हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
इस कोलतार के नीचे
महज ज़मीन नही
मेरे बच्चों के खेलने के मैदान हैं
मेरे पुरखों की देह गंध हैं
इस मिट्टी में
जब तुम रो पड़ोगे
आदतन दांतों से नाख़ून कुतरते हुये
मेरी चारपाई का उपरी पायदान पकड़ कर
तब माफ़ कर देना अपने सर्जक को
उसकी अक्षमता को
सजती रहे ये महफ़िल मेरे बाद भी यूँ हीं ,
शेरो सुख़न का वो सिलसिला छोड़ जाऊंगा ।
यूँ हीं नहीं जाऊंगा सुनों देर ए फ़ानी से ,
जाते हुवे मन्ज़िल का पता छोड़ जाऊंगा ।
रँजूर हो जाएगी छलक छलक कर मीना ,
जिस रोज़ भी तेरा मयकदा छोड़ जाऊंगा
जब भी मैं सोचता हूँ कि
कैसे घूमती होगी पृथ्वी
अहर्निश अपनी धुरी पर, और
सूर्य के भी चारों ओर
परिक्रमा करती हुई
हमेशा की तरह
जवाब देंहटाएंसदाबहार अंक
सादर नमन
गहन भाव सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!सुन्दर संकलन।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाएँ पढ़ने को मिलीं । सदा वाला लिंक नहीं खुल रहा है ।।
जवाब देंहटाएंआभार ।।
आज बहुत दिनों बाद काव्य रस ने सराबोर किया,स्तब्ध किया साथ में भावुक भी किया।इतने सुन्दर लिंक कि अपने आप शायद कभी इन लिंकों पर जाना ना होता।जिसे फुर्सत है3वो डूबकर पढ़ें।समय की सीमा में बँधकर ये रचनाएँ नहीं पढ़ी जा सकती।अहर्निश सागर की अनमोल रचनाओं से प्रेम की शब्दातीत प्रस्तुतियों तक पहुँचकर मन को पढने का अपार आनन्द और सन्तोष मिला।यूँ तो सभी को सब रचनाएँ जरुर पढनी चाहिए पर प्रेम को पढें बिना ना छोडें।हार्दिक आभार और प्रणाम प्रिय दीदी।आपकी प्रस्तुती निसन्देह अपनी पहचान आप है 🙏🙏🌹🌹🌺🌺
जवाब देंहटाएंजी दी,
जवाब देंहटाएंअहर्निश सागर की रचनाओं से परिचय करवाने के लिए अत्यंत आभार इनकी सभी रचनाएँ बेहद हृदयस्पर्शी लगी। माँ पढ़कर भावनाओं का सागर उमड़ पड़ा और प्रेम ने मन छू लिया।
दी सदा वाला लिंक नहीं खुला।
हमेशा की तरह बेहतरीन अंक।
सस्नेह प्रणाम दी।
सादर।
बहुत सुंदर अंक ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं