सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
खोये-खोये से चांद पर,
जब बारिश की बूंदे बैठती,
और बादल की परत,
घूंघट में हो, उसे घेरती,
तब फिसल कर गाल पर,
एक तब्बसुम खिलने लगे,
कुछ मंद-मंद मुस्कान सी,
आंखें चमक बिखेरती,
हाथों की लकीरों पे हो जैसे,
नाम अम्बर फेरती,
यूं धरा का रंग जैसे,
अम्बर के रंग रंगने लगे,
विभा जी की लेखनी
जब प्यार का अमृत बरस के,
गिरता धरा की गोद पर,
और हवाएं छू के बदन को,
भीनी-सी खुशबू बिखेरती,
तब कहीं, रंगीन कलियों का बिछौना,
इस धरा पर बिछने लगे,
विभा जी की लेखनी
देखो चांदनी रात में, “तारिका”
अम्बर धरा, फिर मिलने लगे।
साभार ~~प्रीती बङथ्वाल “तारिका
विभा यानि ज्योत्स्ना
आत्ममुग्ध होना हक़ है न
स्वाभिमान को अहंकार ना समझना कभी
विभा जी को जानिये
फिर मिलेंगे
तब तक के लिए
आखरी सलाम
विभा रानी श्रीवास्तव
बहुत सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंप्राकृतिक संवेदनाओं का अदभुत चित्रण
जवाब देंहटाएंसुंदर लिंक चयन...
जवाब देंहटाएंआखरी सलाम ???
जवाब देंहटाएंसांझ में ना जाने कौन पल आखरी हो और सलाम करने का मौका ना मिले
हटाएंसादर
विभा रश्मि जी की लेखनी प्रस्तुतीकरण हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंदीदी
जवाब देंहटाएंएक दिन की देर
पर नहीं है अंधेर
सच में आनन्द आ गया
सादर