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सोमवार, 18 अप्रैल 2016

276....वाक़ई ! बाज़ार में ये बालियाँ सोने की हो जायेंगी

सादर अभिवादन

सीधे चले रचनाओं की ओर....

किसी न किसी बहाने से, कोई पुकारता नहीं,
आखों से तकरार अभी होती नहीं,
गुस्से से प्यार कोई करता नहीं,
झगडे और नोक-झोक में खोती नहीं,
झूठ-मुठ का गुस्सा अभी होती नहीं,
तेरे बिन मेरे दिल को थोड़ा बुरा- सा लगता है



वो तेरा सपनों में आना, आकर मुझको रोज सताना
मगर हकीकत में क्यूँ लगता झूठा तेरा प्यार जताना?
दिल में है संदेह तुझे मैं दुश्मन या मनमीत कहूँ?
तू ही बता कि इस हालत में कैसे तुझसे प्रीत करूँ?


"दद्दू बाबा के चरणों में जगह-जगह छेद हो गए हैं।" घीसू ने दुखी हो बताया। 
दद्दू भी दुखी हो गए, "बेटा अभी कुछ रोज पहले तो बाबा के चरण ठीक-ठाक थे।



झरोखा में...निवेदिता श्रीवास्तव
" पूर्ण विराम "  ... ये ऐसा चिन्ह है जो वाक्य की पूर्णता को दर्शाता है  । लगता है शायद उस स्थान पर आकर सब कुछ समाप्त हो गया है । यदयपि उन्ही बातों को शब्दों के मायाजाल से सजा कर कुछ अलग - अलग रूप देकर अपने कथ्य को थोड़ा विस्तार देने का प्रयास तब भी होता रहता है ।





आज की शीर्षक कड़ी...

आगत का स्वागत में...सरोज
बैसाख के अंगने में
गेहूं की बालियाँ
पककर सुनहली हो चलीं हैं ....
वाक़ई ! बाज़ार में
ये बालियाँ सोने की हो जायेंगी
ललचाता सा मेरा किसान दिल
हिदायती लह्ज़े में मुझसे कहता है
"रोज़! सहेज लेना सोने की बालियाँ
बेटी के ब्याह को काम आएँगी !

आज्ञा दें..फिर मिलेंगे
यशोदा





6 टिप्‍पणियां:

  1. शुभप्रभात....
    बहुत से भी वहुत सुंदर.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  3. शीर्षक कड़ी के साथ मेरी रचना शामिल करने का ह्रदय से आभार यशोदा। जी
    सादर
    सरोज

    जवाब देंहटाएं
  4. शीर्षक कड़ी के साथ मेरी रचना शामिल करने का ह्रदय से आभार यशोदा। जी
    सादर
    सरोज

    जवाब देंहटाएं

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