सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
दिन गुज़रते हैं फिर भी
वक़्त थमा हुआ सा है.
ये एक अजीब मौसम है
शादियों का त्यौहार
इसमें दिन और रात का हिसाब
आपस में गड्डमड्ड सा हो गया है
कर्कशा महिलाएं
मचाता उथल- पुथल इस कदर कि वह अब चींख कर कहना चाहती थी
,"गाय गुड खाती हैं,गाय गुड खाती हैं।
मगर जाने उसके होंठो को क्या हो गया
दबी भावनाओं के साथ फैलते चले जाते और निकाल देते
ऐसे शब्द जो नही कहने होते और
न ही सुनने होते किसी को
" गाय गु..खाती है ,गाय गु.. खाती हैं
आप कहते हो तो चले जाते है
वो ख़्वाब-ए-खलिश या कशिश थी कोई ,
वो इस तरह ख़्यालों को बे-ख़्याल बनाते हैं।
कैसे कहूं अब यह बात मैं ।
वो नही बे-यक़ीन मगर ,
बे-यक़ीन का यक़ीन क्यों दिलाते है
खुल कर जिओ
जब भी कोई ऐसे व्यक्ति का विचार , जो मेरे मन को दुखी करता है
तो मैं स्वतः ही उससे बाहर निकलने का प्रयास करती हूँ
और उसमें कामयाब भी हो जाती हूँ
सच मानिये मेरे पास ऐसा कोई भी नहीं है ,
जिसके साथ मैं अपनी परेशानियों को बाँट सकूँ ।
मगर मैंने जीवन से सीखा है .............
अंत भला तो सब भला
इस बात को समय अपने साथ चलाते चलाते स्वीकारना सिखला देता है।
इस सफर में क्या खोया पाया क्या दिया लिया समस्त हानि लाभ को
इकठ्ठा कर इन सबका हिसाब किताब भले ही करके
हम अपने मन को व्यथित करें पर इससे हमारा कुछ भला नही होता
उलटे अपनी ही ऊर्जा का क्षरण करते रहते हैं हम घुट घुट कर
बात इतनी सोचना तुम
हाथ में उनके फ़कत तारीकियाँ ही रह गयीं
तुमसे पहले जो गये थे रोशनी को छोड़कर
ख़ाक पे आये तो आके ख़ाक में ही मिल गये
वो सफ़ीने जो कि आये थे नदी को छोड़कर
साथ देना चाहते हो साथ रहकर तो सुनो!
सब गवारा है मुझे धोखाधड़ी को छोड़कर
उसकी आँखों में
मन की धरती
सुनती है तुम्हारे शब्द
जो उपजते हैं समर्पण से
पूरी निष्ठा के साथ
जैसे पहरूए तैनात हैं
अपने प्राण देकर
सरहद के पक्ष में
सपने में कई रंग भरे
उस पहाड़ी पर चढ रही हूँ जहाँ से
बादलो में
छुपा सूरज अंधेरे
को खाकर ,
डकार मार
आसमान मे मुस्कराकर
ठहर जाता हैं
सपने में कई रंग भरे हैं
फिर मिलेंगे .... तब तक के लिए
आखरी सलाम
विभा रानी श्रीवास्तव
मचाता उथल- पुथल इस कदर कि वह अब चींख कर कहना चाहती थी
,"गाय गुड खाती हैं,गाय गुड खाती हैं।
मगर जाने उसके होंठो को क्या हो गया
दबी भावनाओं के साथ फैलते चले जाते और निकाल देते
ऐसे शब्द जो नही कहने होते और
न ही सुनने होते किसी को
" गाय गु..खाती है ,गाय गु.. खाती हैं
आप कहते हो तो चले जाते है
वो ख़्वाब-ए-खलिश या कशिश थी कोई ,
वो इस तरह ख़्यालों को बे-ख़्याल बनाते हैं।
कैसे कहूं अब यह बात मैं ।
वो नही बे-यक़ीन मगर ,
बे-यक़ीन का यक़ीन क्यों दिलाते है
खुल कर जिओ
जब भी कोई ऐसे व्यक्ति का विचार , जो मेरे मन को दुखी करता है
तो मैं स्वतः ही उससे बाहर निकलने का प्रयास करती हूँ
और उसमें कामयाब भी हो जाती हूँ
सच मानिये मेरे पास ऐसा कोई भी नहीं है ,
जिसके साथ मैं अपनी परेशानियों को बाँट सकूँ ।
मगर मैंने जीवन से सीखा है .............
अंत भला तो सब भला
इस बात को समय अपने साथ चलाते चलाते स्वीकारना सिखला देता है।
इस सफर में क्या खोया पाया क्या दिया लिया समस्त हानि लाभ को
इकठ्ठा कर इन सबका हिसाब किताब भले ही करके
हम अपने मन को व्यथित करें पर इससे हमारा कुछ भला नही होता
उलटे अपनी ही ऊर्जा का क्षरण करते रहते हैं हम घुट घुट कर
बात इतनी सोचना तुम
हाथ में उनके फ़कत तारीकियाँ ही रह गयीं
तुमसे पहले जो गये थे रोशनी को छोड़कर
ख़ाक पे आये तो आके ख़ाक में ही मिल गये
वो सफ़ीने जो कि आये थे नदी को छोड़कर
साथ देना चाहते हो साथ रहकर तो सुनो!
सब गवारा है मुझे धोखाधड़ी को छोड़कर
उसकी आँखों में
मन की धरती
सुनती है तुम्हारे शब्द
जो उपजते हैं समर्पण से
पूरी निष्ठा के साथ
जैसे पहरूए तैनात हैं
अपने प्राण देकर
सरहद के पक्ष में
सपने में कई रंग भरे
उस पहाड़ी पर चढ रही हूँ जहाँ से
बादलो में
छुपा सूरज अंधेरे
को खाकर ,
डकार मार
आसमान मे मुस्कराकर
ठहर जाता हैं
सपने में कई रंग भरे हैं
फिर मिलेंगे .... तब तक के लिए
आखरी सलाम
विभा रानी श्रीवास्तव