।।प्रातःवंदन।।
आ गए, कुहरों भरे दिन आ गए।
मेघ कन्धों पर धरे दिन आ गए।अ
धूप का टुकडा़ कहीं भी
दूर तक दिखता नहीं,
रूठकर जैसे प्रवासी
ख़त कभी लिखता नहीं,
याद लेकर सिरफिरे दिन
आ गए..!!
उमाशंकर तिवारी
फुर्सत के पल... कुछ खास अंदाज में बिताए बुधवार के दिन चुनिंदा लिंकों संग..✍️
यह क्षण
एक सपना ऐसा भी
बात उस समय की है जब अध्यापन के क्षेत्र में मैंने अपना पहला कदम रखा था। मैं जानती थी की यह क्षेत्र मेरे लिए जितना रुचिकर है, उतना ही चुनौतियों से भरा भी है।
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यह कविता की बंजर शाला
कोरे पृष्ठों पर अंकित होती
प्रेम-सुमन-सी अक्षरमाला,
छंद-छंद कूके कोकिल और
छम-छम नाचे सुंदर बाला।
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पुराने ख़त
पिता,
तुमने जो ख़त लिखे थे,
मैंने कभी सहेज कर रखे ही नहीं,
सोचा, क्या रखना उन ख़तों को,
जो चले आते हैं हर तीसरे..
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हिंसा तो उपेक्षा भी है
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।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
शानदार अंक
जवाब देंहटाएंसादर
बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह!शानदार अंक!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआदरणीया मैम , अत्यंत सुंदर एवं सशक्त प्रस्तुति । आज की प्रस्तुति में एक विशेष सशक्तता और गंभीरता थी । प्रेरक एवं भाव-पूर्ण रचनाओं से सजी हुई प्रस्तुति मन में नई प्रेरणा , विश्वास और दृढ़ता जगा गई । इस सुंदर प्रस्तुति के लिए अत्यंत आभार व आप सबों को प्रणाम ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
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