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गुरुवार, 30 जून 2016

349 ... ज़िंदगी खूबसूरत है, काश ये बात सच हो

सुप्रभात मैं संजय भास्कर एक बार फिर से हाजिर हूँ
पढ़िए मेरी पसदीदा रचनाएँ :)



वो तुम्हारा इन्तजार करना                  
सब कुछ छोड़ कर तुम्हे याद करना
खुद पर हँसती हूँ,
जब याद आता है वो बचपना मेरा
मेरा पागलपन सा लगता है !


कुछ बातें हैं दिल में,
जिनको मैं बताना चाहता हूँ।
पर कोई नहीं मिलता सुनने वाला,
इसलिए लिख देना जानता हूँ।


न डर तू सलोनी....
बहुत तेज है धूप संसार की
सुलभ छाँव तेरे लिए प्यार की
उदासी मिटा वेदना मैं हरूँ
अरी लाडली तू बता क्या करूँ !

किसी के हाथों में किताबें देख
किसी का दिल मचल रहा था
छोटी-छोटी ख़्वाहिशें पाले नन्हा दिल
ज़िंदगी की धूप में जल रहा था !


संध्या शर्मा 
वो बुदबुदाती रहती है अकेली
जैसे खुद से कुछ कह रही हो
या दे रही हो, उलाहना ईश्वर को ?
स्वयं ही तो चुना था उसने
पति के जाने के बाद


शेखर सुमन 
अपने देश से हर किसी को प्यार होता है
पर भारत के लोगों का प्यार थोड़ा अलग है,
उन्हें साफ-सुथरा देश चाहिए लेकिन सफाई नहीं करना चाहते, रिश्वत से उन्हें सख्त नफरत है
लेकिन कुछ रुपये देकर काम बन रहा हो तो ज़रा भी पीछे नहीं हटते

आज्ञा दें भास्कर को
अगले गुरुवार को फिर मिलेंगे तब तक के लिए अलविदा

संजय भास्कर






बुधवार, 29 जून 2016

348..मर्म धर्म का खो गया, खोया आपस का लाड़

सादर अभिवादन

समय सदा गढ़ता रहा, 
कर दुःखों के वार।
हँसकर हम सहते रहे, 
तब पाया सत्कार॥
-अनिता

चलिए चलते हैं आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर...
ये है तो नया ब्लॉग पर रचनाकार पुराने हैं
वर्डप्रेस में लिखते हैं अभी भी
यादें के नाम से यह ब्लॉग आज ही दिखाई पड़ा
पहली बार


पुष्पेन्द्र सिंह..
जीत जाने का हार जाने का
किसी को पाने का
खुद के टूट जाने का
फरेब और प्यार
विश्वास और घात
इसके कारण नहीं होते
ये तो बस माध्यम ही है.............



'वाॅव!!! डायमंड सेट! यह मेरे लिए है?'
'हां मेरी जान! तुम्हारे लिए।'
'लेकिन आज तो कोई सालगिरह नहीं है?'
'तुम्हें गिफ्ट देने के लिए मुझे किसी दिन की जरूरत थोड़े ही है। यह तुम्हारे लिए है 
और हां आज दिन भर मैं तुम्हारे साथ ही हूं।' रोहन ने लीना के गालों पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
'अरे वाहहह! आज दिन भर तुम मेरे साथ हो! यह तो इस डायमंड सेट से भी बड़ा गिफ्ट है मेरे लिए।' 

जो 'लाई' फाँका किये, रहे मलाई चाट |
कुल कुलीन अब लीन हैं, करते बन्दर-बाट ||

दूध फ़टे तो चाय बिन, दिखे दुखी सौ शख्स।
गाय कटे तो दुख कहाँ, दिया कसाई बख्स ||


न जाने क्यों 
लौट आती हैं 
बार बार ज़हन में, 
किसी चलचित्र की तरह 
तैरने लगती हैं आँखों में, 
बचपन की अठखेलियाँ, 
छुटपन के दोस्त/सहेलियाँ , 
अल्हड़ सा यौवन , 
अनसुलझी पहेलियाँ ! 
याद तो होगा तुम्हें भी !! 

बरसा तो खूब जम कर शब भर पानी 
फिर भी तिश्नगी लब पर छोड़ गया है

गुल पत्ते बूटे शाख शजर हैरां हैरां से 
ये कौन हमें बे मौसम झिंझोड़ गया है

कुछ कमियाँ ...
कुछ नादानियाँ रही होंगी

कुछ भरोसे की ...
तो कुछ आशाओं की बात रही होगी

आज की अंतिम रचना
कुछ यूँ है..
मन धरती पर हैं उगे, संदेहों के झाड़।
जब छोटी सी बात भी, बनती तिल से ताड़।

मर्म धर्म का खो गया, खोया आपस का लाड़
अब आगन्तुक को मिलें, घर के बंद किवाड़॥

रचनाकार है... सुजानगढ़, राजस्थान की
-अनिता मंडा

इसी के साथ आज्ञा दीजिए
कल बारिश हो गई (संजय भाई आ गए)
तो नहीं आऊँगी
सादर..



मंगलवार, 28 जून 2016

347...झूठ सारे सोने से मढ़ कर सच की किताबों पर लिख दिये जायें

सादर अभिवादन
आज भाई कुलदीप जी कार्यालय के काम से
शहर से बाहर हैं
आज पढ़िए मेरी पसदीदा रचनाएँ...


जब भी जुनून ले के कोई जिद से डट गया
ये देखो आसमान तो सपनों से अट गया

आकर करीब देखा तो जलवा सिमट गया
"कैसा था वो पहाड़ जो रस्ते से हट गया"

बधाइयाँ स्वीकारिए
पार्टी दीजिए
** सुप्रभात मंच** बिहार शाखा का गठन
मुझे पूर्ण विश्वास है कि विभारानी श्रीवास्तव जी के 
नेतृत्व में यह संस्था हिन्दी साहित्य के प्रति 
निष्ठा से कर्तव्य का पालन करेगी ।
-सुरेशपाल वर्मा जसाला

हर दिन ,हर वक़्त 
हर पल ,हर सेकंड 
कोई न कोई खबर आती है 
मरने की  ... 
मैं भी तो हर रोज़ मरती हूँ 



राशिदा और दानिश बहन भाई थे| उनकी गोलट शादी रौनक और इमरान के साथ हुई थी| समय के साथ राशिदा के दो बच्चे हुए किन्तु रौनक माँ न बन सकी| इसी कारण दानिश ने रौनक को तलाक दे दिया था और वह मायके आ गई थी| भाई दानिश के इस कदम से राशिदा पर आफत आ गई|


किसलय का डोलता अंचल ,
नदी पर गहरी स्थिर लहरें चंचल
झींगुर की रुनक झुनक सी नाद ...
करती  हैं कैसा संवाद
पग  धरती विभावरी ,
धरती श्यामल शीतलता  भरी,

और चलते-चलते पढिए ये शीर्षक रचना....
जमाने से सड़ गल गये 
बदबू मारते कुछ 
कूड़े कबाड़ पर अपने 
इत्र विदेशी महंगी 
खरीद कर छिड़की जाये 
मैय्यत निकलनी चाहिये थी 

दें इज़ाज़त दिग्विजय को
सादर



सोमवार, 27 जून 2016

346....राजधानी वापस चले जाना आँख मूंद कर सो जाना

सादर अभिवादन
यूँ ही.....कुछ रद्दी पेपर का
व्यवस्थापन कर रही थी
एक कीमती अखबार का पन्ना
हांथ लग गया..
आप भी देखिए उस पन्ने की कतरन...


रिम झिम बारिश
का रूठ जाना
बादल का फटना
एक गाँव का
बह जाना
आपदा के नाम
पर पैसा आना
अखबार के लिये
एक खबर बन जाना


श्यामनन्दन किशोर...
चमड़ी मिली खुदा के घर से
दमड़ी नहीं समाज दे सका
गजभर भी न वसन ढँकने को
निर्दय उभरी लाज दे सका

शान्तनु सान्याल...
न उसकी ख़ता, न कोई जुर्म था मेरा,
आग की फ़ितरत है लपकना, सो
जिस्म ओ जां सुलगा गया।
यूँ तो ज़िन्दगी थी
अपने आप में
ख़ुशहाल


मालती मिश्रा...
हम नभ के आज़ाद परिंदे
पिंजरे में न रह पाएँगे,
श्रम से दाना चुगने वालों को
कनक निवाले न लुभा पाएँगे।

सुषमा वर्मा...
जब तुम जा रहे थे,
मैं भी तुम्हारी आँखों में कुछ ढूंढ रही थी,
जो कभी मेरे लिये हुआ करता था....
जिसे महसूस करके,
मैंने जिंदगी के तमाम ख्वाब बने थे...


ऊपर पाँच रचनाओं के सूत्र तो जुड़ गए...
खुशकिस्मत रचनाओं के सूत्र भी है
जो एक बार चर्चा में आ चुकी है
और दुबारा आने को बेताब है...
नीचे दे रही हूँ..

रेवा टिबड़ेवाल..
हर सुबह करवाता
तू मुझसे कितनी मनुहार
कभी गुस्से मे
गुमा देता बाँसुरिया अपनी
कभी कानों के कुण्डल पर
खड़े हो जाते सवाल ,


सुमन....
एक हद तक
जीये जा सकते हैं सब सुख
एक हद तक ही
सहा जा सकता है कोई दुख
सरल सी चाही हुई जिंदगी में
मिलती हैं कई उलझने
बेहिचक बदल देते हैं हम रास्ता
मनचाहे को पाने के लिए


आज्ञा दें यशोदा को...
बुध को फिर मिलेंगे














रविवार, 26 जून 2016

345..सोच अब अपनी सयानी हो गयी

 सुप्रभात मित्रो
सादर प्रणाम
आज की प्रस्तुति

  निजता
उसनें एकदिन पूछा
तुम्हें कभी निजता के संपादन की जरूरत महसूस हुई?
मैंने कहा हां एकाध बार
उसने पूछा कब?
मैंने कहा जब कोई ख्याल
सार्वजनिक तौर पर कयासों की देहरी पर
बेवजह टंग गया
और बहस मेरी रूचि न बची थी
उसे बचाने के लिए निजता को
सम्पादित करना पड़ा है मुझे
   
  भीख या माध्यम 
ज़िन्दगी मांगती है भीख
हर रोज़
खुशियों अरमानो सम्बन्धों
पैसो की भी
पर सच में पैसो की किसी को जरूरत है क्या
…..शायद नहीं
ये तो बस माध्यम है बाकी सब पाने का
जीत जाने का हार जाने का
किसी को पाने का
खुद के टूट जाने का
फरेब और प्यार
विश्वास और घात
इसके कारण नहीं होते
ये तो बस माध्यम ही है


  हाईकू (एक प्रयास )
साथ दीखते
धरा और गगन
कभी न मिले |
२-
बनी रहती
सुख -दुःख में दूरी
पट न पाती |
३-
हैं एक साथ
कुम्भ में राजा -रंक
कोई न भेद |
    

  प्रतिशोध
सावन का महीना आकाश काले बादलों से पट गया था, लगता था जल्दी ही बारिश होगी। आजी दलान में से चिल्ला रही थीं- ‘‘अरे!ऽ ऽ ऽ दिपना रे ऽ ऽ ऽ जल्दी चऊअन (जानवरों) के भीतर कर, बुन्नी पड़ले बोलत है।’’ आभा की माँ बाहरी आँगन से जल्दी-जल्दी कपड़े समेट रही थी। दोनों चाची भीतरी आंगन से सामान अन्दर कर रही थीं। आभा अपने छोटे भाई-बहनों के साथ द्वार पर तालियाँ बजा-बजा कर जोर-जोर से चिल्ला रही थी- ‘‘आन्ही पानी आवले, चिरयिया ढ़ोल बजावेले।’’
   

ग़ज़ल "सुर्ख काया जाफरानी हो गयी"
उम्र की अब मेजबानी हो गयी
सुर्ख काया जाफरानी हो गयी
सोच अब अपनी सयानी हो गयी
चदरिया भी अब पुरानी हो गयी
ज़िन्दग़ी की मेहरबानी हो गयी
इश्क की पूरी कहानी हो गयी

अब दीजिए आज्ञा
धन्यवाद
विरम सिंह 

शनिवार, 25 जून 2016

344 ..... आज नहीं ये काम चलो कल कर लेंगे




सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष


मुझे यकीन कल पे है
अगले पोस्ट पे जब हमारी भेंट होगी
इस ब्लॉग की सालगिरह होगी






अपनी आँखों का समन्दर पिया है मैंने !
दाग दामन में नहीं दिल पे लिया है मैंने !!

खामोश मोहब्बत को दम तोड़ने भी दो !
ये जुर्म कुछ ऐसा संगीन किया है मैंने !!





अपनी   जहां का जुल्म,
रिसते घाव खुरचता रहता है,
कभो कोइ मठाधीश,
कभी कोइ सत्ताधीश 
 सत्ताएँ स्वार्थ का केंद्र हो रही है





लाल हरिअर अनेको रंगक सभ
देखमे नीक लागै छै टिकली

पाँखि फहराक देखू जे उडि-उडि
दूर हमरासँ भागै छै टिकली






तेरेे दिल की धडकन ही 
सुनने के लिए काफी है--
शहनाईया बजती है कहा कैसे..बिन
रिशते तेरे हो कर जिए,
इतना ही मेरे लिए काफी है-




खिलौने और टाफियाँ नही हैं...मेहनत की रोटियाँ हैं सिर्फ़
खेल के मैदान नही हैं...कारखाने और कोठियाँ हैं सिर्फ़
वो जानता है कि क्या चीज़ ज्यादा ज़रूरी है
कि वो एक दिन की कमाई से बाप के लिए दवाई लाता है
और दो दिन की कमाई से वो बहन के लिए दुपट्टा लता है






याद रात पर भारी पड़ी थी, उजाला किसी नवजात शिशु सा 
खिड़की से झाँक रहा था। फजर के  अजान की ध्वनि 
दयाल बाबू को ईशा सी लग रही थी। जैसे वो अभी उठकर 
स्टेशन की ओर चल देंगे। कलाई पर बंधी घड़ी में टाइम देखते
 है और वाकई में वो उठकर चल देते है,





जो गीत नहीं हम होठों पर आ पाया आज
वो गीत चलो कल गा लेंगे
कल ज़ख्म यह सब भर जायेंगे
यह दुबला अश्क़ो में
कल जब खुशिया घर आएंगे


फिर मिलेंगे ..... तब तक के लिए
आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव






शुक्रवार, 24 जून 2016

343... सिर्फ मुस्कुराने की आदत होनीचाहिये...


जय मां हाटेशवरी...

आनंद ही आनंद है...
बस पढ़ने का जनून होना चाहिये...
ज़िन्दगी एक हसीन ख्वाब है...
 जिसमें जीने की चाहत होनीचाहिये...
 गम खुद ही खुशी में बदल जायेंगे...
 सिर्फ मुस्कुराने की आदत होनीचाहिये...
अब पेश है...कुछ चयनित कड़ियां....
अभिभावक भी अपना कर्तव्य समझें
s320/Accident11
यहाँ समझने वाली बात ये है कि स्कूल के बच्चे को बाइक किसी घर से ही मिली होगी. चाहे वो उसका अपना घर रहा हो अथवा उसके किसी दोस्त का. क्या उनके माता-पिता का
दायित्व नहीं बनता है वे बच्चों को बाइक चलाने से रोकें. यहाँ दुर्घटना होने की स्थिति में प्रशासनिक लापरवाही से अधिक पारिवारिक लापरवाही का मामला सामने आता
है. ऐसी कई-कई दुर्घटनाएँ नदियों, बाँधों, रेलवे ट्रेक, सड़क, आदि पर आये दिन दिखाई देती हैं.

राष्ट्रभक्तों को समर्पित २३ जून
s1600/spmukherjee
डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी (जन्म: 6 जुलाई, 1901 - मृत्यु: 23 जून, 1953) महान शिक्षाविद्, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप
में भारतवर्ष की जनता उन्हें स्मरण करती है। एक कट्टर राष्ट्र भक्त के रूप में उनकी मिसाल दी जाती है। भारतीय इतिहास उन्हें एक जुझारू कर्मठ विचारक और चिन्तक
के रूप में स्वीकार करता है। भारतवर्ष के लाखों लोगों के मन में एक निरभिमानी देशभक्त की उनकी गहरी छबि अंकित है। वे आज भी बुद्धिजीवियों और मनीषियों के आदर्श
हैं। वे लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में आज भी समाये हुए हैं।

कुर्सी
है धोखे में पड़ा
कि संसार चलाता है।
अमीरों की है सुनता
बस पैसा उगाता है,
ज़मीनें बंजर हो रहीं, देखो
किसान फंदा लगाता है।

उड़ता पंजाब की लेट समीक्षा
उड़ता पंजाब की कहानी उस पंजाब की कहानी है, जो हम लोग परदे पर नहीं आम जनजीवन में देखते हैं। यह वही कहानी है, जिसकी वजह से बठिंडा से बीकानेर तक जाने वाली
ट्रेन कैंसर एक्सप्रेस में बदल जाती है। यही वह कहानी है जिसकी वजह से यह एक राजनीतिक मुद्दा बनना चाहिए लेकिन बन नहीं पाता। फिल्म उस गहरे सियासी चक्र को छूती
तो है लेकिन उसको खोलती नहीं है।

ये मोहब्बत
छोडो यार ये इश्क़ है ये तुम्हारे बस की बात नहीं यहां दिखावो का खेल नहीं चलता सिर्फ दिल की बात होती है














यक-ब-यक जागके
वही लम्हा तुम्हारी हसरतें करता है बयाँ
इश्क में भीग के बैठी हो – लेके अंदाज़ नया
कभी आँखों पे आकाश उठा लेती हो -
कभी तारों को उन आँखों में समाते देखा..!


चमचमाती दिल्ली का सच
जिसमें दिल्ली में झुग्गी-बस्तियों की जनसंख्या 20,29,755 (सही आंकड़े 40 लाख से अधिक है) है।
यूएनडीपी के ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2009 में कहा गया है कि मुम्बई में 54.1 प्रतिशत लोग 6 प्रतिशत जमीन पर रहते हैं। दिल्ली में 18.9 प्रतिशत, कोलकता में 11.72 प्रतिशत तथा चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं।

आज की प्रस्तुति बस यहीं तक....
 अभी ना पूछो मंज़िल कँहा है,...
 अभी तो हमने चलने का इरादा किया है।...
ना हारे हैं ना हारेंगे कभी...
 ये खुद से वादा किया है।...
धन्यवाद।







गुरुवार, 23 जून 2016

342...संगमरमरी फर्शों पर ही,पाँव फिसलते देखे हैं !


सादर अभिवादन
भाई संजय आज नहीं हैं
नेट की शिकायत कर रहे थे
पर आनन्द को आना है
सो आएगा ही....

हंसराज सुज्ञ....
करत करत अभ्यास के और जड़मति होत सुजान!!
तब संत ने उसे समझाया, "यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे,
तो कुछ ही दिनों में ये बांस के तानेबाने फूलकर छिद्र बंद हो जाएंगे और तुम टोकरी में पानी भर पाओगे।
 इसी प्रकार जो निरंतर सत्संग करते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है,
अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और टोकरी में गुणों का जल भरने लगता है।"


आस  उड़ेलती ,
रंग पलाश सी ,
आज  …,
झर झर  बरसती है कविता !!
यूँहीं कुछ बोलती है कविता !!

प्रेम हो ललकार हो या वेदना का संग
साधना की तूलिका ने भर दिये सब रंग।।


वो गुजरा जमाना जो हम तुम मिले थे है 
बीता फ़साना जो हम तुम मिले थे| 
बदलना अँगूठी को इक दूसरे से 
वो दिन था सुहाना जो हम तुम मिले थे| 



आज की शीर्षक रचना...

बड़े बड़ों के,सावन में अरमान मचलते देखे हैं 
सावन भादों की रातों, ईमान बहकते देखे हैं !

गर्वीले, अय्याश, नशे में रहें , मगर ये याद रहे  
संगमरमरी फर्शों पर ही,पाँव फिसलते देखे हैं !


भाग रही हूँ..
सुबह के पाँच बजे हैं अभी
आज्ञा दें
यशोदा



बुधवार, 22 जून 2016

341..गुज़रते वक़्त का कोई मेरा हमदर्द होगा

सादर अभिवादन

आज की प्रस्तुति मिली जुली सरकार की ओर से
कुछ मेरी पसंद के हैं..और
कुछ मेरी सरकार की पसंद के
ये सब इन्टरनेट के चलते है...
हम दोषी नहीं है ....





......संकलन से
: एक खूबसूरत सोच :
अगर कोई पूछे जिंदगी में क्या खोया और क्या पाया,
तो बेशक कहना, जो कुछ खोया वो मेरी नादानी थी और जो भी पाया वो प्रभु की मेहरबानी थी, खूबसूरत रिश्ता है मेरा और भगवान के बीच में, ज्यादा मैं मांगता. नहीं और कम वो देता नहीं.. 


कालीपद "प्रसाद"...
सारी सारी रात-जग जिन के लिए
पूछते वे जागरण किन के लिए |1|
चाँद तारों तो झुले हैं रात में
एक सूरज को रखा दिन के लिए |२|
 




मालती मिश्रा..
'आधुनिक नारी' यह शब्द बहुत सुनने को मिलता है। कोई इस शब्द का प्रयोग अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए करता है मसलन "मैं आधुनिक नारी हूँ गलत बात बर्दाश्त नहीं कर सकती।" 
तो दूसरी तरफ कुछ लोग इस शब्द का प्रयोग ताने देने के लिए भी करते हैं, जैसे-"अरे भई ये तो आधुनिक नारी हैं बड़ों का सम्मान क्यों करेंगी।"





राजेश त्रिपाठी..
देखो कुटिया का दम अब घुटता है।
सामने इक महल आ तना  होगा।।

उसकी आंखों में अब सिर्फ आंसू हैं।
सपना सुंदर-सा छिन गया होगा।।


आज की शीर्षक रचना... 


दिगम्बर नासवा...
किसी उजड़े हुए दिल का गुबारो-गर्द होगा
सुना है आज मौसम वादियों में सर्द होगा


मेरी आँखों में जो सपना सुनहरी दे गया है
गुज़रते वक़्त का कोई मेरा हमदर्द होगा

आज्ञा दें मिली जुली सरकार को..
फिर मिलेंगे..
दिग्विजय












मंगलवार, 21 जून 2016

340...योग दिवस की शुभकामनाएं....

जय मां हाटेशवरी...

आप सभी को भारत के गौरव का प्रतीक "विश्व  योग दिवस" की अशंख्य शुभकामनाएं....
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून को मनाया जाता है। पहली बार यह दिवस 21 जून 2015 को मनाया गया जिसकी पहल भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर 2014
को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण से की थी जिसमें उन्होंने कहा:-
"योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक हैं; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है; विचार, संयम और पूर्ति प्रदान
करने वाला है तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी प्रदान करने वाला है। यह व्यायाम के बारे में नहीं है, लेकिन अपने भीतर एकता की भावना,
दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवन शैली में यह चेतना बनाकर, हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता हैं। तो आयें एक अंतर्राष्ट्रीय
योग दिवस को गोद लेने की दिशा में काम करते हैं।"

योग दिवस प्रारम्भ यूँ ,मानो कोई पर्व।
सचमुच इस उपलब्धि पर,भारत को है गर्व।।
दर्ज हुआ इतिहास में,देखो इक्किस जून।
योग मनोमष्तिष्क को,देगा बड़ा सुकून।।
बिन औषधि बिन डॉक्टर,मानव बने निरोग।
जिससे यह सम्भव हुआ,कहते उसको योग।।
बरसों के बीमार को,दो दिन में आराम।
खुद ही करके देखिये,प्रातः प्राणायाम।।
योग एक व्यापक चिकित्सकीय विज्ञान है। प्राचीन योगियों और गुरुओं स्वभाव से और उनके आसपास रहने वाले हर बात से प्रभावित थे। अपने आसपास के मजबूत प्रभाव जानवरों
के नाम पर विभिन्न योग से परिलक्षित होता है।

11 दिसंबर २० १४ भारतीय इतिहास के पन्ने की वह तारीख है ,जब संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली द्वारा २१ जून को पूरे विश्व में  इंटरनेशनल योग दिवस के रूप में हर
साल मनाए जाने की घोषणा की गयी। यह दिन समस्त भारतवासियों के गौरव को बढ़ाने  वाले दिन के रूप में याद किया जायेगा। इसका श्रैय देश के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र
मोदी को जाता है ,जिन्होंने वर्ष २०१४ ,सितंबर २७ के संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली में योग को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाए जाने की अनुशंसा की थी।

विश्व योग दिवस
महर्षि पतंजलि के अनुसार - ‘‘अभ्यास-वैराग्य द्वारा चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण करना ही योग है।’’
विष्णुपुराण के अनुसार -‘‘जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग ;अद्वेतानुभुति योग कहलाता है।’’
भगवद्गीताबोध के  अनुसार- ‘‘दुःख-सुख, पाप-पुण्य,शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण आदि द्वन्दों से अतीत ;मुक्तद्ध होकर सर्वत्र समभाव से व्यवहार करना ही योग है।’’


जिसे अपना नहीं बस दूसरों का दर्द होगा ...
बहा कर जो पसीना खेत में सोना उगा दे
हज़ारों में यकीनन एक ही वो मर्द होगा
कहाँ है तोड़ने का दम किसी की बाज़ुओं में
गिरा जो शाख से पत्ता यकीनन ज़र्द होगा

पक्षी
मंद मंद बयार चली
मयूर की थिरकन बढी
देखी व्योम में काली घटाएं
वर्षा की संभावना जगी
अपने मधुर स्वर से मयूर ने
उसके आने  का आगाज किया |

पितृत्व
सृष्टि का श्रेय आँचल में समाये
मुदित परितृप्ति का प्रसाद,
मिल गया मुझे,
और देहानुभूतियों से परे,
मन की विदेह-व्याप्ति
अड़े रहते
वाकर पर चलते
फ़ुदक फ़ुदक
सहारे पर उन्हें गुस्सा आता
वे लाचारगी से डरते।
कभी-कभी अपने विद्रोह पर खिसियाता मैं
क्षमाप्रार्थी के तौर पर प्रस्तुत होता
पिता बस मुस्कुरा देते
धन्यवाद।





सोमवार, 20 जून 2016

339..साया बन कर साथ चले थे ,साथ हमारे आज भी हो।

सादर अभिवादन,,
एक गीत याद आ रहा है
बोल है....
रुक जाना नहीं तू कहीं हार के
शायद अंत में इसका लिंक भी रख दूँ
सभी के पग लड़खड़ा रहे हैं...
26 और कदम बाकी है...
हमारे श्रीमान जी कहते हैे..कर सको कुछ अच्छा
तो कर डालो...नहीं तो..जैसा चल रहा है
चलने दो..हम जब तक जिएँगे..तब तक प्रस्तुतियाँ बनाएँगें

चलिए चलें आज की पढ़ी रचनाओं की ओर...

सुनाती राग जीवन का तेरी पायल तेरी चूड़ी ,
कराती प्रीत का एहसास तेरी पायल तेरी चूड़ी ,
कहे बंधन जग इनको ये बड़ी भूल है उनकी, 
मेरी धड़कन में बसती  है तेरी पायल तेरी चूड़ी ।


विभा दीदी...
कड़क छवि ...... 
अनुशासन .... 
कायदे कानून ..... 
केयरिंग ..... 
हम छोटे भाई बहन को ..... 
बड़े भैया में देखने को मिले ..... 
यानि पिता का जो रोल 
हम सुनते पढ़ते आये 
वो रोल तो बड़े भैया निभाये .....
हमारे पिता (मेरे पिता + मेरे पति के पिता) बेहद सरल इंसा थे


हुज़ूर के चैंबर से इन्कलाब दहकने आया
गुलाब की क्यारियों में इत्र महकने आया

न था वक्त, मिला भी तो तुम न मिले –
कुछ यादों के लिफ़ाफ़े थे, पटकने आया !



डॉ. जेन्नी शबनम....
गहरा नाता  
मन-आँखों ने जोड़ा  
जाने दूजे की भाषा,  
मन जो सोचे -  
अँखियों में झलके  
कहे संपूर्ण गाथा !

मैं, उम्रभर
तुम्हारे उन अव्यक्त 
और अस्पष्टाक्षर शब्दों
के अर्थ तलाशने को ,
शब्द-मीमांसाओं के अंतर-जाल
भेदता रहा .....


तपती धूप में राहत देता रहा
बचपन झुलाता रहा गोद में
कभी दौडकर चढ़ते 
कभी पत्ते तोड़ते
कभी पकड़ कर मुझे झूलते तुम
तुम अकेले कब होते थे
पूरी चौकड़ी थी


डॉ. विकास बाबा आमटे
नीबू के छिलके में ५ से १० गुना अधिक विटामिन सी होता है
और वही हम फेंक देते हैं। नींबू के छिलके में शरीर कॆ
सभी विषैले द्रव्यों को बाहर निकालने कि क्षमता होती है।
नीबू का छिलका कैंसर का नाश करता है इसका छिलका कीमोथेरेपी से 10,000 गुना अधिक प्रभावी है





शीर्षक कथा

बहुत याद आते हो तुम रोने को जब दिल करता  है ,
पापा ऐसा क्यों लगता है ,साथ हमारे आज भी हो। 

अपनी छाया में रखते थे ,अलग कभी भी नहीं किया ,
साया बन कर साथ चले थे ,साथ हमारे आज भी हो।


चलते-चलते पता ही नहीं चला
पर अब कुछ नहीं हो सकता
सूचनाएँ जा चुकी है,,
आज्ञा दें...यशोदा को

रुक जाना नहीं...



































रविवार, 19 जून 2016

338....हम भी हुए तमाम तुझे देखने के बाद

सुप्रभात 
सादर प्रणाम 
आज 19 जून अर्थात फादर्स डे है ।
आप सब को फादर्स डे की बहुत बहुत बधाई




भरी धूप में छाँव सरीखे
तूफ़ानों में नाव सरीखे
खुशियों में सौ चाँद लगाते
साथ-साथ आशीष पिता के


हाथ पकड़ कर
भरी सड़क को पार कराते
उठा तर्जनी
दूर कहीं गंतव्य दिखाते
थक जाने पर गोद उठाते
धीरे-धीरे कोई कहानी कहते जाते
साथ-साथ आशीष पिता के


दिन भर खटते
शाम ढले पर घर को आते
हरे बाग में खेल खिलाते
घास काटते
फूलों को मिल कर दुलराते
तार जोड़ते नल सुधराते
साथ-साथ आशीष पिता के


- पूर्णिमा वर्मन


आइए अब चलते है आज की प्रस्तुति की ओर ...■●






तपता सूर्य
बदहाल करे है
जीने न देता |

जलते पैर
दोपहर धूप में
कैसे निकलें |

बिन बदरा 
जल की है फुहार 
राहत मिली |
कारे बदरा 
झूम झूम बरसों 
इंतज़ार है |

        
कोई तो फ़ासला है जो तय नही होता  
सदियों का सफ़र लम्हे में तय नही होता ! 

अजनबी से रिश्तों की गवाही क्या  
महज़ कहने से रिश्ता तय नही होता !

गगन की ऊँचाइयों पर सवाल क्यों  
यूँ शिकायत से रास्ता तय नही होता ! 

        
देर रात एक हादसा हुआ,
ग़लती से चाँद झील में उतर गया,
मैंने देखा उसे,
सतह पर चुपचाप पड़ा था,
पर ज़िन्दा था, क्योंकि हिल रहा था.

मैं परेशान था कि उसे बचाऊं कैसे,
झील से उसे निकालूँ कैसे,
इसी उधेड़बुन में सुबह हो गई.


         हम भी हुए तमाम तुझे देखने के बाद


मैंने  किया  सलाम  तुझे  देखने  के  बाद ।

दिल को मिला मुकाम तुझे देखने के बाद ।।

शरमा  गया  है  चाँद  तुम्हारे  शबाब  पर ।
 खत में लिखा पयाम तुझे देखने के बाद ।।

आवाज आ  रही  तिरे  कूचे से रूह तक ।
ये  चैन   है  हराम  तुझे  देखने  के  बाद ।।



आज घर में बहुत चहलपहल थी। विदेश से छोटा बेटा और बहु आ चुके थे। आवभगत में कोई कमी न रहे उसके लिए सासु माँ एक पैर पर खड़ी थी। बड़ी बहु और बेटा भी बड़े शौक से अगवानी कर रहे थे।
बुआ जी ने हँसते हँसते कहा- क्या बात है भाभी, बहु पर कितना प्यार लुटाओगी।

सासु माँ ने बड़े प्यार से कहा- यह बिचारी तो कभी कभी आती है। सालों भर तो यह प्यार बड़ी के हिस्से आता है।
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