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रविवार, 24 अप्रैल 2016

282....जिसमें कुछ गधे होते हैं जो सारे घोडो‌ को लाईन में लगा रहे होते हैं

सादर अभिवादन...
रविवार 24 अप्रैल..
सोलह में चार माह और..
जुड़ गए..
मन को हो रहा है कि
पूरा लिख दूँ...
पर रुक गई मैंं...
आदरणीय राजकिशोर जी का आलेख पढ़कर
आप भी पढ़िए..और
लिखिए स्तरीय.....

आज की मेरी पसंदीदा रचनाओं के अंश.....
















सामान्यतः लेखक से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि 
वह पाठकों की आवश्यकताओं को संतुष्ट करे। कोई भी लेखक, सब से पहले, अपने लिए लिखता है न कि किसी और के लिए। 
साहित्य या रचना के क्षेत्र में ‘स्वांतःसुखाय’ का अर्थ यही है। लेकिन अपने सुख के लिए भी वही कुछ लिखा जाता है जिसकी समाज को जरूरत हो। अगर कोई लेखन समाज की किसी जरूरत को पूरा नहीं करता, तो वह लेखक की आत्म-रति है, जिसका उसे अधिकार है।

  किसी रचना को अगर पाठक नहीं मिले, तो इसके कम से कम दो अर्थ हो सकते हैं : रचनाकार के स्तर तक कोई पहुँच नहीं पाया या फिर वह रचना ही ऐसी थी जिसका गंतव्य रद्दी की टोकरी होती है। 









समभाव से बाँट रहा, सूरज सबको धूप.
ऊर्जा पोषित हम मनुज, खोलें मन का कूप..















तुम्हारे शब्दों का पैरहन
अब मेरे ख्यालों के जिस्म पर
फिट नहीं आता !
उसके घेर पर टँके
मेरे सपनों के सुनहरे सितारे









फिज़ाओ में 
खुशबू ,,
क्यों घुली है ,,
हवाओं में 
ठंडक क्यों हुई है 

आज की शीर्षक रचना एक अखबार की कटिंग..













गधा गधे के 
लिये भाषण 
घोड़ो के सामने 
दे रहा होता है 
किस तरह घोड़ा 
गधे की तीमारदारी 
में लगा होता है 
गधा ना होने 
का अफसोस 
किसी को 
नश्तर चुभो 
रहा होता है
......................
आज की पढ़ी हुई रचनाओं मे से चयनित पांच रचनाएँ
इज़ाज़त दीजिए यशोदा को..
कल तक के लिए..



2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर सूत्रों से सजी हलचल ! मेरी रचना 'शब्दों का पैरहन' को आज की हलचल में सम्मिलित करने के लिये आपका हृदय से आभार यशोदा जी ! बहुत-बहुत धन्यवाद !

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  2. हमेशा की तरह बढ़िया प्रस्तुति । 'उलूक' के गधे और घोड़े को शीर्षक देने के लिये आभार ।

    जवाब देंहटाएं

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