मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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भोर की अधखुली पलकों में अलसाये/ज्यों ही खिड़कियों के परदे सरकाये
एक नम हवा के झोके ने दुलराया
एक नम हवा के झोके ने दुलराया
झरोखे के बाहर फैले मनोरम दृश्य से/मन का फूल खिला जोर से मुस्काया
टिपटिपाती बारिश की मखमली बूँदे/झूमते पेड़ की धुली पत्तियों ने लुभाया
फुदककर नहाती किलकती चिड़िया/घटाओं ने नीले आसमां को छुपाया
भीगती प्रकृति की सुषमा में खोये/भाव विभोर मन लगे खूब हरषाया
टिपटिपाती बारिश की मखमली बूँदे/झूमते पेड़ की धुली पत्तियों ने लुभाया
फुदककर नहाती किलकती चिड़िया/घटाओं ने नीले आसमां को छुपाया
भीगती प्रकृति की सुषमा में खोये/भाव विभोर मन लगे खूब हरषाया
हाथ में चाय की प्याली और अखबार/ देखनेे शहर का क्या समाचार आया
ओह चार दिन से हो रही बारिश ने/गली मुहल्ले में है आफत बरसाया
कल रात ही एक घर की दीवार ढही/जिसके नीचे मजदूर ने बेटा गँवाया
मौसमी बीमारियों से भरे अस्पताल/दवाखानों में भी खूब मुनाफा कमाया
कल रात ही एक घर की दीवार ढही/जिसके नीचे मजदूर ने बेटा गँवाया
मौसमी बीमारियों से भरे अस्पताल/दवाखानों में भी खूब मुनाफा कमाया
सफाई के अभाव में बजबजाती नाली ने सारे कचरे को सड़कों पर फैलाया
बदबू और सड़ांध से व्याकुल हुये लोग/चलती हवा में साँस लेना मुहाल हो आया
अभी तो नदियों के अधर भी न भींगे है/नाले का पानी घरों में घुसा कहर बरपाया
अखबार मोड़कर रखते हुये सोचने लगे/ऊफ्फ्फ इस बारिश ने कितनों को सताया
अखबार मोड़कर रखते हुये सोचने लगे/ऊफ्फ्फ इस बारिश ने कितनों को सताया
बोझिल हुआ मन दुर्दशा ज्ञात होते ही/है ये ख़ता किसकी रब ने सुधाजल बरसाया
कंकरीट बोता शहर विकास की राह पर/तालाब भरे नालियों पे ही आशियां लगाया
वज़ह चाहे कुछ भी हो सच बस इतना ही/बारिश ने शहर की खुशियों में ग्रहण लगाया
छत की खिड़कियों से दिखती है सुंदर बरखा
सच की धरातल ने तो सारा खुमार उतराया।
#श्वेता🍁
कंकरीट बोता शहर विकास की राह पर/तालाब भरे नालियों पे ही आशियां लगाया
वज़ह चाहे कुछ भी हो सच बस इतना ही/बारिश ने शहर की खुशियों में ग्रहण लगाया
छत की खिड़कियों से दिखती है सुंदर बरखा
सच की धरातल ने तो सारा खुमार उतराया।
#श्वेता🍁
आज की रचनाएँ-
कोई कभी अनाथ हुआ कब
वह पग-पग साथ निभाता है,
कैसे जीना इस जीवन में
ख़ुद आकर सदा सिखाता है !
कदमों में गति वही भरे है
श्वासों में बनकर प्राण रहा,
नहीं कभी कोई भय व्यापे
अंतर में दृढ़ विश्वास भरा !
ज़ख्मों की कसक हो अपनी जरूरी तो नहीं,
दर्द किसी का,अश्क हों अपने क्या कहिए?
कुछ पन्ने अतीत के खुलते ही छलक गए ,
क्या कहाँ चुभा निकले आँसू क्या कहिए?
यह सोचने की बात है कि इस तरह की अनर्गल टिप्पणियों की निंदा या भर्त्सना होने के बावजूद लोग क्यों जोखिम मोल लेते हैं। समझ में तो यही आता है कि यह सब सोची समझी राजनीति के तहत ही खेला गया खेल होता है। इस खेल में ना कोई किसी का स्थाई दोस्त होता है ना हीं दुश्मन। सिर्फ और सिर्फ अपने भले के लिए यह खेल खेला जाता है। इसके साथ ही यह भी सच है कि ऐसे लोगों में गहराई नहीं होती, अपने काम की पूरी समझ नहीं होती इन्हीं कमजोरियों को छुपाने के लिए ये अमर्यादित व्यवहार करते हैं। इसका साक्ष्य तो सारा देश और जनता समय-समय पर देखती ही रही है !
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आज के लिए बस इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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