जय मां हाटेशवरी......
सर्वप्रथम क्षमा मांगता हूं.....
इतने समय तक अनुपस्थित रहा.....
कुछ तकनीकी समस्या.....
कुछ अधिक व्यस्तता.....
पर आज प्रस्तुती बनाते हुए.....
बहुत प्रसन्न हूं......
अब पढ़िये आज के लिये मेरी पसंद.....
पहली रचना आयातित
देखते ही बीत चले
दिन, महीने , साल यूँ ही !
ना फीके पडे रंग चाहत के
रहा तेरा ख्याल यूँ ही !
प्रगाढ़ थी लगन मन की
कहाँ बात थी अधिकार की ?
सुनी समय ने बस कहानी
तेरे मेरे प्यार की !!
अस्पताल से बाहर आकर जब सब घर जाने के लिए गाड़ी में बैठने लगे तो सलिल वर्तिका के मन को टटोलने के विचार से उससे बोले – “ बेटी ! अगर
तुम्हें अपने असली माता पिता के बारे में जानने की उत्सुकता हो तो मैं प्रतीक से बात करके देखूं | क्योंकि वह उसी क्षेत्र का रहने वाला है , जहां तुम अपने बाबा
को कूड़े में पडी मिली थीं |”
“ पापा !” वर्तिका गाडी स्टार्ट करते हुए बोली – “ मैं उन माता पिता के विषय में जानकर क्या करूंगी जिन्होंने मुझे जन्म लेते ही कुत्तों को नोच नोच कर खाने
के लिए कूड़े में फैंक दिया | हमारे देश में तो मृत्यु दण्ड के क्रूर से क्रूर अपराधी को भी न्यायालय यातनाएं देने की अनुमति नहीं देता | पर मेरे विषय में तो
यह तक नहीं सोचा गया कि मैं कितनी छोटी हूँ | जब तीन तीन चार चार कुत्ते अपने तेज बड़े डांतों से मुझे नौचेंगे तो मैं कितना चीखूंगी , कैसे छटपटाऊँगी तडपूंगी
| जब कोई कुत्ता मेरी टांग खीचेगा , कोई हाथ ,कोई मेरा पेट जबड़े में भरेगा और कोई मेरा मुह - तो मुझ पर क्या बीतेगी | अगर बाबा उजाला होने से पहले मुझे न देखते
और अपनी कुटिया पर मुझे नहीं लाते तो यही सब तो मेरे साथ होता |
पापा मुझे जीवन देने वाले तो मेरे बाबा हैं और मेरा पालन करने वाले मम्मी पापा आप दोनों हैं | मैं किसी और को कुछ नहीं जानती और न जानना चाहती हूँ |
पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां, सीमाओं से परे,
समय जिधर था,
न जाने, कौन यहां आया था!
गहन अनुभूतियों नें, .
हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!
हृदय का मत यूं संताप बढा
बन जरा सत्य में लिखा पढा
अब झांक जरा अंतर्मन मे
औरों के माथ ना दोष चढा
लोगों का क्या है ?
उनके तंजों की परवाह छोड़ो
अब अपने जी की भी कुछ करो
जीने का नज़रिया बदलेगा ,
दिलो -दिमाग खुशियों से लबरेज होगा ,
शुरुआत तो करो
जब आमंत्रित प्रासिद्ध वायलिन वादक मंच पर आ गए तब ऋषभ ने उनके चरणों में झुककर प्रणाम किया। उन्होंने उसे हृदय से लगा लिया। अपने घुटनों पर बैठे हुए और उसको
हॄदय से लगाये हुए ही उन्होंने माइक पर कुछ कहा था। लेकिन उसे तीन ही शब्द याद रहे। "आज ऋषभ ने 'दिल से बजाया' है।" हॉल में तालियाँ बजती रहीं। अब उसे गुरुजी
के सूत्र - वाक्य "दिल से बजाना" का अर्थ समझ में आ गया था।
आज बस यहीं तक......
अब मिलते रहेंगे.....
धन्यवाद....
बेहतरीन अंक..
जवाब देंहटाएंआभार आपका
सादर..
लाजबाब लिंक्स चयन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर और सराहनीय भी ।
जवाब देंहटाएंआदरणीया यशोदा अग्रवाल जी, इस अंक में चयनित सारी प्रविष्टियाँ अच्छी लगीं। एक ऐसे ही विविध रंगों की छटा बिखेरते सुंदर अंक की प्रतीक्षा है। सादर साधुवाद!
जवाब देंहटाएंप्रिय कुलदीप जी,बहुत दिनों के बाद आपको मंच पर सक्रिय देखकर बहुत अच्छा लगा।हार्दिक अभिनंदन आपका। सभी सरस और रोचक रचनाओं को आज के अंक में लिंक करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।मेरी रचना को भी शामिल करने के लिए आभारी हूँ।आशा है कि आप नियमित रूप से मंच पर सक्रिय योगदान देते रहेंगे।पुन आभार 🙏
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