।।प्रातः वंदन।।
जग ले ऊषा के दृग में
सो ले निशी की पलकों में,
हाँ स्वप्न देख ले सुदंर
उलझन वाली अलकों में
चेतन का साक्षी मानव
हो निर्विकार हंसता सा,
मानस के मधुर मिलन में
गहरे गहरे धँसता सा।
जयशंकर प्रसाद
काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित
कर,काव्य की सिद्ध भाषा बनाने वाले हिंदी
के युग प्रवर्तक साहित्यकार महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की पुण्यतिथि पर भावपूर्ण स्मरण संग अब नज़र डालें चुनिंदा लिंकों पर...✍️
समस्या बतायी जा रही है
सबको दिखाई जा रही है
ये भी परेशान है
ये बात समझायी जा रही है ..
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पग-पग पर बलिहारी अंतर
कण-कण में छवि सरस समायी,
जाने कब तू उतरा नभ से
कैसे पावन धरा बनायी
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बचपन के दिन सतरंगी-सतरंगी सपने होते थे!
पलको में बन्दी बन परियों के देश पहुँचते थे!!
चिन्ताओं से परे, बेफ़िक्री जीवन होता था,
तितली को पकड़ते ,फूलो को छूते रहते थे!
मन भ्रमर बन बावरा सा
है अहम में फूलता सा
सुमन मुरझाए पड़े सब
दृश्य कुछ ये शूलता सा..
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साँस लेने के लिए ताज़ा हवा भेजी है,
ज़िंदगी के लिए मासूम दुआ भेजी है।
हामिद सरोश
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।। इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
शरद आगमन शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंअप्रतिम अंक
सादर
सुप्रभात! जय शंकर प्रसाद की सुमधुर रचना के रूप में सुंदर भूमिका और सराहनीय रचनाओं के सूत्रों से सजी हलचल, आभार पम्मी जी !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार सखी सादर
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां संकलन
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