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गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

3594...धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी...

शीर्षक: आदरणीय दिगंबर नासवा जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक लेकर हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ें आज की पसंदीदा रचनाएँ-

धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी...

गर तुम जो अमलतास की रुन-झुन सी लड़ी हो,
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी.

ये तेरा पैसा-मेरा पैसा

अपने इससे दूर हो जाते

दूजे इसके पास है जाते

दूरपास का ये खेल सारा

नहीं है कोई इसके जैसा

ये तेरा....

 पुराना अलबम--

अब आवाज़ में, वो कशिश नहीं बाक़ी,जो कभी थी,
वाक़िफ़ चेहरा भी तलाशता है भूल जाने का बहाना,

मनवा रहता है भरमाया

फीकी पड़ती चमक चाँदनी

छँटने लगे भ्रम के जाले

हंसा पी की पुकार लगाए

जिह्वा पड़ते रहते छाले

जीवन

हर एक व्यक्ति

हर दूसरे व्यक्ति की ओर

इशारा करता हुआ कहता है।

कहते हुए वह झाड़ रहा होता है अपने कपड़े

और साथ ही अपनी जीभ।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 


8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत प्रस्तुति अनुज रविन्द्र जी ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति में मेरी ब्लॉगपोस्ट सम्मिलित करने हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुंदर सराहनीय संकलन।
    सभी को हार्दिक बधाई।
    मुझे स्थान देने हेतु हृदय से आभार सर।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुन्दर रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार आदरणीय सादर

    जवाब देंहटाएं

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