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बुधवार, 30 नवंबर 2022

3593 ...हंसी-खुशी, दुख-आंसू तब तक जब तक भी यह जीवन है

सादर नमस्कार
जब एक मंत्री जी के दफ़्तर के बाहर बैठे 'चपरासी सर'' से पूछा गया कि 
भाई आप भीतर भेजने के लिये धन की आशा क्यों रखते हैं।

'चपरासी सर' ने दार्शनिक अंदाज़ में बताया कि 
उन्हें यह सुविधा हनुमान चालीसा में दी गयी है।
पूछने वाला चकित... पूछ ही बैठा कि बताओ भाई
 संत तुलसीदास आपके लिये यह प्रबंध कब कर गये।
'चपरासी सर' ने कहा - आपको याद है कि 
स्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा में कहा है...

'' राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसा रे''

यानी कि हनुमान जी की मर्ज़ी के बिना 
प्रभु राम के दर्शन नही हो सकते, ठीक वैसे ही...
अब रचनाएँ पढ़िए



संवाद ही है एक सेतु
संबंधों को बनाने, बढ़ाने
और उसे गहराने का
मधुर से मधुतर बनाने का  |

संवादहीनता एक शून्य
बड़ा नहीं होने देंगे
भर देंगे अपनी बातों से
उदास नहीं होने देंगे  |




मुंह में ज़ुबान तो रखता है, बस बोलता कोई नहीं,
सांप सीढ़ी के बीच झूलते हैं सभी यहां सुबह शाम,

सफ़ेद काले चौकोरों में खड़े हैं, नक़ाब पोश मोहरें,
मौक़ा मिलते ही लोग कर जाएंगे, खेल को तमाम,




रात के दूसरे पहर में रामा को प्रसव पीडा उठी, और थोडी ही देर में उसने एक नन्ही सी अबोध बछिया को जन्म दिया। सभी गायें यह सोच कर रंभानें लगीं कि शायद कोई अपने घर से निकल इस नन्ही सी बछिया और रामा की मदद कर दे। कामधेनु सही थी, मोहल्ले के कई लोग रात के एक बजे भी इन गायों की आवाज सुन घर से निकल आये। नन्ही सी बछिया को देख लोगो को यह समझते देर ना लगी कि यह नवजात बछिया है। कुछ ही देर में एक दो लोग गुड रोटी लाकर रामा को खिलाने लगी, एक ने आकर नन्ही बछिया को मोटे से बोरे से लपेट दिया। सभी गायें तो क्या मोहल्ले भर के लोग भी इस नवजन्मा को आशीष दे रहे थे।



कविगण रास कवित से खेले
भूतल नभ तक के फेरे
अंबर नील भरा सा दिखता
रूपक गंगा के घेरे
मोहक कल्प तरू लहराए
रचना का डोला हिलता।।




बढ़े हाथ को थामा जिसने
पग-पग  में जो सम्बल  भरता,  
वही परम हो लक्ष्य हमारा
अर्थवान जीवन को करता !




चमकती सफेद चाँदी
के रंग में या फिर
स्वर्ण की चमक से
ढले हुऐ हिमालय
कवि सुमित्रानंदन की
तरह सोच भी बने
क्या जाता है
सोच लेने में
वरना दुनियाँ ने
कौन सी सहनी है
हँसी मुस्कुराहट
किसी के चेहरे की




हंसी-खुशी, दुख-आंसू तब तक
जब तक भी यह जीवन है ।।
फिर अनंत तक का सफर अनवरत
टूटा हर एक बंधन है ।।

तिरस्कार, उपहास, मान के
सारे किस्से बेमानी
गागर सागर में डूबी तो
मिलता पानी से पानी
.....
अब बस
सादर


मंगलवार, 29 नवंबर 2022

3592 ..फ्रीजर में रखा नींबू का रस बारह महीने तक खराब नहीं होता

सादर अभिवादन

ढलते हुए सूरज को
देखकर हर कोई अपने
घर की लाइट जला लेता है,....
मगर .....
ढलती उम्र देखकर भी
अपने "आत्मा" की
लाइट जलाने की कोशिश
कोई नहीं करता।

आज एक चित्र..

इस चित्र को देखकर एक रचना लिख दीजिए
और उस रचना को सोमवार को पोस्ट कीजिए
मैं उस रचना को मंगलवार के अंक में स्थान दूँगी

रचनाएँ


ज्यों फिसलती रेत
अपने आप,
पाँचों उँगलियों से
रोक न पाती हथेली ।
उम्र की बढ़ती उमर
दर्पण दिखाता,
झाँकते केशों की लड़ियाँ
बन रहीं अनुपम सहेली ॥




नद-नाले का फर्क मिटाया,पनघट कुएं सभी प्यासे।
धरती का सीना अब फाड़े,रूठ गए अब चौमासे।
छीन लिया माता का आँचल,अपने सुख को पाने में।
उजड़ रही ये बगिया सारी,लगा चाँद पर जाने में।



नमक की खेती करने वाले, 
जोगिनीनार - कच्छ का एक गाँव
साल्टेड लेज चिप्स
के साथ  रेड लेबल की
चुस्की लेने वाले
टेस्ट ( स्वाद)  की
बातें तो खूब करते हैं
पर
उन्हें जोगनीनार के
अगरिया परिवारों के
दर्द से कोई
वास्ता नहीं !




न वो नेकी रही, न ही दरिया का है कोई सुराग़,
गले मिलने भर से कोई पूरा आशना नहीं होता,

ज़रूरी तो नहीं कि नरम धूप तुम तक ही पहुंचे,
महज किसी एक लिए नीला आस्मां नहीं होता ।




फ्रीजर में रखा नींबू का रस बारह महीने तक खराब नहीं होता है। विशेषज्ञों के अनुसार फ्रीजर में रखे खाद्य सामग्री की nutrition value as it is रहती है।
• नींबू का रस जब उपयोग मे लेना हो तब ही फ्रिज में से नींबू के रस की बोतल बाहर निकाले। बाहर निकालने के बाद जितना चाहिए उतना नींबू का रस बोतल में से निकालने के बाद बोतल तुरन्त फ्रिज में वापस रख दीजिए। इससे नींबू का रस खराब नहीं होगा।
• ठीक इसी तरह फ्रीजर से नींबू के रस की बोतल निकालने के बाद डिफ्रॉस्ट होने के बाद उसमें से भी जरूरत के हिसाब से नींबू का रस निकाल कर उसे भी तुरंत फ्रीजर में रख दीजिए।
.........
शायद ठीक इसी तरह हमलोग
कच्चे आम का रस भी सहेज सकते हैं
.......
हमारी सहयोगी पम्मी सिंह जी अपने बेटे का ब्याह कर रही है
अग्रिम शुभकामनाएँ

अगले माह 4 दिसम्बर को ब्याह है 
सो दो-तीन सप्ताह मैं बुधवार के लिए
अतिथि चर्चाकार आमंत्रित करती हूँ
संभावित अतिथि 
सखी रेणु जी, सखी अभिलाषा जी,सखी अनुराधा जी
सखी मीना भारद्वाज जी, सखी सुधा देवरानी जी और सखी जिज्ञासा जी
कृपया सहमति प्रदान करें
कल बुधवार के चर्चाकार
मेरे सबकुछ दिग्विजय जी होंगे


आज इतना ही

सादर 

सोमवार, 28 नवंबर 2022

3591/ न जाने कलम क्यों जाती थम!

 

नमस्कार !  आज करीब एक माह पश्चात यहाँ  आना हुआ ........ ब्लॉग जगत की सैर करते हुए  एक ही  डायलॉग बोलने का मन हुआ  कि ----- " इतना सन्नाटा क्यों है भाई " ..... ऐसा लग रहा  कि लोगों ने ब्लॉग पर लिखना ही शायद छोड़ दिया है या धीरे धीरे सब  चेहरे की किताब ( फेसबुक )  में शामिल हो गए हैं .... खैर ...... प्रयास किया है इस सन्नाटे को तोड़ने का ........लायी हूँ कुछ नयी  पुरानी तहरीरें  .... शायद पसंद आयें ........ 

इस लोक में भ्रमण करते हुए पारलौकिक अनुभव यदि मिले तो कैसा अद्भुत संजोग होगा ? ...... वैसे मेरा भी मानना है  कि ऐसे अनुभव होते हैं .....ऐसे अनुभव की  साक्षी  मैं स्वयं भी रही हूँ . 

पारलौकिक अनुभव


बस तभी से भोलेनाथ जपने लगी। मेरे प्रत्येक कठिन समय में भी उन्होंने मेरी उँगली थामे रखी और न जाने कितने अनुभव कराये, कभी शिशु भाव से तो कभी मित्र भाव से ... कभी-कभी तो मातृ भाव भी। मुझे लगता कि मुझको तो देवा प्रत्येक कठिनाई से निकाल लायेंगे और सारी तीक्ष्णता स्वयं पर ले लेंगे, परन्तु मैं पीड़ित होती थी कि यदि मैं इतनी परेशान हो जाती हूँ तो उनको कितना कष्ट पहुँचता होगा। 

आत्माओं की बात  पढ़ती हूँ तो बहुत रोमांच  हो आता है , ऐसा भी जाना समझा है कि  आत्माएँ अपने परिजनों की आत्मा को लेने आती हैं ...... शायद ऐसा ही कुछ रहा हो और निवेदिता जी को इस तरह का अनुभव हुआ हो ...... लोग इस लोक से परलोक जा कर भी रिश्ते निभाते हैं ,जब कि यहाँ रहते हुए कौन कितने रिश्ते संभालता है ये सोचने की बात है ........ इसी पर आइये पढ़ते हैं   दो कवितायेँ ....... 

शीर्षक एक है लेकिन लेखक और विषय वस्तु अलग अलग .....

रिश्ते

जितना बूझूँ, उतना उलझें

एक पहेली जैसे रिश्ते।

स्नेह दृष्टि की उष्मा पाकर,

पिघल - पिघलकर रिसते रिश्ते।


मेरे रीसायकल बिन में 

बहुत से टूटे हुए रिश्ते हैं,

कुछ मैंने तोड़ दिए थे,

कुछ ग़लती से डिलीट हो गए. 


अब रिश्ते डिलीट हों या न हों , लेकिन आज कल बहुत कुछ ज़िन्दगी से डिलीट हो जाता है अचानक ही ..... जब आर्थिक मंदी हो और नौकरियों पर अचानक गाज गिरे तो कैसा अनुभव होता है उसकी बानगी इस लघुकथा में देखिये .

“मंदी”


कैसे हो ? बहुत दिन हुए तुमसे बात नहीं हुई ?

हाल - चाल.., ठीक -ठाक ?” आदित्य के फ़ोन उठाते ही दूसरी ओर से उसके मित्र अनुज ने कुशल - क्षेम पूछी ।


कितना कठिन है ऐसी भयावह स्थिति को सहना .....वैसे तो बहुत कुछ जानते समझते भी हम लोग कितनी गलतियाँ करते हैं बिना यह सोचे कि आने वाली पीढ़ी को कितना सहना पड़ेगा ? हमारे एक ब्लॉगर साथी हैं जो प्रकृति से जुड़े हुए हैं , वो मानव को चेता रहे हैं .... काश उनकी बात सब तक पहुँच सके ....


हम जिंदा हैं


क्योंकि आज हम केवल चिंता में ही 
पिघल रहे हैं 
काश की 
धरा के साथ दरकते
और
ग्लेशियर के साथ
अंदर से

पिघलकर टूट जाते।


प्रकृति तो स्वयं ही संतुलन करती रहती है ......मनुष्य अपनी मनमानी  करता है तो प्रकृति अपनी , लेकिन उन पुरुषों का क्या ? जो सदैव केवल अपनी मनमानी करके परिवार का जीना दूभर किये रखते हैं ...... ऐसी ही एक सत्य घटना को उजागर किया है इस संस्मरण में .... 


मैं भी आगे बढी, देखा एक आदमी बीच रोड पर लेटा है, नशे की हालत में ।  गार्ड उसे उठाने की कोशिश कर रहा है,गुस्से के साथ । 
तभी एक अधेड़ उम्र की महिला ने आकर गार्ड के साथ उस आदमी को उठाया और किनारे ले जाकर गार्ड का शुक्रिया किया । 
नशेडी शायद उस महिला का पति था। थोडा आँखें खोलते हुए,महिला के हाथ से खुद को छुडाते हुए, लड़खड़ाती आवाज में चिल्ला कर बोला, "मैं घर नहीं आउँगा"। 

ओह ! तो  जनाब घर के गुस्से में पीकर आये हैं;  सोच कर मैने नजरें फेर ली,

वैसे कहने  को  तो ये सब संस्कार की ही बात होती है , लेकिन हम लोगों की कथनी करनी में इतना अंतर होता है कि बच्चे समझ ही नहीं पाते कि सही क्या है और गलत क्या ? ऐसी ही एक लघुकथा पढ़िए - 

परीक्षा


बेटा ! ये जो मेज पर प्लेट में धुले हुए, दो सेब रखे है, जाओ एक दादी माँ को दे दो एक तुम खा लेना ।” शगुन ने बेटे से कहा ।

बेटे ने सेव उठाया और चलते-चलते.. दाँतों से कुतरना शुरू कर दिया दूर बैठी, दादी ने ये दृश्य देखा और ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ाने लगीं ।

कभी कभी बच्चे  निःशब्द  कर देते हैं न ?  ऐसे ही निःशब्द  कर देती हैं कुछ कविताएँ / रचनाएँ  ...... ज़िन्दगी में बहुत कुछ विरोधाभास  होता रहता है लेकिन  उसे साधना भी आना चाहिए ..... 

म्यान


ये म्यान मेरा है

उसकी अपनी मजबूरियां है

तो फिर वायदा - कायदा को

तोड़-ताड़ करने में

कुछ जाता भी नहीं है

ज्यादा चिढेगा वो , भागेगा

और इस खोखले म्यान को तो

खाक होना ही है |


ब मयान में दो तलवार आयें या न आयें लेकिन काव्य की एक विधा ऐसी ज़रूर है जिसमें सोच दो तरह से होती है लेकिन जवाब अलग ही होता है ..... एक झलक आप भी देखें ....


कह मुकरी


हर पल मेरी लट उलझाए

चूनर मेरी ले उड़ जाए

फिरता वो चहुँ ओर अधीरा

को सखी साजन ? 

इस विधा में सखियों का संवाद चलता है .......  हालांकि  आज तो आपस में संवाद ही कहाँ हो पाता है ?  सब बहुत व्यस्त हैं ? पर  किन  कामों में व्यस्त हैं ये नहीं पता  ....... ऐसे ही भावों को समेटा है इस रचना में .... 

बैठे ठाले



स्वेटर की तो बात दूर हैं

घर के काम लगे भारी

झाड़ू दे तो कमर मचकती

तन पर बोझ लगे सारी

रोटी बननी आज कठिन है

बेलन छोड़ कलाई से।।

ये व्यंग्यात्मक रचना को   पढ़ थोडा विचार कर लें कि क्या यही सच है?  हो सकता है कि कुछ के लिए तो सच ही होगी ......चलिए ज़िन्दगी की  एक और सच्चाई से रु -ब - रु  करवाती हूँ .....


अखंड सौभाग्य


अखंड सौभाग्यवती रहो -रमा को दादी की आवाज सुनाई दी। यह तो उनके घर का रोज का क्रम था ,जब भी माँ पूजा करके माँ के पैर छूती दादी उन्हें रोज यही आशीष देती । तब रमा को इसका मतलब पता नहीँ था

ये भी प्रेम का ही रूप है और प्रेम का एक रूप  अगली ये  रचना भी है ......



हम दर्द की राह के राही थे  
था  खुशियों से  कहाँ नाता अपना ?
तुम बन के   मसीहा ना  मिलते   
 कब  सोया नसीब जग पाताअपना  ?
खिली  मन  की  मुरझाई   कलियाँ 
 हर  पल जैसे  मधुमास  हुआ !! 

 यूँ तो अभी फाल्गुन माह आने में बहुत समय है फिर भी मधुमास की बात हो और पलाश का खिलना न याद आये ये कैसे संभव है ? वैसे भी पलाश के फूल सबको ही आकर्षित करते होंगे ..... एक खूबसूरत रचना  पेशेनज़र है ..... 


पिघल रही सर्दियाँ
झरते वृक्षों के पात
निर्जन वन के दामन में
खिलने लगे पलाश 

इतनी सुन्दर रचनाओं के बाद भी कभी कभी ऐसा ही लगता है  कि न जाने क्यों कुछ लिखा नहीं जा रहा ........ और मन में एक ही बात आती है .... 



कर अवलोकन इतिहास सृष्टि का, 
दैहिक, दैविक, भौतिक दृष्टि का. 
काल, कल्प, कुल गाथा अनंत की,
सार, असार,सुर, असुर और संत की.
जीव जगत स्थावर जंगम
तत त्वम असि एवम सो अहम.

न जाने कलम क्यों जाती थम!

और इसके साथ ही मेरी कलम भी थक  कर थम रही है .......  वैसे भी पाठक भी पढ़ते हुए थक जाते होंगे ........फिर मुलाकात होगी अगले सोमवार यहीं इसी मंच पर ...... तब तक के लिए
नमस्कार 
संगीता स्वरुप 









रविवार, 27 नवंबर 2022

3590 ..विचार करो और फिर अपने दिल की सुनो

सादर अभिवादन
अपने से बड़ों को
हमेशा सुनो,
ये जरूरी नहीं।
लेकिन जो
वो कहते है
उसको कुछ पल
जरूर दो,
विचार करो
और फिर
अपने दिल की सुनो।

रचनाएँ ...


इस धोखे से आहत सोमेश की आँखों के आगे अन्धेरा छा गया। वह हकबकाया-सा अपनी जगह पर खड़ा रह गया। धर्मिष्ठा उसे वहीं छोड़ अपने स्कूटी की ओर चल दी और उस पर सवार हो कर चली गई। सोमेश अधिक समय तक स्वयं पर संतुलन नहीं रख सका और लहरा कर जमीन पर गिर पड़ा। कुछ लड़कों ने उसे यूँ गिरते देखा तो दौड़ कर उसके पास आये और उसे सहारा दे कर बैठाया।



गर रखी है खुद में ,
काबिलियत और हुनर ,
धधकने दो ज्वाला ,
जिद और जुनून की अंदर ,
वादा करें खुद से की,
बाकी न रहेगी कोई कसर ,
कभी ऐसे भी जाल जीत का,
जरा बिछाया तो करो ।




याद नहीं कब अंजुरी भर वृष्टि - बूंद की थी चाह,
शैशव पलों में दौड़ गया था, उन्मुक्त हो बेपरवाह,

अंकुरित भावनाओं में थे चिपके हुए मासूम खोल -
नव पल्लवों को न मिल सकी कच्ची धूप की थाह,




जंगल से गुजरना
जंगल के क़रीब होना नहीं है
ठीक वैसे ही जैसे
किसी व्यक्ति के पास होना
उसके क़रीब होना नहीं है.
अपनी सुबहों में
कुछ खुद को खो रही हूँ,
कुछ खुद से मिल रही हूँ.



किसी ने क्या कहा
किस किस को दे सफाई
यही बात उसके मन को रास न आई
आधी जिन्दगी बीती कोई उसे समझ न  पाया |
ना उसके  प्यार  को समझा
ना ही तुम्हारे इकरार  को  जाना
कटु भाषण ही पहचाना |


आज इतना ही

सादर 

शनिवार, 26 नवंबर 2022

3589... एकालाप

   


  हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...

एकालाप

इन कविताओं में बहुत सारे विषय और परिस्थितियां हैं, मूर्त और अमूर्त स्थितियों का मिश्रण है, परिदृश्य की एक स्थानिकता है, एक धीमी लय, एक तलाश और अस्त व्यस्तता है, जगमगाहट के पीछे से झांकते अंधेरे कोने–कुचाले हैं, विद्रूपताएं हैं और स्थिति विपर्यय का एहसास है । सत्ता के नुमाइंदे जिस शक्ति-तंत्र को एक आम आदमी के जीवन में रचते हैं, उन नुमांइदों की आवाज को जानना है, जिसमें ‘‘ न कोई सन्देह, न भय / न भर्राई न कर्कश हई कभी / हमेशा सम पर थिर ।’’  

एकालाप

प्रियतम को आंखों का काजल बना कर सपने संजोना भले ही नई बात न हो लेकिन उसे अंतस में शीतल शब्दों की नदी के रूप में प्रवाहित करना रजनी दीप की संवेदना और सामर्थ्य को इंगित करता है. यहां काजल सिर्फ काजल भर नहीं रहता बल्कि शून्य में विलीन होने बाद भी उस तुम तक पहुंचने का माध्यम बन जाता है जिसे इस कृति में प्रियतम माना गया है. सही मायने में 'तुम' से 'तुम' तक पहुंचने की तड़फ ही इस एकालाप का सार है जो प्रेम में होने की सही परिभाषा है.

एकालाप

स्मरण रखो औ’ विश्वास करो, 

मानव हो सकता है

मात्र मानव, 

अपनी कुशलता-हताशा-पराजय के साथ भी, 

और यह गात

होना होगा इसे आत्मा से एकात्म।

एकालाप

आज के इतिहास के अभूतपूर्व दबाव का एहसास उनमें इतना गहरा था कि उन्हें अन्ततः साहित्य की सीमा का भी बोध हो गया था। इसीलिए स्वयं एक साहित्यकार होते हुए भी मुक्तिबोध यह कहने का साहस कर सके कि “साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा करना मूर्खता है।” क्योंकि “साहित्य मनुष्य के आंशिक साक्षात्कारों की बिम्ब-मालिका भर तैयार करता है।” इस कथन से, सम्भव है, हमारे साहित्यिक अहं को कुछ चोट लगे, किन्तु वस्तुस्थिति से इनकार करना कठिन है; और यह भी एक विडम्बना ही है कि साहित्य के अवमूल्यन का आभास देते हुए भी लगे हाथों मुक्तिबोध साहित्य की एक वैज्ञानिक परिभाषा भी दे गये। 

एकालाप

निराश मत होओ

क्योंकि

मृत्यु-शैय्या पर

पड़ा रोगी

अभी मरा नहीं है

और आशा की डोर

अभी टूटी नहीं है

>>>>>><<<<<<
पुनः भेंट होगी...
>>>>>><<<<<<

शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

3588.....एक टुकड़ा दिन

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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ताज़ी फूलगोभी की डंठल तोड़ते हुए
छोटे-छोटे कीड़े दिखाई दिए उन को हटाते हुए
सोचने लगी
 बैंगन , भिंडी या किसी भी सब्जी 
के कीड़े लगे हिस्से को काटकर
बाकी बचे हिस्से का प्रयोग आसानी से करते हैं 
हम। 
दैनिक जीवन की दिनचर्या में 
अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जब हम अपने
 जरूरत के हिसाब से उपभोग की जाने
वाली वस्तुओं के साथ एडजस्ट करते हैं
पर भावनाओं,संवेदनाओं,अनुभूतियों 
 से ओत-प्रोत होकर भी हम
मनुष्य, मनुष्यों के अवगुणों को,बौद्धिक कमियों
 को, छोटी से छोटी गलतियों को 
 अनदेखा क्यों नहीं
कर पाते हैं?
मनुष्य का मनुष्य के साथ एड्जस्ट कर पाना 
क्यों मुश्किल है? 
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आइये आज की रचनाओं का आनंद लें-




मेरे तुम,
मैं जिम्मेदारी बनकर 
तुम्हारे हिस्से आई ही नहीं, है 
तो मुड़कर देखना भी क्या था ! 
हां मुझसे मिला जटायु,
मेरा हाल पूछा अशोक वाटिका ने
कदम्ब मेरे आंसुओं से सिंचित होता रहा,
वृंदावन एक छायाचित्र की तरह
मेरे साथ चलता रहा
ऊधो मिले,
सुदामा मिले ... 



एक पूरी सांस भी नहीं आती
और चवन्नी सा ये दिन
खर्च हो जाता है!
इस चवन्नी में भी 
मैं अरमानों के क्रोशिए से
बुन लेती हूँ चाँद 
टाँक देती हूँ सूरज


सवाल पैरों में उलझते हैं
और सच ठोकर खाकर
दूर छिटक जाता है।
वह घूरती नज़रों में
सच देखती है
और
उसे नज़रें झुकाकर
पी जाती है।
सच ठीक वैसा ही है
जैसे स्कूल के बाहर
अधनंगे बच्चे



ख्वाहिशें हैं इक 
ख्वाब खूबसूरत सा 
गर हो जाए मुकम्मल 
लगे सारा जहाँ अपना सा  | 

ख्वाहिशों को भी 
है हक़ कि नजरों में आए 
ना कि दफ़न हो जाए 
किसी के दरिया ए दिल में  |



एक हकवारा
हाथ में लिए हुए लंबा चाबुक
बेख़ौफ़ लहरा रहा है हवा में ,
डरे सहमे हुए लोग
सर झुकाये खड़े हैं
नहीं जुटा पा रहे हैं हिम्मत
अपने चिरागों को जलाने की




बम लेकर ,हथियार लेकर भागते आते लोग आतंकी आवाजें आ रही हैं - ,हम हवाई जहाजों में बम रख देंगं ।तुम सबको मार डालेंगे ।ये स्कूल कालेज ,अस्पताल मंदिर नष्ट कर देंगे ।इस सारी सभ्यता को मटियामेट कर देंगे  मंच पर हिंसा का वातावरण इस सारी उसभ्यता को, तुम्हारी उपलब्धियों को मटिया मेट कर देंगे।

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आज के लिए इतना ही 
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही है प्रिय विभा दी।
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