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शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

3588.....एक टुकड़ा दिन

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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ताज़ी फूलगोभी की डंठल तोड़ते हुए
छोटे-छोटे कीड़े दिखाई दिए उन को हटाते हुए
सोचने लगी
 बैंगन , भिंडी या किसी भी सब्जी 
के कीड़े लगे हिस्से को काटकर
बाकी बचे हिस्से का प्रयोग आसानी से करते हैं 
हम। 
दैनिक जीवन की दिनचर्या में 
अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जब हम अपने
 जरूरत के हिसाब से उपभोग की जाने
वाली वस्तुओं के साथ एडजस्ट करते हैं
पर भावनाओं,संवेदनाओं,अनुभूतियों 
 से ओत-प्रोत होकर भी हम
मनुष्य, मनुष्यों के अवगुणों को,बौद्धिक कमियों
 को, छोटी से छोटी गलतियों को 
 अनदेखा क्यों नहीं
कर पाते हैं?
मनुष्य का मनुष्य के साथ एड्जस्ट कर पाना 
क्यों मुश्किल है? 
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आइये आज की रचनाओं का आनंद लें-




मेरे तुम,
मैं जिम्मेदारी बनकर 
तुम्हारे हिस्से आई ही नहीं, है 
तो मुड़कर देखना भी क्या था ! 
हां मुझसे मिला जटायु,
मेरा हाल पूछा अशोक वाटिका ने
कदम्ब मेरे आंसुओं से सिंचित होता रहा,
वृंदावन एक छायाचित्र की तरह
मेरे साथ चलता रहा
ऊधो मिले,
सुदामा मिले ... 



एक पूरी सांस भी नहीं आती
और चवन्नी सा ये दिन
खर्च हो जाता है!
इस चवन्नी में भी 
मैं अरमानों के क्रोशिए से
बुन लेती हूँ चाँद 
टाँक देती हूँ सूरज


सवाल पैरों में उलझते हैं
और सच ठोकर खाकर
दूर छिटक जाता है।
वह घूरती नज़रों में
सच देखती है
और
उसे नज़रें झुकाकर
पी जाती है।
सच ठीक वैसा ही है
जैसे स्कूल के बाहर
अधनंगे बच्चे



ख्वाहिशें हैं इक 
ख्वाब खूबसूरत सा 
गर हो जाए मुकम्मल 
लगे सारा जहाँ अपना सा  | 

ख्वाहिशों को भी 
है हक़ कि नजरों में आए 
ना कि दफ़न हो जाए 
किसी के दरिया ए दिल में  |



एक हकवारा
हाथ में लिए हुए लंबा चाबुक
बेख़ौफ़ लहरा रहा है हवा में ,
डरे सहमे हुए लोग
सर झुकाये खड़े हैं
नहीं जुटा पा रहे हैं हिम्मत
अपने चिरागों को जलाने की




बम लेकर ,हथियार लेकर भागते आते लोग आतंकी आवाजें आ रही हैं - ,हम हवाई जहाजों में बम रख देंगं ।तुम सबको मार डालेंगे ।ये स्कूल कालेज ,अस्पताल मंदिर नष्ट कर देंगे ।इस सारी सभ्यता को मटियामेट कर देंगे  मंच पर हिंसा का वातावरण इस सारी उसभ्यता को, तुम्हारी उपलब्धियों को मटिया मेट कर देंगे।

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आज के लिए इतना ही 
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही है प्रिय विभा दी।
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7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! सुन्दर व सटीक भूमिका के साथ खूबसूरत प्रस्तुति प्रिय श्वेता ।

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  2. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति प्रिय श्वेता! भूमिका में एक संवेदनशील प्रश्न उठाया गया है।संभवतः इन्सान स्वभाव से स्वछन्द और निरंकुश है।दूसरे से खुद को बेहतर साबित करने के लिए वह ताउम्र प्रयासरत रह्ता है।दूसरों की कमियाँ इन्सान कभी अनदेखा नहीं कर पाता क्योंकि उसे सम्पूर्णता की तलाश;सदैव ही रही है।ना जाने किस मनहूस घड़ी में इस की तलाश शूरू हुई और कभी खत्म नहीं हो सकी! आज की प्रस्तुति की सभी रचनाओं को पढ़ा सभी शानदार है। सभी रचनाकारों को सादर नमन।तुम्हें आभार और बधाई एक उत्तम लिंक संयोजन के लिए।

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  3. वाह! हम तो भूमिका के भंवर में ही घूर्णन कर रहे हैं। लाजवाब और बहुत उम्दा! सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  4. जी ! नमन संग आभार आपका .. आपकी अपनी अलहदा भूमिका शैली संग इस सतरंगी प्रस्तुति के लिए ... पर .. अब भला हम और कितने 'एडजस्टमेंट' की आशा कर सकते हैं भला .. हमारे समाज के सफल (?) वैवाहिक जीवन और चीन से होड़ लगाती जनसंख्या की विराट रफ़्तार ही तो अपने आप में 'एडजस्टमेंट' का एक विशाल उदाहरण या प्रत्यक्ष प्रमाण है .. शायद ...

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