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शनिवार, 19 सितंबर 2015

विभा जी की लेखनी



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष


वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो


खोये-खोये से चांद पर,
जब बारिश की बूंदे बैठती,
और बादल की परत,
घूंघट में हो, उसे घेरती,
तब फिसल कर गाल पर,
एक तब्बसुम खिलने लगे,

विभा जी की लेखनी

कुछ मंद-मंद मुस्कान सी,
आंखें चमक बिखेरती,
हाथों की लकीरों पे हो जैसे,
नाम अम्बर फेरती,
यूं धरा का रंग जैसे,
अम्बर के रंग रंगने लगे,

विभा जी की लेखनी

जब प्यार का अमृत बरस के,
गिरता धरा की गोद पर,
और हवाएं छू के बदन को,
भीनी-सी खुशबू बिखेरती,
तब कहीं, रंगीन कलियों का बिछौना,
इस धरा पर बिछने लगे,

 विभा जी की लेखनी

देखो चांदनी रात में, “तारिका”
अम्बर धरा, फिर मिलने लगे।

साभार ~~प्रीती बङथ्वाल “तारिका

विभा यानि ज्योत्स्ना
आत्ममुग्ध होना हक़ है न
स्वाभिमान को अहंकार ना समझना कभी

विभा जी को जानिये

फिर मिलेंगे
तब तक के लिए
आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव


7 टिप्‍पणियां:

  1. प्राकृतिक संवेदनाओं का अदभुत चित्रण

    जवाब देंहटाएं
  2. उत्तर
    1. सांझ में ना जाने कौन पल आखरी हो और सलाम करने का मौका ना मिले
      सादर

      हटाएं
  3. विभा रश्मि जी की लेखनी प्रस्तुतीकरण हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  4. दीदी
    एक दिन की देर
    पर नहीं है अंधेर
    सच में आनन्द आ गया
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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