शीर्षक: आदरणीय दिगंबर नासवा जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक लेकर हाज़िर हूँ।
आइए पढ़ें आज की पसंदीदा रचनाएँ-
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी...
गर तुम जो अमलतास की रुन-झुन सी लड़ी हो,
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी.
अपने इससे दूर हो जाते
दूजे इसके पास है जाते
दूरपास का ये खेल सारा
नहीं है कोई इसके जैसा
ये तेरा....
अब आवाज़ में, वो कशिश नहीं बाक़ी,जो कभी थी,
वाक़िफ़ चेहरा भी तलाशता है भूल जाने का बहाना,
फीकी पड़ती चमक चाँदनी
छँटने लगे भ्रम के जाले
हंसा पी की पुकार लगाए
जिह्वा पड़ते रहते छाले
हर एक व्यक्ति
हर दूसरे व्यक्ति की ओर
इशारा करता हुआ कहता है।
कहते हुए वह झाड़ रहा होता है अपने कपड़े
और साथ ही अपनी जीभ।
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
खूबसूरत चयन
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति अनुज रविन्द्र जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति में मेरी ब्लॉगपोस्ट सम्मिलित करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय संकलन।
जवाब देंहटाएंसभी को हार्दिक बधाई।
मुझे स्थान देने हेतु हृदय से आभार सर।
सादर
बहुत ही सुन्दर रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार आदरणीय सादर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सराहनीय अंक।
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