुढ़क गया।

आदरणीय पल्लवी सक्सेना  जी के विचार....
प्रद्युम्न ह्त्या कांड (बच्चे तो आखिर बच्चे ही होते हैं)
यह कैसी मानसिकता है आज कल कि नयी पीढ़ी की प्रद्युम्न हत्या कांड अपने आप में बहुत से सवाल उठता है। लोग कहते है प्रतियोगिता का ज़माना है, आगे बढ़ना उतना ही ज़रूरी है जितना जीने के लिए सांस लेना। लेकिन कोई यह क्यूँ नहीं कहता कि प्रतियोगिता का दौर तो हमेशा से रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आज की पीढ़ी में इतना आक्रोश क्यूँ ? अपने लोगों में अर्थात अपने यार दोस्तों में अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए व्यक्ति किसी की जान ले लेने पर अमादा हो जाये। परीक्षाएँ पहले भी होती थी। प्रतियोगिता का दौर तभी था। बल्कि पहले तो बहुत ज्यादा था जब बच्चों के पास महज डॉक्टर, इंजीनियर, वकील बहुत हुआ तो सरकारी कर्मचारी बनाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण हुआ करता था। इस के अतिरिक्त तो कोई और विकल्प सोचा भी नहीं जा सकता था। परंतु आज तो ऐसा नहीं है। बल्कि आज तो सफलतापूर्वक जीवन जीने के इतने संसाधन
हो गए है कि मेरे जैसे लोगों तो बहुत से विषयों के बारे में ठीक तरह से पूरी जानकारी भी नहीं है। फिर आज भी क्यूँ छात्रों/छात्राओं का जीवन अंकों में सिमटी ज़िंदगी की तरह हो गया है। अंक नहीं तो मानो जीवन नहीं, अंक न हुए मानो जल हो गया। जल ही जीवन है से बात पलट कर अंक ही जीवन है हो गयी है।

अब अंत में...आदरणीय महेन्द्र वर्मा जी    की खूबसूरत रचना....
पूजा से पावन
                 चेहरे  उनके  भावशून्य  हैं  आखों  में  भी  नमी  नहीं,
                 वे  मिट्टी  के  पुतले  निकले  पहले  जो  इन्सान  लगे ।
                 उजली-धुँधली यादों की जब चहल-पहल सी रहती है,
                 तब  मन  के  आँगन का कोई कोना क्यों वीरान लगे ।










धन्यवाद।

सोमवार, 27 नवंबर 2017

864... यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।!

कहते हैं हौंसले बुलंद हो ,रास्ते खुद -ब -खुद मिल जाते हैं। 
डरिये नहीं ! आज मैं कोई लेख लिखने नहीं आया हूँ और न ही किसी समस्या पर विमर्श करने। 
आज मैं ब्लॉगिंग की दुनिया में सशक्त महिला रचनाकारों से आपका परिचय कराने आया हूँ। 
कुछ नवांकुर तो  कुछ फलदायक वृक्ष 
ब्लॉगिंग दुनिया के स्तम्भ बनकर खड़े हैं। 
इन्हें नमन है मेरा 
रचनाकार परिचय 
आदरणीया 
  • विभा रानी श्रीवास्तव जी 
  • यशोदा अग्रवाल जी
  • मीना शर्मा जी 
  • रेणु बाला जी 
  • साधना वैद जी 
  • पम्मी सिंह जी 
  • अपर्णा वाजपई जी 
  • सुधा देवरानी जी 
  • ऋतु आसूजा जी 
  • कविता रावत जी 
  • नीतू ठाकुर जी 
  • एवं 
  • श्वेता सिन्हा जी   

↖एक सशक्त हस्ताक्षर ,एक सशक्त सन्देश↗

सादर अभिवादन 



 उम्र के  इस पड़ाव पर , दर्पन में दिखता है ,आड़ी-तिरछी लकीरे चेहरे पर  ,
बसंत - पतझड़  , अनेको देख - देख  , आँखें , धुंधलापन पा गई ,
गर्मी - बरसात की अधिकता सह-सह,” शरीर “अस्वस्थ हो गया , लेकिन   ,

 पुनः और पुनः ....



 लिखी जाती है कविता... 
किसी कवि की कलम से... 
उतरती है सियाही कागज पर..



 आओ हम तुम
बन जाएँ हमसफर,
हो जाएगी आसान
ये मुश्किल भरी डगर ।


 मुद्दत      बाद   सजी   गलियां     रे  -
गाँव    में    कोई    फिर   लौटा    है   !
जीवन     बना    है     इक    उत्सव    रे   - 
गाँव    में    कोई  फिर  लौटा    है     !  !


  जीवन की दुर्गमता मैंने जानी है , 
अपनों की दुर्जनता भी पहचानी है , 
अधरों के उच्छ्वास बहुत कह जाते हैं , 
निज मन की दुर्बलता मैंने मानी है । 


 स्वतंत्रता  तो उतनी  ही है  हमारी          
जितनी लम्बी बेड़ियों  की डोर 
हर इक ने इच्छा, अपेक्षा, संस्कारो और सम्मानों 
की 



 पलाश के लाल-लाल फूल 
खिलते हैं जंगल में,
मेरा सूरज उगता है 
तुम्हारी आँखों में,



 उर्वरक धरती कहाँ रही अब?
सुन्दर प्रकृति कहाँ रही अब ?
कहाँ रहे अब हरे -भरे  वन?
ढूँढ रहा है जिन्हें आज मन
      
 सफ़र की शुरुआत
बड़ी हसीन थी
हँसते थे ,मुस्कुराते थे
चिड़ियों संग बातें करते थे


 दिल देने की भूल कर  बैठे
कहते सुनते आए से जिसे
वे भी करने लगे प्यार
बस इसी प्यार की खातिर


आज भी मै ढूँढ़ता हूँ उस गली में वो निशाँ, 
जिनके साये में सनम तेरे दीवाने हो गए, 

 किसी की तलाश है
नन्हा जुगनू 
छूकर पलकों को
देने लगा 


 यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।!





रविवार, 26 नवंबर 2017

863....दिल खींचने के नजारे भी बहुत थे

सादर अभिवादन...
है तो रविवार आज..
दिन भी है छुट्टी का
होने के बाद भी छुट्टी
नहीं न है छुट्टी..
ढेरों काम हैं लम्बित..
पर आज रविवार नहीं है..
शनि का शाम से..... रवि की 

तैय्यारी हो रही है...
   नव प्रवेश त्रय  

मां बनने का अहसास......प्रियंका "श्री"
जब लिया था गोद मे
पहली बार तुम्हे
खुद से ही डर गई थी मैं
डर था । न कोई
तकलीफ दे दु तुम्हे
आख़िर मां जो बन गयी थी मैं।।

हारे भी बहुत थे...शकुन्तला शाकु
गर हौसला होता तो किनारे भी बहुत थे
तूफान में तिनके के सहारे भी बहुत थे

ये बात अलग है कि तबज्जो न दी हमने
दिल खींचने के नजारे भी बहुत थे
कोशिश कर रहा हूँ मैं....मीना गुलियानी
तेरे साथ मेरे हमदम हमेशा रहा हूँ मैं
मुझे जिस तरह से चाहा वैसा रहा हूँ मैं

तेरे सर पे धूप आई तो मैं पेड़ बन गया
तेरी जिंदगी में कोई वजह रहा हूँ मैं

.....



पूजा से पावन....महेन्द्र वर्मा
जाने -पहचाने  बरसों के  फिर  भी   वे अनजान लगे,
महफ़िल सजी हुई है लेकिन सहरा सा सुनसान लगे ।

इक दिन मैंने अपने ‘मैं’ को अलग कर दिया था ख़ुद से,
अब जीवन  की  हर  कठिनाई  जाने क्यों आसान लगे ।


ठंडी का मौसम आया...कुलदीप कुमार
चलो बैठते हैं आग के किनारे | 
कोहरा भी होता है इस दिन,
देख कर चलो भईया नहीं तो 
भिड़ोगे  किसी दिन ||



आ जाऊँगा मैं.....पुरुषोत्तम सिन्हा
भीग रही हो जब बोझिल सी पलकें,
विरह के आँसू बरबस आँचल पे आ ढलके,
हृदय कंपित हो जब गम में जोरों से,
तुम टूटकर न बिखरना, याद मुझे फिर कर लेना,
पलकों से मोती चुन लेने को आ जाऊँगा मैं

आज बस..
आज्ञा दें
यशोदा ..









शनिवार, 25 नवंबर 2017

862.... हाइकु



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
लेखन से कभी वास्ता नहीं रहा
ना वैसे माहौल में रही
ब्लॉग की दुनिया में आई तो
पढ़ने के शौक ने लेखन की तरफ खिंच लिया
लिखना तो चाहती हूँ बड़ी बड़ी रचनाएँ
लेकिन आकर्षित करती है छोटकी-छोटकी रचनाएँ
जैसे लघुकथाएं और

अनुवादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक" 

ओड़िया अनुवाद :

पुरुणा पोखरी
बेंगुलि गला दउड़ि
छपाक. स्वर ।


पूछती रही
मानवता का पता
व्याकुल नदी !



रँग रही हैं
बादलों की कूँचियाँ 
सपने मेरे 
-मिथिलेश बड़गेनियाँ


हाथ – हाथ में
बात – बात में खिले
मैं और तुम।




04 दिसंबर 2017 101 वें वर्ष में 13वां हाइकु - दिवस 
आप भी अपने स्तर से मनाएं और तस्वीर मुझे भेजने का कष्ट करें
09 दिसंबर के पोस्ट में संकलित करूंगी
सादर


><><
फिर मिलेंगे




शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

861 भाषा की मर्यादा


सादर अभिवादन
मर्यादा " 
एक शब्द या कोई बंधन नहीं, जीवन के व्यवहारिक व्यवस्था का 
संपूर्ण सार है।  भाषा की मर्यादा, जिससे हमारे 
चरित्र और व्यक्तित्व का आकलन किया जाता है।
आज  ऐसे परिदृश्य देखने को मिल रहे जिससे पता चल रहा है
सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करने वाली   विधायिका,न्यायपालिका और कार्यपालका, जैसी संंस्थाएँ, जो समाज पर प्रभावी स्थान रखती हैं इनसेे जुड़े लोगों के द्वारा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते वक्त 
जिस स्तरहीन भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है 
उससे भाषा की मर्यादा पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है।
सवाल यह है हम किस दिशा में जा रहे?? 
आनेवाली पीढ़ी को क्या दे रहे ??
चिंता इस बात की है कि भाषा के भीतर बढ़ता भ्रष्टाचार एक असाध्य रोग की भाँति हमारे मानवीय मूल्यों को खोखला न कर जाये,
कृपया सोचियेगा अवश्य।

चलिए अब पढ़ते है आज की रचनाएँ.....

वक्त के पहिये अनवरत घूमते है परिदृश्य बदलकर भी कुछ चीजें 
शाश्वत रहती है इन्हीं उच्च भावों को शब्द देती
आदरणीया यशोदा दी की कलम से प्रसवित रचना
धरोहर से

अनुभव नए
शब्द नए
दर्द भी नया
पर कलम वही...

मनन नया
चिन्तन नया
भाव नये
पर कलम वही

जन्मदिन पर दी जाने वाली शुभकामनाओं पर नायाब मुक्तक 
आदरणीय अमित जी की इंद्रधनुषी लेखनी से
उड़ती बात से
रूहानी एक कविता का, सुनहरा छंद लायी है
गुलाबों के चमन से माँगकर, गुलकंद लायी है
ख़ुशी बनकर सँवरकर आयी है,तुमको दुआ देने
जन्मदिन हो मुबारक, मुस्कुराकर गुनगुनायी है।

मानवीय संवेदना का मौन रह जाना आजकल आम है इसी विषय पर
 आदरणीया अपर्णा जी की लेखनी से मन झकझोरती रचना
बोल सखि रे से
जानता हूँ व्यस्त हैं सब, 
मर गयी है सम्वेदना, 
फिर भी है उम्मीद........ 
कोई न कोई बचा ही लेगा 
ज़िंदा होगा इंसान किसी न किसी शरीर में जरूर...

मौसम के रंगों में भाव भरती आदरणीय पुरुषोत्तम जी की 
सुंदर कृति जीवन कलश से

व्यथित थी धरा, थी थोड़ी सी थकी,
चिलचिलाती धूप में, थोड़ी सी थी तपी,
देख ऐसी दुर्दशा, सर्द हवा चल पड़ी,
वेदनाओं से कराहती, उर्वर सी ये जमी,
सनैः सनैः बर्फ के फाहों से ढक चुकी.....

हृदयस्पर्शी भावों से भरी आदरणीया मीना जी की लेखनी से 
निसृत रचना चिड़िया से

कुछ समय बाद देखा
जमीं पर लाल अक्षरों में
उसी लहू के रंग से
उसने लिखा था एक शब्द
ढ़ाई आखर का 

हृदय की कोमल भावों को रेशमी भावों के रूहानी एहसास को 
शब्द देती आदरणीया रेणु जी की क्षितिज से
किसी के सर्वस्व समर्पण ने - 
महका दिया है ---
तुम्हारे अंग - प्रत्यंग को ,
तभी तो तुम्हारी देह ----
नज़र आती है हरदम -- 
किसी खिले फूल सी ---- ! ! 


अंतर्मन की अनकहे भावों को शब्दों में पिरोती 
आदरणीया अनीता जी की कलम से बहती भावपूर्ण 
सरिता अनु की दुनिया से



हाँ !
ख़ामोशी  से जलना
आता है मुझे
अपने अंदर उमड़ रहे
सवालों को समेटकर.......
उदासी की सफ़ेद  चादर
ओढ़ना  पसंद है मुझे
चाहे तुम मुझे पढ़ो  या न पढ़ो ...!
मेरी स्याह रातें

अभी - अभी..खामोशी का परचम
डॉ. इन्दिरा गुप्ता की कलम से..विविधा पर


खामोश जुबाँ 
खामोश नजर 
खामोश 
बसर खामोश ! 

आज के लिए बस इतना ही
आप सभी के बहुमूल्य सुझावों
की प्रतीक्षा में


श्वेता

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