।। उषा स्वस्ति ।।
मदोन्मत्त फाल्गुण फिर आया,
फिर रञ्जित नभ नील!
फिर सतरंग ब्रजरज उड़ती बन
नयन कल्पनाशील..!!
प०नरेन्द्र शर्मा
रंगोत्सव पर्व सन्निकट है,चलिए सामाजिक, सांस्कृतिक धागों संग कर्मयोग के भावों को पीरोते हुए फागुनी बतासिया का आंनद ले...✍️
चढ़े अईसने ख़ुमार जुग-जुग
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शब्द संजीवनी
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कविता
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करें जो गोपियों की चूड़ियाँ झंकार होली में ,
बिरज में खूब देतीं है मज़ा लठमार होली में ।
अबीरों के उड़ें बादल कहीं है फ़ाग की मस्ती
कहीं गोरी रचाती सोलहो शृंगार होली में ।
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।। इति शम ।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
वक़्त की राह ,वक़्त की चाह
जवाब देंहटाएंवक़्त की एहमियत बतला जाती है
बेहतरीन..
आने वाले पर्वों की शुभकामनाएं
सादर..
उम्दा लिंक्स चयन
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपम्मी जी, इस चर्चा में शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद. पंडित नरेन्द्र शर्मा की पंक्तियाँ उद्धृत करने के लिए भी आभार. रंग अब छाने लगे हैं कल्पना के आकाश में.
जवाब देंहटाएंएक अनुरोध है . जो पंक्तियाँ यहाँ ली गई हैं, उन्हें चित्र के नीचे ठीक से डिस्प्ले करवा दें. एंटर करते ही वो नीचे चली जाएँगी .