शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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सोचती हूँ
भ्रमित लेंस से बने
चश्मे उतार फेंकना ही
बेहतर हैं,
धुंध भरे दृश्यों
से अनभिज्ञ,
तस्वीरों के रंग में उलझे बिना,
ध्वनि,गंध,अनुभूति के आधार पर
साधारण आँखों से दृष्टिगोचर
दुनिया महसूसना
ज्यादा सुखद एहसास हो
शायद...।
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आइये आज की रचनाओं का आनंद लें-
चेहरों पर लिखा नहीं होता,वक़्त की हथेलियाँ टटोलती रहती हैं फितरत इंसान की
सिर झुकाये अफीम की खेतों में खड़ा बिजूका,भ्रम ही सही
सोचती हूँ-----
आज के दौर में क्या सचमुच फर्क मिट गया है
हम पुतले हैं या नस्ल इंसान की।
सारी मछलियों की आखें
तीर पर चिपकी हुई होनी चाहिये
और अर्जुन झुकाए खड़ा हुआ होना जरूरी है अपना सिर
सड़क पर पीटता हुआ अपनी ही छाती
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कवि इस यथार्थ वादी दुनिया में सहज कहाँ जी पाता है
संवेदनशील भावनाओं में बहता, हे! कवि हृदय स्नेह की परिभाषा में जीवन का सौंदर्य ढूँढते रहो यही
तुम्हारी असली पहचान है।
अगर किसी को देखकर आपके मन में स्नेह उमड़ता है तो उसे दबाया क्यों जाये ? अभिव्यक्ति वही जो मन से निकले और कवि वही जो निर्मल मन हो , मैं खुद ऐसे संसार में जीता हूँ जहाँ दिखावे को भरपूर आदर सम्मान दिया जाता है, अगर मन में सम्मान है तो दिखावे के नमस्कार की आवश्यकता क्यों वह तो नजरों से और कर्म से दिखेगा ही
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सहज होना,सरल होना साधारण होना कृत्रिमता के
के इस दौर दौर मेऔ चमत्कार से कम नहीं।
मैं तो केवल एक चमत्कार जानता हूँ , जब भूख लगती है खाना खा लेता हूँ ,जब प्यास लगती है पानी पी लेता हूँ, जब नींद आने लगती है, सो जाता हूँ.
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हो चाहे परिस्थितियों के अनुरूप व्यवहार,
हो चाहे व्यक्ति के अनुरूप व्यवहार,
पास हो कि दूर फर्क नहीं पड़ता
मिठास रिश्तों की समेटकर लगता है मानो
अमरीका की रात्रि के साढ़े आठ बज रहे थे और सिडनी के मध्याह्न के डेढ़ बज रहे थे और वीडियो कॉल में बात चल रही थी...
"तू अपने ऑफिस से छुट्टी ले घर जा तैयारी कर और एयरपोर्ट पहुँच। मैं तेरी टिकट कटवाकर तुझे व्हाट्सएप्प पर भेज और मेल करता हूँ।"
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भावनाओं के खूबसूरत संसार में
स्नेह की गरमाहट में लिपटे कुछ एहसास
जिन्हें महसूसने के लिए भारी भरकम शब्दों की
आवश्यकता नहीं मौन
संवेदनशील मन काफी है।
स्वेटर
वह नहीं बोलता कभी
आँखें ही बोलती हैं उसकी
एक छोर भी न पकड़ा और
वर्षों से बुना
शिकायतों का स्वेटर एक पल में उधेड़ गया।
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और चलते-चलते पढ़िए
एक विस्तृत, विश्लेषणात्मक,अत्यंत रोचक और
शुद्ध साहित्यिक अद्भुत पुस्तक समीक्षा।
चल उड़ जा रे पंछी
ऐसे अनेक वृतांत लेखक की मोहक शैली में इस पुस्तक में आते हैं कि पाठक उन्हें पढ़कर लहालोट हो जाता है। कहानी सुनाते-सुनाते लेखक अनजाने में भारतीय चित्रपट के इस चित्रगुप्त के व्यक्तित्व और कृतित्व के विश्लेषण में अपने स्वयं के शोधधर्मी वैज्ञानिक संस्कार की छाप छोड़ने में तनिक भी नहीं चूकता। उनके समूचे कृतित्व-काल को लेखक ने छह काल खंडों में विभाजित किया है। यह काल- विभाजन पूरी तरह से लेखक का अपना वस्तुनिष्ठ अवलोकन है जो समकालीन सिनेमा के इतिहास की पड़ताल भी उसी वैज्ञानिक अन्वेषण पद्धति से कर लेता है। चित्रगुप्त के संगीत की धुनों के सफ़र के साथ-साथ समकालीन गायकों की यात्रा का भी बड़ा सरस वर्णन मिलता है।
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आज के लिए बस इतना ही
कल का विशेष अंंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी|
सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंवह बोलती कभी नहीँ
सादर
शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार छुटकी
जवाब देंहटाएंश्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु साधुवाद
एक अत्यंत आकर्षक और सुघड़ संकलन सुंदर रचनाओं के सूत्रों का। बधाई और आभार, हृदयतल से!🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंमन भावन संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएंसोच रही हूँ कि भ्रमित लैंस हैं या सबके मस्तिष्क ही भ्रमित हो रहे हैं । साधारण न कोई रहना चाहता है न ही साधरण नज़र से किसी को देखना और आँकना चाहता है ।
जवाब देंहटाएंसभी सूत्र उत्कृष्ट हैं । सभी रचनाकारों को बधाई ।।आभार ।
बहुत बढ़िया भूमिका श्वेता दी साधारण आँखें में ही उत्कृष्ट विचार झाँकते हैं। रचनाओं पर आपका दृष्टि कोण सराहनीय है। सभी रचनाएँ सराहनीय।
जवाब देंहटाएंमेरे सृजन को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार।
आभार श्वेता जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सराहनीय अंक। सभी रचनाकारों को बधाई 🌹🌹
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति
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